गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

दिव्य प्रेम

#####
घुलनशील कर गया रूह को,
स्नेह स्पर्श तुम्हारा.
दृढ बंधन बाँहों का पा कर ,
सर्वस्व स्वयं ही हारा...


नयनो की भाषा समझी तो ,
प्रेम अबूझ रहा ना
द्वैत मिटा,एकत्व घटा कब,
ये भी अब सूझ रहा ना
छाया बन कर साथ हो पल पल,
बीता दिन यूँ सारा
दृढ बंधन बाँहों का पा कर
सर्वस्व स्वयं ही हारा ...........


हृदय तेरी धड़कन से गुंजित,
खुशबु साँसों में तेरी
अधरों पर छाप तेरे अधरों की,
बाहें बाँहों में तेरी
दिव्य प्रेम के यज्ञ कुंड में,
मन हारा तन वारा
दृढ बंधन बाँहों का पा कर,
सर्वस्व स्वयं ही हारा ...

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

प्रेम-वंदना

मान नहीं, अभिमान नहीं है
प्रेम है क्या ये ज्ञान नहीं है

पर कोमल मन की अभिलाषा
तुझे समर्पित,मेरी हर आशा

हर पल तुझको खुद में पाऊँ
यादें क्या? कुछ भूल तो जाऊँ.!!

ले सहेज तनिक उर में अपने
जिए हैं तेरे साथ जो सपने


सपनों की दुनिया भी निराली
भरा नहीं कुछ,नहीं है खाली

मेरा मन बन गया है दर्पण
भाव किया हर,पूर्ण समर्पण

दिल चाहे बन जाऊँ मानिनी
कभी रिझाऊँ ,हो जाऊँ कामिनी

नारी मन के भाव सरल हैं
अमृत हैं ये,नहीं गरल हैं

मन तुझ पर अमृत बरसाए
बूँद देख कोई व्यर्थ न जाए

सूर्य है तू और सूर्यमुखी मैं
लगूं अंक हो जाऊँ सुखी में

पिघलूं तेरी उष्ण बाँहों में
तर्पण हो मन इन राहों में

तेरी किरणों से हो आलोकित
कर दूँ मन उपवन प्रकाशित

प्रेममय मन तुझको अर्पित
अहम्,क्रोध, सब हुए विसर्जित

कर दे मन को निर्मल इश्वर
प्रेम के पथ मिलता परमेश्वर

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

चेहरा

लाया था वो
रंगबिरंगा,
सुन्दर सा
हँसता ,मुस्काता
एक मुखौटा
ढक के खुद को
भरमाया था
बहलाया था
सबको उसने...

किन्तु चमकीले
भड़कीले
लगे हुए सब
रंग थे कच्चे
धुल गए बारिश में
भावों की,जो
दिल से निकले,
थे सच्चे

झेल नहीं पाया
वो चेहरा
था बदसूरत
पहले से भी
रंग रोगन करने
दौड़े सब
चिंता सबको थी
अपनी भी..

इस भगदड़ में
उतर गए जब
चेहरों पर से
सभी मुल्लमें
खुद को ही
पहचान न पाए
क्या है बाहर
क्या है दिल में

क्यूँ व्यर्थ तुम
समय गंवाते
चेहरों की इस
सार संभाल में
रहो सहज सुन्दर
नैसर्गिक,समझो
जी लो जीवन
अन्तराल में

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

मेरे चाहे कब आये हो.........

पल भर को भी दूर न होते
ऐसे मानस पर छाये हो
आना जाना श्वासों जैसा
मेरे चाहे कब आये हो

तुमने मुझको कब भरमाया
मैंने तुममें खुद को पाया
किसको समझूँ ,किसको जानूं
रूह के मेरी,तुम साए हो
मेरे चाहे कब आये हो........

महसूस किया स्पर्श तुम्हारा
सत्य,भ्रम क्या नहीं विचारा
अर्पण निश्छल मन कर बैठी
तुम अविचल क्या रह पाए हो?
मेरे चाहे कब आये हो....

जड़ता का बंधन है तोड़ा
अंतस को बस बहता छोड़ा
मन गंगा के प्रचंड वेग को
थामने बन के शिव आये हो
आना जाना श्वासों जैसा
मेरे चाहे कब आये हो.........

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

अहम् व आत्मसम्मान

झीना सा ही अंतर है
अहम् व आत्मसम्मान में
इक फैलाता विष जड़ गहरी
दूजा फूल खिलाये जहान में

स्वयं जो सोचें स्वाभिमान है
वही दूसरे का अभिमान
छोटे से एक मतान्तर को
मान लिया जाता अपमान

जैसा अंतस होता जिसका
प्रतिबिम्ब दिखता वही अन्य में
खोल के मन की आँखें देखो
घिर बैठे क्यूँ तिमिर अरण्य में

नकारात्मक ऊर्जा अहम् की होती
करती निज का ही नुकसान
सोच सकारात्मक दृढ कर अपनी
ढह जाएगा मिथ्या अभिमान

बुधवार, 18 नवंबर 2009

अंधेरे और बाती की गुफ़्तगू

बाती का जवाब अंधेरे को ...पहाड़ और ज़मीन के साथ शुरू हुई प्रश्न और उत्तर श्रृंखला का एक और पायदान है ..अंधेरे द्वारा किया गया सवाल रचा था मेरे मित्र ने..जिसका जवाब रचा गया मेरी कलम से ...दोनों रचनायें एक साथ ही पूर्ण हैं इसलिए यहाँ अपने मित्र की अनुमति ले कर उनकी रचना 'किया सवाल अंधेरे ने बाती से ' पोस्ट कर रही हूँ..और उसके आगे मेरी रचना 'बाती का जवाब ' ..... पाठक दोनों रचनाओं का एक साथ आनंद ले सके इस मंशा से...

किए सवाल अंधेरे ने बाती से

क्यों
जल जल कर
तबाह कर रही हो
वज़ूद अपना
ए बाती !

