रविवार, 24 मई 2009

BAATI ne kaha ANDHERE SE

अंधेरे के अज्ञान पर
मुस्कुरा उठी
मन में बाती

पूछ्ते हो
जिस वज़ूद के
फ़ना होने का मकसद
जन्मा है वो बस
जलने के लिए
रूप यौवन
सब है व्यर्थ
काम ना आऊं गर
ज़माने के लिए

तम को मिटाना
नहीं मंज़िले-मक़सूद मेरी
वक़्त-ए-ज़रूरत
रोशन कर आलम को
जीना है फ़ितरत मेरी

जिसे तुम कहते
जल जल मरी
वही तो
लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी है
किसी घर को करा
मैने रोशन,वही
मेरी राहते रूहानी है

मोहब्बत खुद से है इतनी
फ़ना होती
हूँ अपने लिए
ना जलूं मैं गर
तो बेकार हैं
तेल भरे दिए
वो मेरे हमसफर
देते हैं साथ मेरा
मंज़िल को पाने में
तुम विराट होके भी
दुबक जाते हो
पनाह में दिए की
जिस लम्हा जलती
मैं ज़माने में

ना कोशिश करो
भरमाने की मुझको
एहसास है मुझे
दोस्ती का अपनी
दिए व तेल के साथ
वफ़ा और जफ़ा का
कोई बंधन नहीं
बस जीते हैं
लिए हाथों में हाथ

रहे भटकाते तुम
सभी को ,
राह दिखाती मैं हूँ
नहीं हटूँगी पथ से अपने
मैं इसी जलने में
खुश हूँ मगन हू
बिन दीपक बाती अधूरी
बाती बिना दिया भी हारा
भीग दिए के प्रेम तेल में
रोशन करते ये जग सारा

कोई टिप्पणी नहीं: