मंगलवार, 18 सितंबर 2012

राज़ है यही...(आशु रचना )

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घुलते हैं किनारे
संग संग
दरिया के बहाव के
बिना खोये
वजूद अपना ...

हो जाते हैं
कभी कहीं दृढ
देते हुए
एक स्पष्ट दृष्टि
नदी को
दिशा निर्धारण की...

करते हुए महसूस
वजूद किनारों का
बहे जाती है नदी
अपने सतत प्रवाह में
रखते हुए
सहज संतुलन
गति का अपनी ....

राज़ है यही
ठहराव और
बहाव के
करार का ..
सह-अस्तित्व के
स्वीकार का ...




शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

उस पार का बुलावा....



भर तो गए थे ज़ख्म
टीस मगर बाकी थी
बा-होश रहा मयकश
मदहोश हुई साकी थी

लफ़्ज़ों ने तराशा था
पत्थर चमक रहे थे
खुली अधखुली सी आँखें
कैसी ये बेखुदी थी ..

वो नहीं था अक्स मेरा
दिखता रहा जो सबको
चाहत थी आब-ए-जन्नत
दुनियावी तिश्नगी थी ...

नाखुदा बनी वो कश्ती
भंवर में जो खुद पड़ी थी
उस पार था बुलावा
लेकिन अना अड़ी थी

रविवार, 9 सितंबर 2012

आवरण और आचरण ....



जाने क्यों
ओढ़ लेते हैं हम
कैसे कैसे आवरण ,
भिन्न रहता है
निज चिंतन से
हमारा आचरण

अंतर
कथनी और करनी का
पाट नहीं
हम हैं पाते
बस किताबी बातें ,
शब्दों में
हम दोहराते

संकल्प हृदय में
दृढ यदि तो
है प्राप्य
मार्ग धर्म का,
हो सजग
कर दें समापन
अंतर
चिंतन-कथ्य-कर्म का