देखो मुझे
बैठा हूँ
और कायम हूँ
सुकून-औ -चैन से
उसी की पनाह में….
जलती हो तुम
शायद जिस के लिए
मुझे मिटाने का
मकसद लिए………….

बेवफा दिया
अपने आगोश में
भरता है
अपने हमनवा
तेल को
डूब कर जिसमें
तुम करती हो
कुर्बान खुद को और
नाम होता है दिए का ;

कहते हैं सब
दिया लूटा रहा है रोशनी
और जिस्म खुद का
जलाती हो तुम………….

जला देती हो
जल जल कर तुम
दिए के हमनफस को
और तब
होती हो तूडी-मूडी सी
बुझी-बुझी सी तुम और
खाली खाली सा दिया
और होता हूँ
छाया सब तरफ
मैं……..
सिर्फ़ मैं………….
मैं घनघोर अंधेरा………

ए कोमलांगी
गौरवर्णा
इठलाती
बल खाती
बाती
आज पूछता हूँ
तुझसे
किस-से करती हो
तुम मोहब्बत
दिए से
तेल से या
मुझ से………..?

किस के लिए फ़ना करती हो
वज़ूद अपना…….?
क्या है तुम्हारी फ़ितरत……?
क्या है फलसफा तेरे रिश्तों का….?
कैसी है तेरी ज़फाएँ…….?
कैसी है तेरी वफायें …….?

बाती का जवाब अंधेरे को

अंधेरे के अज्ञान पर
मुस्कुरा उठी
मन में बाती

पूछ्ते हो
जिस वज़ूद के
फ़ना होने का मकसद
जन्मा है वो बस
जलने के लिए
रूप यौवन
सब है व्यर्थ
काम ना आऊं गर
ज़माने के लिए

तम को मिटाना
नहीं मंज़िले-मक़सूद मेरी
वक़्त--ज़रूरत
रोशन कर आलम को
जीना है फ़ितरत मेरी

जिसे तुम कहते
जल जल मरी
वही तो
लुत्फ़--ज़िंदगानी है
किसी घर को करा
मैने रोशन,वही
मेरी राहते रूहानी है

मोहब्बत खुद से है इतनी
फ़ना होती
हूँ अपने लिए
ना जलूं मैं गर
तो बेकार हैं
तेल भरे दिए
वो मेरे हमसफर
देते हैं साथ मेरा
मंज़िल को पाने में,
तुम विराट होके भी
दुबक जाते हो
पनाह में दिए की
जिस लम्हा जलती
मैं ज़माने में

ना कोशिश करो
भरमाने की मुझको
एहसास है मुझे
दोस्ती का अपनी
दिए तेल के साथ,
वफ़ा और जफ़ा का
कोई बंधन नहीं
बस जीते हैं
लिए हाथों में हाथ

रहे भटकाते तुम
सभी को ,
राह दिखाती मैं हूँ
नहीं हटूँगी पथ से अपने
मैं इसी जलने में
खुश हूँ मगन हूँ ..
बिन दीपक बाती अधूरी
बाती बिना दिया भी हारा
भीग दिए के प्रेम तेल में
रोशन करते ये जग सारा

पुकार ज़मीन की और पहाड़ का जवाब

एक मित्र की रचना जिसका जवाब देने की कोशिश में.."सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की " का जन्म हुआ उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ और उसके साथ अपनी रचना ..मेरी रचना इस ज़मीन की पुकार के बिना अधूरी है ..

पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने

क्यों करते हो हाय-तौबा
छूने आसमान को
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..

जब
गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर
माना के ज़ज़्बा--गुरूर तुम्हारा है आज़
कल झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी मगर
कह डाला था उस ज़मीन पूर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……

काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ या
तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ .दो तुम नशा--गुरूर
राज़--हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….


सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की


सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की

चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को

आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है
ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की

गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीं की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की

एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है

सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें

आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है

मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना


मंगलवार, 17 नवंबर 2009

महक

महक
फूलों की
नहीं
बंधती
चमन की
झूठी
बाड़ों में ..
नहीं
होती है
वो परतंत्र
कभी भी
इन
किवाड़ों में..

नहीं होता है
नियत लक्ष्य
कहाँ जाना
मिले किसको..
न कोई
होता पैमाना
किसे कम या
अधिक किसको

बसी है वो
हवाओं में
बने उसका
जो दीवाना..
भरे आनंद
उस
मन में
जगा दे
इक नया
सपना

बना ले
रूह को
अपनी
महक
ऐसे ही
गुलशन की...
उड़ा दें
दूर तक
खुशबु
हवाएं
तेरे
जीवन की

करो
कुछ ऐसा
जीवन में,
चमन
खिल जाए
हर शै में...
करो न
रूह को
बंदी
किसी
तू-तू
औ'
मैं-मैं में....

रविवार, 15 नवंबर 2009

हस्ती मिट गई मेरी

जुड़े जो तार तुझसे,ये हस्ती मिट गयी मेरी
असर तेरे तस्सवुर का ,कि नींदें उड़ गयी मेरी

क़दमों में रवानी है,दिल में भी उमंगें है
जानिब तेरे चलने की,चाहत बढ़ गयी मेरी

खिल जाए हँसी लब पर,सोचूं जो तेरी बातें
चुगली मेरे भावों की,निगाहें कर गयी मेरी

उतरी हूँ जाने कैसे , बहर-ए-इश्क में दिलबर
खुद ही तेरे धारे में, कश्ती बढ़  गयी मेरी

शब बीते,सहर कब हो,क्या फर्क मुझे जानां
आके तेरी बाँहों में,  घड़ियाँ थम  गयी मेरी

हर लम्हा सजा लूँ मैं,बस तेरे ख़यालों से
कुछ और न करने की,हसरत रह गयी मेरी

सोमवार, 9 नवंबर 2009

अरमान मेरे दिल के

संग वक़्त-ए-धार के ख़यालात बदल जाते हैं
लोग गिरते हैं मगर गिर के संभल जाते हैं

लांघते हैं दर्द जब, मासूम हदों को दिल की
सूनी सूनी इन आँखों में मोती से मचल जाते हैं

दुनियावी रवायत से डर कर जो बने रिश्ते
हलकी सी इक ठोकर से बेवक्त बदल जाते हैं

तीरों ने ज़माने की दिए ज़ख्म मेरी रूह को
आके तेरी पनाहों में सब घाव सहल जाते हैं

महफिल से उठे,और यूँ चले आए तेरी जानिब
सुरूर-ए-मोहब्बत में, बढ़े पांव फिसल जाते हैं.

राहें तो मेरी बदली, मंजिल का पता वो ही
अरमान मेरे दिल के शायद ही बदल पाते हैं.

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मिलन.....(आशु रचना)

उम्र कोई हो
देश कोई हो
काल कोई हो
क्या करना
तेरे भावों ने
इस दिल का
श्रृंगार किया
बन के गहना

रही तडपती
एक बूँद को
जैसे हो मीन
समुन्दर में
बदरी घिर घिर
कर न बरसी
चातक देखे
अम्बर में
बरसाया जो तूने
अमृत
उस के स्वाद का
क्या कहना
दिल से दिल के
तार जुड़े जब
दूरी तुझसे
क्या सहना

मिलन आत्मा का होता है
देह तो नश्वर होती है
साधन होता
साध्य कभी भी
मंजिल
परमेश्वर होती है
रूह से रूह का
मेल हुआ जब
देह भावः में
क्या बहना
तेरे भावों ने
इस दिल का
श्रृंगार किया
बन के गहना .........

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

स्वयम्भू...

बन बैठा स्वयम्भू मालिक तू
निश्चित कर निज के अधिकार
कभी न जाना क्या है मन में
छद्म दृष्टि से देखा संसार

हर कृत्य होता इसी भावः से
अच्छे से अच्छा बन पाऊँ
दुनिया मुझको खूब सराहे
नज़रों में सबकी चढ़ जाऊँ

पूरी करने हर एक अपेक्षा
करे प्रयत्न जी जान से तूने
फिर भी मन संताप में डूबा
ख़ुशी हृदय न पायी छूने

निज से जब पहचान हुई तो
गिरी दीवारें मान्यताओं की
कब से था सहमा सकुचाया
चिंता थी बस भर्त्सनाओं की

भर्त्सना मिलती तुझको प्राणी
दृढ़ता जब न होती मन में
कभी इधर ,कभी उधर को डोले
बदल जाये हर पल हर क्षण में

सुन तू अपने अंतर्मन की
कभी न देगा गलत सलाह
छुपा वहीँ बैठा है मालिक
तू पायेगा उसकी राह..........

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

भराव

मूँद के आँखें
मूढ़ !!!!!
भरे प्याले में
उन्डेले जा रहा है
तरल
बासी भराव को
बिना किये खाली
कैसे समाएगा
ताजा अमृत
उसमें.....

रविवार, 1 नवंबर 2009

अनजाने रिश्ते

कहनी क्या हैं सुननी क्या है
बातें सब जानी पहचानी
दिल से दिल तक आने वाली
कब होती राहें अनजानी

फिर भी मन शब्दों में ढूंढें
तेरे अंतस के भावों को
रिक्त रहे कोई एक कोना
भर न पाए कुछ घावों को

मरहम तेरे स्नेह का लगता
पर इच्छा बढ़ती ही जाए
करूँ प्रतीक्षा पल पल तेरी
नज़र ख्वाब गढ़ती ही जाए

महसूस करूँ हर लम्हा खुद में
ज़हन पर ऐसा है छाया
दिल की धड़कन में,सांसों में
क्या तूने भी मुझको पाया !!!

कैसे कब जुड़ गया ये नाता
न मैं जानू न तू जाने
नाम कोई न होता इनका
रिश्ते ये होते अनजाने

इन रिश्तों को जी कर ही तो
पूरक होते भावः हृदय के
निज से निज का परिचय होता
बनते रस्ते स्वयं उदय के

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

प्रीत---(आशु रचना )


सुना था मैंने कहे है ज्ञानी
"भय बिनु प्रीत न होए"
प्रीत भई जब उस मौला से
भय काहे को होए ...

भय काहे को होए रे मौला
मन में लगन लगी जब
हुई दीवानी तन मन बिसरा
डर इस जग से क्या अब..

डर इस जग से क्या अब मौला
प्रेम अगन में तप कर
कुंदन हो गयी नश्वर काया
राम नाम जप जप कर

राम नाम जप जप कर मौला
उर आनंद समाया
प्रेम भावः के सम्मुख भय का
भावः न कोई बच पाया

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

मासूम

कितने मासूम से ख्याल
आते हैं अक्सर
ज़हन की दीवारों पर
बिखर जाते हैं
बन के रंग
आंखों में
उतर आता है
उन ख्यालों को
जीने का सुकून ..
खिलखिलाहटें ,
मुस्कुराहटें ,
मन से गुज़र कर
आती हैं होठों पर
और कर देती है
वातावरण भी आनंदित
कैसे हो सकते हैं
फिर ऐसे ख्याल विकृत
वो तो हैं बस
निश्छल मासूम
बच्चों के मन जैसे
दिला जाते हैं याद
मुझे भी बचपन
खेले जिसमें खेल
जिस पल खेले
वो पल सच था
नहीं था उसका मेल
जी लें अब भी
गर हम बचपन
सत्य मान इस पल को
बिसरे कटुता
निर्मल हो मन
याद रखे न कल को

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

दीपक

जला था दीपक लगातार यूँ ,हो गया महत्वहीन
अपेक्षित था जो प्रेम स्वजन से, ना पाया वह दीन

फिर भी घर को रोशन करता धरम निभाता अपना
क्षीण थी बाती ,तेल शून्य था , ज्योति बन गयी सपना

तभी कोई अनजान मुसाफिर , छू गया सत्व दीपक का
भभक उठी वह मरणासन्न लौ,भर गया तेल जीवन का

