रविवार, 30 जनवरी 2011

शल्य-चिकित्सा

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मरहम
तुम्हारे स्नेह का
पहुँच जाता है ,
यत्न से लगायी
मुस्कुराहटों की
तहों को चीर,
अंतर्मन की
गहरायी में छिपे
अनजाने से
ज़ख्मों तक ...
जिनके होने का
एहसास कराती है
'टीस ',
जो हो उठती है
मुखर ,
मरहम का
स्नेहिल स्पर्श
पा कर ...
भ्रम में ही
रह जाती हूँ मैं
ज़ख्मों के ना होने
या
उनको
भरा हुआ
समझ लेने के
और
एक
कुशल
चिकित्सक की तरह ,
भावनाओं के
औजारों से
करके
शल्य-चिकित्सा,
बचा लेते हो तुम
मेरे ज़ख्मों को
'नासूर' बनने से .....

शनिवार, 29 जनवरी 2011

प्राण-प्रतिष्ठा

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प्राण-प्रतिष्ठा कर दी तुमने
मूरत थी पत्थर की भारी
छुआ भावः भीनी दृष्टि से
अंतस को बन प्रेम पुजारी

स्पंदन यूँ पहुंचे मन तक
मलिन रहा अब भाव न कोई
हुआ सुवासित कण कण मन का
टीस रहा अब घाव न कोई

तुमने कोमल मन को पूजा
किया प्रेम का अनुपम अर्चन
अंजुरी भर मैं करूँ आचमन
पुनि पुनि हो जाये मन तर्पण


बुधवार, 19 जनवरी 2011

सतोगुण -(आशु रचना )

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सतोगुण,
रजो गुण
और
तमोगुण
तीनो ही
होते हैं
विद्यमान
मनुष्य
प्रकृति में,
होती है
किन्तु
असमानता ...
आचरण
मनुष्य का
कर देता
है निर्धारित
उसमें
किसकी है
प्रधानता !!
रजो-सतो का
विलय
बनाता
समर्थ को
विनयशील
इस जग में ..
तमो-रजो
बनता
विध्वंसक ..
पहुंचाता
पाताल के
तल में ..
सतो गुण
चेतन का
लक्षण ..
रजो पूजता
भौतिकता को
तमो गुण
जड़ता का द्योतक
समझ ना पाए
परम सत्ता को



शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

नूर-ए-इलाही

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उगा
है
सूरज
मुस्काता सा,
हवा की
छुअन
है लिए
हलकी सी
गर्माहट,
महक रही है
फ़िज़ा
गुलों के
खिलने से,
बना रही है
माहौल
खुशनुमा
परिंदों की
मीठी चहचाहट..
रोम रोम
हो रहा है
स्पंदित,
सुन कर ये
किसके
कदमों की
आहट ..!!!
ना हूँ महज़
मैं ही खुश
झूम रही
कुदरत भी,
रोशन है
सारा आलम
नूर-ए-इलाही से,
जर्रे ज़र्रे में
झलकती
उसकी ही
सजावट !!


मंगलवार, 11 जनवरी 2011

वो पांच मिनट....


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सर्दियों की
ठिठुरती सुबह ,
घड़ी में
अलार्म बजने के बाद
सर तक
रजाई खींच कर
बस पांच मिनट
और ...
सो लेने की ललक...
कितने आनंदमय होते हैं ना
वो पांच मिनट ..!!

किन्तु अब ...!!!

जब बेफिक्र हूँ
घड़ी के काँटों से ..
अनजाने ही
कान करने लगते हैं
इंतज़ार
तुम्हारी आवाज़ का ...
" उठो !!
वरना देर हो जायेगी .."
और
अलार्म बंद
होने के बाद
पसरे हुए सन्नाटे में
खो जाता है
आनंद
कुछ और देर
सो पाने का .....



सोमवार, 10 जनवरी 2011

हया से झुक गयी पलकें ...

छुअन से तेरी नजरो की,दहक उठे मेरे , रुख़सार जैसे
हया से झुक गयी पलकें ,किया बेलफ्ज़ हो, इज़हार जैसे

थी किसकी हसरतें जाने,अज़ल से मुन्तजिर दिल में
मुक्कमल हो गया ,आने से तेरे, इंतज़ार जैसे

तब्बस्सुम आज हैं लब पर,अदाओं में भी शोखी है
था मुरझाया मुद्दतों दिल, रहा था, सोगवार जैसे

बुझाई है घटा बन के ही मैंने, तिश्नगी सबकी
भिगो दो अब तुम्ही मुझको,हो कोई , आबशार जैसे

समझ लो ना यूँही जानां ,कहानी झुकती नज़रों की
कि दिल करता है हर लम्हा ,उसी का , इश्तिहार जैसे

शनिवार, 8 जनवरी 2011

संतुलन-सृष्टि का


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रहता है
परस्पर
आकर्षण,
होते हैं ध्रुव ,
विपरीत
जब तक ....
नहीं होता
परिवर्तित,
चुम्बक का
उत्तरी ध्रुव,
कभी
दक्षिणी ध्रुव में..
होता है
संतुलन
और
प्रवाह
चुम्बकीय क्षेत्र का
दोनों ध्रुवों के
मौलिक गुणों के
समानुपात के कारण...

नहीं कहता
गुलाब
जूही से
"मैं हूँ
फूलों का राजा
इसलिए
खिलना होगा
तुमको भी
गुलाब हो कर .."


फिर क्यूँ!!

हो गया है
प्रकृति के
प्रतिकूल
मात्र मानव ही!!
नर और नारी
हैं जैसे दो ध्रुव ,
भिन्न हैं
किन्तु
असमान नहीं ..
सदियों के
अनुकूलन ने
भर दी है
हीनता
स्वयं
नारी के ही
मन में...

होता यशगान
नारी का ,
करती यदि
वह
पुरुष सम कार्य ..
गा गा कर
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी "
चढ़ाई जाती
मालाएं
इन पुरुष सम
नारियों की
मूर्तियों पर...
वहीं कोई
पुरुष कर देता
व्यवहार
यदि
प्रेम और करुणा से
ओतप्रोत
तो उड़ाई जाती
खिल्ली उसकी
स्त्री
कह कह कर ..

केंद्र में
पुरुष के
होती महत्वाकांक्षा,
स्त्री है
केंद्र
प्रेम का ...
विलय
दोनों का ही
आवश्यक
पाने को
संतुलन
सृष्टि का ...

देख कर
समाज में
वाहवाही
पुरुषों की ,
अपना बैठी है
नारी
आत्मघाती
प्रवृति को ...
पाने को सम्मान
पुरुषों के समकक्ष,
भूल बैठी है
अपने नारीत्व की
अभिव्यक्ति को ...

नहीं है
जरूरत
होने की हमें
पुरुषों के समान..
करनी है हमें
बस
अपने अस्तित्व की
पहचान ....
करना है
अस्वीकार
स्वयं को
होने से संपत्ति
किसी की ,
देना है
अपने क़दमों को
प्रेम के
धरातल का
सुदृढ़ आधार ...
होगा तभी
संतुलन सृष्टि का ,
मिलेगा
एहसासों को
जब
समान अधिकार ....


शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

चने का झाड़ ...


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ज़मीन पर
रेंगते
असमर्थ
प्राणियों को
देने
तथाकथित
आत्मविश्वास
चढ़ा देते हैं
कई शुभेच्छु
दे कर सहारा
चने के झाड़ पर .....

पाते ही सहारा
अदना से झाड़ का
हो जाता है
निर्बल जीव
अहम् पोषित
भूल कर औकात
अपनी......

महिमामंडित
करता है
स्वयं को
ले कर ऊंचाई
उस
तथाकथित झाड़ की...


अचानक !!
हल्का सा
कोई झोंका
हिला कर
झाड़ को
गिरा देता है
उस
परावलम्बी
जीव को
मुंह के बल
ज़मीन पर...

फिर
रेंगते हुए
शुरू होती है
खोज ,
किसी नए झाड़
और
झाड़ पर
चढ़ाने वाले
नए
शुभेच्छुओं की...






बुधवार, 5 जनवरी 2011

विचार और विकास ..


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नहीं हुआ होता
विकास
मानवता का
यदि
नहीं आया होता
विचार
एक वानर को
चल कर
देखने का
दो पैरों पर ...
माना होगा
उसको
विद्रोही
साथी वानरों ने
हँसी भी उड़ाई होगी
किन्तु
उस एक विचार ने
कर दिया
पूरी एक सभ्यता को
विकसित ...
करने को विकास
बंद करना होगा
आँख मूँद कर
स्वीकार करना
सदियों की
मान्यताओं को ...
बनना होगा
जिज्ञासु
हर सिखाई
जा रही बात
की जड़ों को
समझने
के लिए
और
अपनाना होगा
अपने विचारों की
कसौटी पर
खरी उतरने वाली
बात को
तभी होगी
विकसित
भीतर की
अनन्य संभावनाएं
और विकसित होगा
एक व्यक्तित्व
जिससे बनता है
समाज ,
शहर
देश ,
संसार और
ब्रह्माण्ड भी .....

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

गुनाहगार !!!!!.......


