नज़र रही मशरे पर ना अपनाया खुद को
इसी जद्दो-ज़हद में बिसराया खुद को
खुश रखने की चाहत में हर गैरोसनम को
निगाहों से कई बार गिराया खुद को
नज़र पड़ी रूह-ए-खुदा पर तो जाना
बेकार ही यहाँ वहाँ ढूँढा किया खुद को
बीते हर लम्हा अब तेरी बंदगी में
पेश्तर तुझे पाने के ,अपनाया खुद को
दरिया-ए-मस्सरत का लुत्फ़ क्या कहिये
डूब के इस धारे में ,बहाया खुद को
ए मेरे मलिक कर दे इस लायक मुझे
बाँट भी पाऊं जो आज पाया खुद को
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