घर व मन का कोना कोना ,ज्योति से तब हुआ प्रकाशित
दीपक में किसकी बाती है , तेल है किसका, सब अपरिभाषित

निमित्त बना कोई ज्योति का,हुआ प्रसारित बस उजियारा
यही तत्व है, दूर करो सब, मेरे तेरे का अँधियारा

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

कैसे करूँ

दिल के ज़ख्मों का नज़ारा कैसे करूँ
दर्द-ए-सागर से किनारा कैसे करूँ

बहता है सफीना मेरा,मौजों के इशारे पर
पतवार तेरे हाथों में,गवारा कैसे करूँ

नज़रों से बयां होती ,हर बात मेरे दिल की
देखे न तू मुझको,इशारा कैसे करूँ

हर  अश्क छुपाया है,नज़रों से तेरी जानम
सितम जज़्बात पे अपने,गवारा कैसे करूँ

कहने को बहुत कुछ है ,खामोश जुबां लेकिन
जज़्बों को मैं लफ्जों का,सहारा कैसे करूँ

गुज़रे हुए वो लम्हे हासिल थे जिंदगी का
खो कर उन्ही लम्हों को,गुज़ारा कैसे करूँ

................................

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

Mukt

nahin hai
insaan Mukt
in swachhand pakshiyon,
gamakti bayaron,
barste badalon,
pighalte pahadon
ki tarah....

diya hai usne
swayam ko
pinjre jaisa samaj,
jo kabhi bada ,
kabhi chhota
to hota hai
par swachhand udan
milti nahin sehaj
pakshi ko

phadphada ke pankh,
takra ke deewaron se,
kar baithta hai
nireeh panchhi
ghayal khud ko
aur pinjra vijayonmat
bhav se apne
astitva par
garv karta jata hai..........

bhagya

बनते हैं
कारण हम
निज भाग्य को
पनपाने में ..
बोते हैं बीज
अदृश्य हाथों
स्वयं ही
अनजाने में....

समय ले कर
बीज फूटते
कभी
बबूल
तो कभी
आम हो के
कर के
विस्मृत
अपनी बुआई
हो जाते हम
विह्वल
बबूल को
दुर्भाग्य
कह के

गर करे
बुआई
हो
सजग और
चेतन
छांटे
खर- पतवार
अवांछित
अविराम
हो कर
वृक्ष
भाग्य का
फलेगा
मनवांछित
देने ठंडक
मन को
छायादार
हो कर

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

rasta

manzil ko pane ki lipsa mein
mat bhool tu manmohak rasta
har kshan ka degi anand tujhko
man ki sajagta aur grahyata

agyaat ki fikr mein kyun
karta upeksha is kshan ki
utsav anand hai har pal mein
pehchan, aankhein khol man ki

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

स्वपन

एहसास तेरे
होने का प्रखर
शब्द मौन थे
भावः मुखर

चेहरे पे गिरी
जुल्फों को हटा
अधरों से
अपने अधर सटा

भर दृढ बंधन
में बाँहों के
ले चले मुझे
तुम किन राहों पे


नैनो की भाषा
मादक अधीर थी
हृदय की गति
हो रही तीव्र थी


कम्पन से
रों रों गुंजारित
प्रतिध्वनि कहीं
होती उच्चारित

बिसर गया
अस्तित्व  भी निज का
भेद मिटा हर
कण से द्विज का  

फूल से हल्का
लगता था तन
उड़ा मेघ संग 
चंचन सा मन

मदमस्त पवन
का झोंका आया
चिडियों ने
चहचहा बतलाया

देख सुनहरी
भोर की बेला
स्मित अधरों
पर है खेला

खुली जो  पलकें
पता चला ये
स्वपन था गहरा
खूब भला ये

डूब प्रेम में
दिल खोता है
स्वपन भोर का
सच होता है.....

अंहकार

अंहकार मद चढ़ता जिसपर
दिखता उसे उजास न कोई
मैं ही मैं का बजता डंका
ध्वनि हृदय की उसमें खोयी

होते उत्पन्न कलुष विकार जब
रावण सम ज्ञानी मिट जाते
स्व-आदर के भ्रम में प्राणी
अहम् को अविरल पोषित पाते

ज्ञान भला है उस ज्ञानी का
झुकना करता जिसे न विचलित
सजग ,सहज और स्व-अनुभव ही
करता दिशा दिशा आलोकित........

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

इज़हारे-इश्क/izhare-ishq

इज़हारे-इश्क नहीं आसाँ,दिल का ये फ़साना है
जज़्बों को ज़ुबां दे कर , नज़रों से सुनाना है ...

पल पल का पता पूछे,मुझसे ये तेरी आँखें
हर लम्हा है तू मुझमें, बाकी क्या बताना है

वो ख्वाब जो देखा है,हमने खुली आँखों से
दुनिया की निगाहों से, पलकों में छुपाना है

खिल उठते हैं गुल हर सूँ,एक तेरे तब्बसुम पे
हर शै में मोहब्बत को, इस तरह सजाना है

छू छू के तुझे आये,जो महकी सबा मुझ तक
खुशबु को तेरी जानां , तन मन में बसाना है..

तू मैं हूँ की मैं तू है, क्या फर्क रहे जानम
रूहों को मिलाने का , ये जिस्म बहाना है

*************************

izhare -ishq nahin asaan,dil ka ye fasana hai
jazbon ko zuban de kar,nazron se sunana hai

pal pal ka pata poochhe,mujhe ye teri aankhein
har lamha hai tu mujhmein,baki kya batana hai

wo khwab jo dkeha hai,humne khuli aankhon se
duniya ki nigahon se,palkon mein chhupana hai

khil uthte hain gul har soon,ik tere tabbasum pe
har shai mein mohabbat ko,is tarah sajana hai

chhoo chhoo ke tujhe aaye,jo mehki saba mujh tak
khushbu ko teri jana,tan man mein basana hai

tu main hun ki main tu hai, kya farak rahe janam
roohon ko milane ka ,ye jism bahana hai ......