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तप रहा था माथा
उसके लाल का
भूख से खुद का भी
बुरा हाल था
इंतज़ार उसे था ,
शौहर के आने का
था झूठा ख्वाब,
जिम्मेवारी निभाने का
लेकिन आया घर वो
लड़खड़ाता हुआ
गालियाँ ढेरों बीवी के लिए
बडबडाता हुआ
पूछा उसने दिन भर की
कमाई का हिसाब
बोला ,मैं तो सब की
पी गया शराब
खून के आंसू पी कर
वो रह गयी
बच्चे के कारण
हर सितम सह गयी
लगा सीने से बालक को
निकल पड़ी घर से
कोई तो दयालु
मददगार होगा
शहर में
मदद जिससे भी मांगी ,
सबकी नज़रें थी प्यासी
जिस्म था खूबसूरत ,
भले थी चेहरे पे उदासी
बदले में मदद के सबने,
चाहा कुछ था पाना
लुटा दिया इक माँ ने,
वो इकलौता खज़ाना
मिटाने भूख अपने
उस बीमार लाल की
मिटा दी थी भूख उसने
जिस्म के दलाल की
हो गया स्वस्थ बालक ,
दुःख मिट गए सभी
परवरिश में फिर उसकी,
न रही कमी कभी
बन गया सम्मानीय
वो एक दिन समाज में
सुनने लगा लोगों की बाते ,
दबी ढकी आवाज़ में
करते थे कटाक्ष उस पर ,
समाज के ठेकेदार
शामिल थे जो बनाने में ,
उसकी माँ को गुनहगार
माँ ने लुटा कर खुद को ,
जिस बीज को था सींचा
हो कर बड़ा उसी ने ,
दामन था अपना खींचा
करती थी माँ रुदन यूँ,
दिल हो रहा था छलनी.
गुनाह दूसरे का लेकिन ,
सजा मुझको
क्यूँ थी मिलनी !!!!


सोमवार, 3 जनवरी 2011

जायज़ रिश्ते .....


कुछ जायज़ हैं
कुछ सम्मानित
दुनिया के
परिभाषित रिश्ते...
परिभाषाओं से
हट कर भी तो
जुड़ते हैं
रूहानी रिश्ते...

ना दे सकते
नाम कोई भी
पूछेगा जो
कोई हमसे
एहसासों की
डोर बँधी है
जुड़े हुए जो
तुझसे मुझसे
किस साँचे में
ढालेंगे हम
दुनिया से
अनजाने रिश्ते
कुछ जायज़ हैं
कुछ सम्मानित
दुनिया के
परिभाषित रिश्ते...

मानव का
संसार अजूबा
गिने चुने
रिश्तों को माने
पवन पुष्प को
छू कर निकले
बंधन तो वो
ना पहचाने
करें सुवासित
मन उपवन को
कहने को
बेगाने रिश्ते
कुछ जायज़ हैं
कुछ सम्मानित
दुनिया के
परिभाषित रिश्ते...


तू दुनिया के
किसी छोर पर
मैं दुनिया के
किसी छोर पर
कंपन स्पंदन
हैं पूरक
जुड़े हों जैसे
एक डोर पर
राधा कान्हा
भी थे ऐसे
पुजते उनके
पावन रिश्ते
कुछ जायज़ हैं
कुछ सम्मानित
दुनिया के
परिभाषित रिश्ते .....


रविवार, 2 जनवरी 2011

क्षमा दान ...


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भ्रम न हो
दानी होने का
दे कर कभी
क्षमा का दान
देते नहीं हम
कुछ दूजे को
करते नहीं
कोई एहसान ....

क्षमा प्रवृति
रखती है
निज को,
मुक्त
किसी भी
दुर्भाव से,
कुंठाएं फिर
नहीं पनपती
बोझिल मन के
व्यर्थ ताव से,
जो भी मिलता
स्वयं को मिलता
ऐसा अद्भुत
है ये दान,
नहीं देते हम
कुछ दूजे को
करते नहीं
कोई एहसान ....

त्रुटियाँ दूजों की
बिसरा कर
स्नेह ,
प्रेम की
जगह बनायें ,
जान प्रवृति
दुष्टों की हम
स्वयं को उनसे
न टकराएँ
क्रोध ,
द्वेष ,
प्रतिशोध
से मिलता
सहज
तरलता में
व्यवधान ,
भ्रम न हो
दानी होने का
दे कर कभी
क्षमा का दान .........

शनिवार, 1 जनवरी 2011

दरवेश ...(आशु रचना )

स्वयं में विद्यमान परमात्मा के अंश को दरवेश का रूपक देते हुए अपनी अनुभूति को शब्द दिए हैं

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खोज रही थी बाहर जिसको
खुद में ही पाया जब उसको
भटकन कोई रही ना शेष
मिला मुझे ऐसा दरवेश

जीने का अंदाज़ मिला
साँसों में संगीत ढला
मन में किंचित नहीं क्लेश
जबसे साथ चला दरवेश

फक्कड़ है वो मस्त मलंग
अलग है सबसे उसका ढंग
जाने कौन सा उसका देश
यायावर है ये दरवेश

खुद की झोली भले हो खाली
बनके घूमे नहीं सवाली
प्रेम है उसके पास अशेष
ऐसा अद्भुत है दरवेश

उससे जब से लगी लगन
मन तन झूमे हुए मगन
बदल गया मेरा परिवेश
समा गया मुझमें दरवेश