शनिवार, 19 सितंबर 2009

जज्बा-ए-सफ़र

हवाओं के तेवर से  हो  बेखबर
जलाऊं शमा मैं हर इक रहगुज़र

गिला कोई नहीं ,ना है जो  हाथ हाथों में
मेरे जज्बों में शामिल है तेरा जज़्बा-ए-सफ़र

अँधेरे रात के अब कैसे भटका पायेंगे मुझको
बनी है हिम्मत-ए-रूह मेरे हिस्से की सहर

इश्क बेलफ्ज़ बहता है दिलों के दरमियाँ 
गुफ़्तगू करती है , तेरी नज़र मेरी नज़र

छुपा  सकते नहीं  जज़्बात  दिल के हमनवा
निगाहें सुन ही लेती हैं बयां को  इस कदर

फ़ना हो जाता है वो शख्स, रहे जो बेख्याली में
होशमंदों पे होता है  मोहब्बत का अलहदा असर.

रविवार, 13 सितंबर 2009

कहानी दो बीजों की

सुनो कहानी दो बीजों की
एक ही वृक्ष से जन्मे थे जो
जीवन संभव दोनों में था
जिसको जीने पनपे थे वो

एक ले गयी पवन उड़ा कर
दूजा इतराया घर पा कर
नेह मिलेगा मुझको वांछित
पा जाऊंगा अपना इच्छित

परिस्थिति जो भी हुई उपलब्ध
दोनों के अपने प्रारब्ध
पहला पोषित हुआ प्राकृतिक
दूजा रहा असीम सुरक्षित

जब चाहे वो सींचा जाना
करे निराई मालिक अनजाना
बंध गयी दूजे हाथ ज़िन्दगी
चाहे पीना हो या खाना

कभी अति वृष्टि कभी सूखे से
अंतस -सत्व वो खिल न पाया
फूटे अंकुर उससे पहले
जीवन अन्दर ही कुम्हलाया

मिला  सतत प्राकृतिक  पोषण
प्रथम बीज की सम्भावना को
पा कर अवसर अंत:ज्ञान के
किया विकसित  प्रभावना को

नमी,ऊष्मा ,पोषण अनुकूल
मिलते ही खिल गया वो फूल
अंतस की खुशबू से उसकी
महकी रूहें जन-मानस की

दिया ब्रह्म ने उसको जो भी
हुआ प्रस्फुटित अंतस का तत्व
प्राकृतिक और सजग सहज है
जीवन रस का यही है सत्व

शनिवार, 12 सितंबर 2009

बयां है ये.......

आँखों से गिरे मोती , जज्बों की ज़ुबां है ये
पलकों में जो पोशीदा , सपनो का बयां है ये

ख्वाबों का बसाया है एक महल वीराने में
पूछे जो कोई कह दो, जन्नत सा मकां है ये

निमकी भी है अश्को की ,शीरा है तब्बस्सुम का
ख्वाबों के रंगी मंज़र ,जज़्बों की दुकां है ये

तस्वीरे -सनम झलके नज़रों से मेरी जैसे
दुनिया की रवायत में मंज़ूर कहाँ है ये

खुदा औ" सनम दोनों ,कुछ फर्क नहीं दिल पे
सजदा करूँ राहों में बस मेरा इमां है ये

लबों से चूमूं ,हर नक्शे-कदम को तेरे
मुझको मेरी जानां. पूजा का निशां है ये

बुधवार, 9 सितंबर 2009

sanrakshan

घेरा था
जाली की
बाड़ से
नन्हे से
पौधे को
ले  कर
यह
प्रयोजन ..
बन
ना
जाए
क्षुधातुर 
जंतुओं
का
बेवक्त
ही
वह
भोजन ...


देता 
है छाँव
पथिक को
वृक्ष
हुआ
सुदृढ़
ले कर
प्राकृतिक
विकास...
न हटाते
बाड़  गर 
समयानुकूल
हो कर,
रह जाता
कुंद हो
उसके
अंतस का
हर
एहसास

दस्तक

एक पुरानी रचना कुछ संशोधनों के साथ पेश कर रही हूँ


सुनी है बिन आहट, उस दस्तक पर ऐतबार है
अहद-ए-वस्ल हुआ नहीं ,फिर भी इंतज़ार है

गुज़रा यूँ हर लम्हा ,तस्सवुर में तेरे जानां
बेकरारी के पहलू में ज्यूँ मिल गया करार है

एहसास मेरे महके ,ज्यूँ तेरे कलामों में
साँसों से तेरी छू कर , रों रों मेरा गुलज़ार है

कहें ना कहें , सुन लेते हैं हम बातें दिल की
निगाहों की है गुफ़्तगू ,लफ़्ज़ों की ना दरकार है

बज़्म में मेरी, नहीं काम इन खिज़ाओं का
हर लम्हा खिलती यहाँ मौसमे - बहार है

ना सुनेगा जो तू ,तेरे लिए लिख छोड़े थे
पेशे-खिदमत ज़माने को मेरे अशआर है

फ़र्क मेरी डोली तेरे जनाज़े में नही है ज़्यादा
तुझे भी मुझे भी ले जाते चंद कहार है

डूबे हैं इश्क़ में ,नहीं फ़िक्र हमें साहिल की
हमें तो मुबारिक बस मोहब्बत की मझधार है

मीठा सा दर्द है मोहब्बत की चुभन का तन में
दुनिया समझी है उसे ,कि गुल नहीं वो खार है

लबों को सीना मजबूरी सही ए जानम
सुन ख़ामोशी,मेरी मोहब्बत का ये इज़हार है

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

प्रेम के दो रूप/prem ke do roop

हो आकर्षित 
दैदीप्य शमा से
खिंच आता 

उस ओर पतंगा,
तीव्र अगन 

उस क्षण की 
पा कर
हो जाता 

खुद भस्म पतंगा,
कहे शहादत 

इसको प्रेमी
उन्मत प्रेम की 

यह परिणिति,
करे ना 

उज्जवल दीपशिखा को
प्रेम की होती 

ऐसी नीति ??

करता विकसित 

स्पर्श भ्रमर का
पुष्प खिले ,

खिल कर मुस्काए ,
भंवरा तृप्त 

हो जाता 
मधु से
हानि फूल को 

न पहुंचाए ,
यही 

प्रेम का 
सत्व-तत्व 
जो
कण कण में 

खुशबु भर जाए,
पा कर अपने 

अंतर्मन में
यह सुवास , 

जन जन तर जाए ..




ho akarshit dedipya shama se
khinch ata us ore patanga
teevra agan us kshan ki paa kar
ho jata khud bhasm patanga
kahe shahadat isko premi
unmat prem ki yeh pariniti
kare na ujjval deepshikha ko
prem ki hoti aisi neeti??



karta viksit sparsh bhramar ka
kusum pallavit ho kar muskaaye
kare tript bhanwre ko madhu se
haani usko na pahunchaye
aisa prem niswarth bhav ka
kan kan mein khushbu bhar jaaye
bhar ke apne antarman mein
ye suwas, jan jan tar jaaye ..

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

prem-bhakti


रुका रुका सा ये मन था
बुझा बुझा सा ये तन था
बरसा तेरे नेह का बादल
भीगा तन मन भर गया आँचल

पत्थर की ज्यूँ एक शिला हो
मूरत बन बैठी थी ऐसी
भाव प्रेम के छू नहीं पाते
जाने उलझी थी मैं कैसी

हल्की सी बस एक छुअन से
टूटा पत्थर सा वो बाँध
रुकी हुई नदिया बहने से
सिमट ना पाया वो उफान

खोल जटाएं शिव के जैसे
थामा तूने प्रचंड वेग को
गंग -धार सी
अँखियाँ उमड़ी
धोने मन के  उद्वेग को

स्पंदन वो पहुँचे गहरे
हुआ सुवासित चंदन सा मन
जल कर तेरी प्रेम अगन में
दमका तपकर कंचन सा तन

रोम रोम यूँ हुआ सुवासित
जैसे महके रजनीगंधा
मदमाती डाली सी लहकूं
चमन पुष्प भी हो शर्मिंदा

है निर्मल मन का हर कोना
बहे प्रेम धार कुछ ऐसे
छू कर उस धारे को प्राणी
परमपिता तक पहुँचे जैसे

प्रेम बना है भक्ति मेरी
करना मुझ पर कृपा ए प्रियतम
प्रेम सुधा ये बिखरा दूं यूँ
रोशन हो घट घट का
हर तम.........


घट -इस रचना में अंतः:करण के लिए इस्तेमाल किया है .... :)

**************************

ruka ruka sa ye man tha
bujha bujha sa ye tan tha
barsa tere neh ka badal
bheega tan man bhar gya aanchal

paththar ki jyun ek shila ho
moorat ban baithi thi aisi
bhaav prem ke chhoo nahin paate
jaane uljhi thi main kaisi

halki si us ek chhuan se
toota paththar sa wo baandh
ruki hui nadiya jab beh gayi
simat na paya wo oofan

khol jatayein shiv ke jaise
thama tune prachand veg ko
nirmal karti man ko umdi
ankhiyan dhone udweg ko

spandan wo pahunche gehre
hua suwasit chandan sa man
jal kar teri prem agan mein
damka tapkar kanchan sa tan

rom rom yun hua suwasit
jaise mehke rajnigandha
madmati daali si lehkun
chaman pushp bhi ho sharminda

hai nirmal man ka har kona
bahe prem dhaar kuchh aise
chhu kar us dhare ko prani
parampita tak pahunche jaise

prem bana hai bhakti meri
karna mujh par kripa aye priytam
prem sudha ye bikhra dun yun
roshan ho har ghat ghat ka tam....



मंगलवार, 28 जुलाई 2009

Saray

De kar khuda ne rooh ko meri Ek adad ghar
bana ke malik uska bheja tha dharti par

par ban ke reh gaya
saray ik , wo ghar
aur rooh murjha gayi
mehmano ki khidmat kar

jo aate rahe jate rahe
apne nakhre dikhate rahe
kabhi ek beti kabhi ek maan
kabhi ek patni kabhi jaane jaan

mela laga tha saray mein
baat thi apne na paraye ki
ban gaye the mehman hi
pehchan is saray ki

mejbaan ghir gaya karne ko
poori inki farmayishein
is kram mein bhool gaya wo
apni hi kuchh khwahishein

je mein ata hai laga dun
board " saray band hai"
kar vida mehmaan saare
sochoo kya mujhe pasand hai

shaant hoga jab ye kalrav
us bahar ki bheed ka
hoga tab ehsaas rooh ko
swayam ke is need ka


****************************************

दे कर खुदा ने रूह को मेरी एक अदद घर
बना के मलिक उसका भेजा था धरती पर

पर बन के रह गया
सराय इक , वो घर
और रूह मुरझा गयी
मेहमानो की खिदमत कर

जो आते रहे जाते रहे
अपने नखरे दिखाते रहे
कभी एक बेटी कभी एक माँ
कभी एक पत्नी कभी जानेजाँ

मेला लगा था सराय में
बात थी अपने ना पराए की
बन गये थे मेहमान ही
पहचान इस सराय की

मेजबान घिर गया करने को
पूरी इनकी फरमाईशें
इस क्रम में भूल गया वो
अपनी ही कुछ ख्वाहिशें

जी में आता है लगा दूं
बोर्ड " सराय बंद है"
कर विदा मेहमान सारे
सोचू क्या मुझे पसंद है

शांत होगा जब ये कलरव
उस बाहर की भीड़ का
होगा तब एहसास रूह को
स्वयं के इस नीड का...........

सोमवार, 1 जून 2009

saarthak

sarthak

kyun kho raha
kyun so raha
jee raha swarth mein

chakshu khol
yunhi mat dol
pal bita parmarth mein

jaan swayam ko
pehchan swayam ko
kar sarthak ye jeevan

nahin milta barmabar
durlabh hai ye avtar
vidhymaan ishwer pratikan

chetanya

आज जब चेतन हुआ मन
रौशन हुआ जैसे हर इक क्षण

नींद थी वो कितनी गहरी
श्वास थी कुछ ठहरी ठहरी

देख ना पाता था कुछ भी
निज को जाना ना कभी भी

आज आलोकित हैं दिशायें
महकी हुई चंचल हवाएं

तन -औ -मन आनंद छाया
दृष्टा बन जब जग को पाया

ये सफ़र निज की चाहत का
प्रश्न नहीं जग के आहत का

प्रेम सुधा अंतर में बसती
मंथन कर तू खुद की हस्ती

रत्न मिलेंगे इस मंथन से
मुक्त करेंगे हर बंधन से

putr

aahat dabi si
nanhi padchap
dil udwgin hai
sun kar ye thap

putr ki chah mein
cahuthi baar ye ahat hai
putri na ho jaaye phir se
man mein ye chhatpatahat hai

kyun hun yun majboor
vanshbel badhane ko
putriyon ka haq chheen
kyun na unko padhane ko

kya nahin kar rahi hun
tayaar khud si teen paudhen
jo phalayi jaayengi kisi aur zameen mein
nayi vanshbel jamane ko

manushyta

khoti ja rahi hai manushyta
manushy ki
banta ja raha hai
bhautik daud mein
ek asamwedansheel
spandanheen vyaktitva...

mehsoos kare gar apne
antar ke spandan
jagrit ho har rom ishwer ke ehsaas se
jisne banaya manushy ko
apne ansh ke roop mein

ardhangini

Ardhangini

De kar ardhangini ki upadhi
kar diya bhramit nari ko
Ardhang hai wo nar ka
nahin poorn uske bina astitva

Shiv Shakti ne kiya tha
pratipadit is tathya ko
par kya kar paya hai maushya
waise hi ise atmasaat

maan paya hai ki adhoore hain
nar nari ek doosre ke bina
apne apne ko poorn dikhane
mein reh gaye hain bus
main aur tu ke bhav
nahin hain kanhin bhi
poorak hone ke ehsaas

दिल की सदा ...

क्यूँ
अचानक
चौंक पड़ती हूँ मैं!!!!
सुनी है
कानों ने
ना कोई
आहट
ना आवाज़
पर
ये दिल ..
कह रहा है
उठ ,
देख ,
आये हैं
वो दर पर ..
पागल है
नादाँ है...
बहलाने
इस जिद्दी को
उठ जाती हूँ
और
देखती हूँ
दरवाज़ा
खोल कर
कि
खड़े हो तुम
महकते
रजनीगंधा
के साथ
दरवाज़े पर
दस्तक
देने को उठे
हाथ लिए..

हतप्रभ सी मैं
दिल की
धडकनों
का
विजय गान
सुनती ,
सोचती
रह जाती हूँ...
क्या
परिमाण
होता है
इस
दिल की सदा
का...
मापा है
क्या
किसी
भौतिक
विज्ञानी ने???

[परिमाण - डेसिबल यूनिट में ... :) ]

रविवार, 24 मई 2009

BAATI ne kaha ANDHERE SE

अंधेरे के अज्ञान पर
मुस्कुरा उठी
मन में बाती

पूछ्ते हो
जिस वज़ूद के
फ़ना होने का मकसद
जन्मा है वो बस
जलने के लिए
रूप यौवन
सब है व्यर्थ
काम ना आऊं गर
ज़माने के लिए

तम को मिटाना
नहीं मंज़िले-मक़सूद मेरी
वक़्त-ए-ज़रूरत
रोशन कर आलम को
जीना है फ़ितरत मेरी

जिसे तुम कहते
जल जल मरी
वही तो
लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी है
किसी घर को करा
मैने रोशन,वही
मेरी राहते रूहानी है

मोहब्बत खुद से है इतनी
फ़ना होती
हूँ अपने लिए
ना जलूं मैं गर
तो बेकार हैं
तेल भरे दिए
वो मेरे हमसफर
देते हैं साथ मेरा
मंज़िल को पाने में
तुम विराट होके भी
दुबक जाते हो
पनाह में दिए की
जिस लम्हा जलती
मैं ज़माने में

ना कोशिश करो
भरमाने की मुझको
एहसास है मुझे
दोस्ती का अपनी
दिए व तेल के साथ
वफ़ा और जफ़ा का
कोई बंधन नहीं
बस जीते हैं
लिए हाथों में हाथ

रहे भटकाते तुम
सभी को ,
राह दिखाती मैं हूँ
नहीं हटूँगी पथ से अपने
मैं इसी जलने में
खुश हूँ मगन हू
बिन दीपक बाती अधूरी
बाती बिना दिया भी हारा
भीग दिए के प्रेम तेल में
रोशन करते ये जग सारा

betabi

कैसा सरूर है ये,कैसी है बेताबी
दस्तक होने से पहले दिल धड़क उठता है

और उठ जाती हूँ मैं खोलने दर को
दूर तक घूम के नज़रें फिर
लौट आती हैं दीवार पर लगी घड़ी की तरफ
जो बिना किसी बेताबी के अपने नियमों में बंधी
सुकून से चलती रहती है....

क्यूँ मैं इस घड़ी की तरह
वक़्त से बेपरवाह हो कर नहीं चल सकती
क्यूँ जीवंत पलों को वक़्त की सीमाओं में बांधा है मैंने..
ये बेताबी ये बेचैनी सब स्वतः ही घुल जायेंगे
जीने लगूं गर मैं पल दर पल...
घड़ी के सेकेंड के कांटे की तरह .....

मुख्तसर सा लम्हा

अनजान राहों पे खड़ी
देख रही हूँ कारवाँ
लम्हों का

कुछ नन्हे मुन्ने
कुछ अल्हड़
कुछ परिपक्व
और कुछ बुजुर्ग से
हर लम्हा अपने में पूर्ण

देख कर सोचती हूँ
कौन सा है वो
मुख्तसर सा लम्हा
जो छम से आ गिरेगा
मेरी गोद में
और खिल जाऊंगी मैं
उस एक लम्हे के
अपना होने के एहसास से

पालूंगी पोसूँगी
जी लूँगी उसके बचपन में
अपना बचपन
फिर यौवन उस लम्हे का
भिगो देगा मेरा तन मन

और फिर होगा वो परिपक्व
सिखाता हुआ मुझे
बाहर आना इन
मेरे तेरे के भावों से

क्यूँ जी नहीं लेती मैं
उन सब लम्हों को
जो गुज़र रहे हैं
हंसते मुस्कुराते हुए
मेरी नज़रों के आगे से...

उस एक मुख्तसर से लम्हे
के इंतेज़ार में
बिछुड़ जाती हूँ
उस कारवाँ से
जिसकी राह भी मैं
और शायद
मंज़िल भी मैं....

रिश्तों के रखाव में ......

रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यूँ...?

सुना था
बचपन से
नर-नारी
आपस में
दोस्त कभी
हो नहीं सकते
बिना किसी
नियत नाम के
समाज में
विचरण
कर नहीं सकते


स्त्री के हैं
नियमित रिश्ते
पिता, भाई,
पति और बेटा
इनसे पृथक
कोई भी रिश्ता
उसको
इज़्ज़त
नहीं है देता

सती कहा जाता
द्रौपदी को
हुए मित्र
सबसे अच्छे
जिसके
स्वयं पालनहार
धरा के
किसुन-कन्हाई
संग थे उसके

पांचाली को
कहते कृष्णा भी
कृष्ण की
अभिन्न सखी
थी वो...
हर उस लम्हा
बने थे संबल
खाविन्दो के झुंड
में भी
जब होती अकेली
थी वो ....

कौरवों की
घृणित चौकड़ी में
हारे थे जब
पाँचों पांडव
मर्दों के उस
लोलुप ज़ज़्बे का
कैसा घटित
हुआ था तांडव


द्रौपदी को
लगा दाँव पे
नैन झुकाए
बैठे थे सब
लाज बचाई
मित्र ने उसकी
करुंण हृदय
चीत्कार उठा जब

नहीं लांच्छित
हुआ वो रिश्ता
नहीं मापदंड था
उसका कोई
फिर क्यूँ सब
डरे से रहते
नाम ढूँढ कर
देते कोई
समाज की
संकीर्ण सोचों में
वह महासती
कहाँ है खोई



कृष्ण के
हर रिश्ते के
कुदरती होने के
एहसास का..
नहीं समाज पर
प्रभाव क्यूँ???
रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यूँ...?

सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की.....

सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की

चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को
आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है

ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की

गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीन की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की

एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है

सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें

आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है

मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना

नज़रों में ज़माने की

लबों पे मेरे जब मस्सर्त-ए-जज़्बात उतर  आए
नज़रों में ज़माने की सवालात उभर आए

रहे ग़मज़दा तो सुकून से रहती है ये दुनिया
अंधेरों से ना आओ उजाले में ,कहती है ये दुनिया
क्यूँ गुनगुना उठा दिल क्यूँ चमक गयी आँखें
क्या हुआ जो तब्बस्सुम-ए-रुखसार निखर आए..
नज़रों में........

किस का करे गिला ये दिल ,किस को पुकारे
हर शख्स परीशां है खुद अपने ज़हन में
खुशियों का ख़जाना है हर इक को मयस्सर
झाँको ज़रा खुद में तो हालात सुधर जाए
नज़रों में ज़माने की.....

खुद को

नज़र रही मशरे पर ना अपनाया खुद को
इसी जद्दो-ज़हद में बिसराया खुद को

खुश रखने की चाहत में हर गैरोसनम को
निगाहों से कई बार गिराया खुद को

नज़र पड़ी रूह-ए-खुदा पर तो जाना
बेकार ही यहाँ वहाँ ढूँढा किया खुद को

बीते हर लम्हा अब तेरी बंदगी में
पेश्तर तुझे पाने के ,अपनाया खुद को

दरिया-ए-मस्सरत का लुत्फ़ क्या कहिये
डूब के इस धारे में ,बहाया खुद को

ए मेरे मलिक कर दे इस लायक मुझे
बाँट भी पाऊं जो आज पाया खुद को

बंजर धरा

बंजर सी धरती पे
क्यूँ बरसाए नेह का सावन
कठोर है धरा
बीज तक ना पंहुचेगा तेरा आवाहान

प्रेम के हल से करी जुताई
बीज धरा में तूने बोया
नम अँखियों से सींचा उसको
व्यर्थ प्रतीक्षा में ना सोया

देख धरा पे कुछ त्रिन हैं
स्वतः ही जनम हुआ है उनका
सहज स्वाभाविक अवसर पा कर
उदगम नैसर्गिक हुआ है उनका

ना शोक मना तू बांझ धरा का
तूने करम किया स्व पूरा
जितना मिलना लिखा भाग्य में
वो नहीं मिलेगा कभी अधूरा

ले आनंद उन्ही त्रिनो का
कन कन प्रतिकन ही तो जीवन है
हर क्षण को सींच प्रेम अँसुअन से
यही मनुष्य सार्थक जीवन है

गुरुवार, 21 मई 2009

बंद दरवाजे




उसके मकां के बंद "दरवाजे"..
तोड़ देते हैं हिम्मत मेरी
दस्तक देने के लिए..

मकां के दर खुले तो
दस्तक दूँ उसके मन के दरों पर भी..
अपने हर दर को बंद कर
यूँ ज़िन्दगी से गिले करना
आदत सी हो गयी है उसकी..

सहज हवा का झोंका ही
पल्ले हिला दे और उस दस्तक से
वो बढ़ के खोल दे वो बंद दरवाजे
तो शायद मुझे मौका मिले
उसके मन पे दस्तक देने का..