शुक्रवार, 31 मई 2019

इस घर जब तक डेरा है


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आयी थी मैं
उतर कर आसमाँ से
किया था बसेरा
एक देह में
बनी थी जो एक घर मेरा
समझना था मुझे खुद को
पड़ गया था
मेरे और तेरे का
अजीब घेरा.....

जुड़े थे रिश्ते नाते कई
घर के द्वार और दीवारों से
दे दिए थे नाम उपनाम कई
मुझे भी सबने
भांति भांति के व्यवहारों से...

निभा रही थी जिम्मेदारियां
हर नाम लक्षण के अनुरूप
भूल बैठी इस जद्दोजहद में
हा ! मैं खुद अपना ही स्वरूप....

आने लगे थे मेहमाँ अनचाहे
हो कर कभी अहम
तो कभी ईर्ष्या और विद्वेष
आ ठहरी थी हीनभावना
धरा था कुंठाओं ने वेश.....

जो होना था
अपना घर मेरा
बन गया ज्यूँ
हो कोई खुली सराय
होने थे जो मेहमान
कुछ दिन के
दिया वक़्त ने
उनको ही मालिक बनाय.....

उठाने को नखरे
मेहमानों के
उलझ गयी थी
उफ्फ मेरी तौबा
धीमी सी आवाज़ अपनी का
सुनने का
ना मिला था कोई मौका...

कर डाले थे
इक दिन  बन्द मैंने
घर के दरवाज़े और खिड़कियां
शांत गहन अंधकार में
पाई थी मैंने
स्वयं की नाना झलकियां......

कर सकूँ विदा
अनचाहे अतिथियों को
प्रयास यही अब मेरा है
अभीष्ट है मिलना स्वयं से
जब तक इस घर मेरा डेरा है.....

रविवार, 26 मई 2019

इश्क़ में मुझसा कोई डूबा नहीं था.....


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दिल की गलियों से कोई गुज़रा नहीं था
फिर भी ये कूचा कभी सूना नहीं था .....

सारी दुनिया छोड़ के चाहा था उसको
थी मैं उसकी, वो मगर मेरा नहीं था.....

सब सवालों का था चुप ही इक जवाब
कुछ तो था उसमें जो मुझ जैसा नहीं था....

इश्क़ तुमसे कुछ ज़ियादा कर लिया था
अपना कोई और तो झगड़ा नहीं था.....

वो ही वो है हर तरफ देखूँ जिधर
इश्क़ में मुझसा कोई डूबा नहीं था...

दर बदर ढूंढा किये जिसको मुसल्सल
मुझमें ही था वो कहीं खोया नहीं था.....

गुरुवार, 23 मई 2019

बाहोशी की दौलत ले कर ..


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कितने अल्हड़ थे वो
लड़खड़ाते,दीवाने ,मचलते दिन
घड़ी की सुइयों से हटकर
बेपरवाह मस्ती की हस्ती के दिन,
कूदफाँद और भागदौड़
खेल बचपन के चपल  सुहाने,
गहरायी तक दिल में बसते
टूटते जुड़ते वो याराने,
पल में लड़ना और झगड़ना
पल पल में वो पक्की यारी
सतरंगी थी बड़ी सुहानी
अपनी नन्हीं दुनिया न्यारी,

जाने कहाँ गए वो दिन ......!!!

कैशौर्य की आह! रंगीं फ़िज़ाएँ
शोख़ी बहुतेरी ले आयी,
बाग़ी सपनों ने ले ली थी
जोश भरी कोमल अँगड़ायी,
अनायास खुद में खो जाना
ना जाने कहाँ गुम हो जाना
बिना बात ही हँसना गाना
सोच सोच यूँ ही मुस्काना,
धड़कन दिल की डूब प्रीत में
मधुरिम मधुरिम गीत  सुनाती
अनदेखा अनजाना किंतु
सच्चा कोई मीत बुलाती ,

हाय गुलाबी से वो दिन ...!!!

आयी जवानी सुनो कहानी
जीवन ने ये पत्ते खोले,
लगा ले बाजी इस महफ़िल में
बार बार ये मनुआ बोले,
बेपरवाह रह परिणामों से
हार जीत की क्यूँ कर फिक्र
कौन खेल सका शिद्दत से
उसके कौशल का ही ज़िक्र,
हम बन ना पाए हाय खिलाड़ी
रह गए हो कर निपट अनाड़ी
किन्तु कुशल कहाँ थे हम
पहचान न पाए क्यूँ पगलाए
खुशियों को  समझा था ग़म,

कुछ तो सिखा गए वो दिन ....!!!

साथ हमारे चलते चलते
कदम वक़्त ने बढ़ा लिए हैं,
जाने अनजाने उसने तो
पाठ जीस्त के पढ़ा दिए हैं,
दृढ़ पग बढ़ते रहे निरंतर
चलते चलते ठोकर खा कर,
मरहम लगी रिसती चोटों से
सीधी साँची सीखें पा कर
पथ पर हैं अब बढ़े जा रहे
बाहोशी की दौलत ले कर ,
स्पष्टता है राह दिखाती
चले स्वीकार्यता साथी हो कर ,

सिमट गए सब बीते दिन
कहीं नहीं खोये वो दिन  .......!!!

मंगलवार, 14 मई 2019

ज़िद्द.....


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१)
ठानी है 
गर ज़िद्द तुमने 
के साथ नहीं अब 
चलना है,
ज़िद पर कायम हैं
हम भी 
हर मोड़ पे 
तुमसे मिलना है ....

२)
जीवन के 
इन रस्तों में
किसी ज़िद्द को 
ठौर नहीं होता,
सफ़रे वफ़ा में 
साथ हैं हम
इसमें कोई 
मोड़ नहीं होता......

सोमवार, 13 मई 2019

पिघला दिया है मुझको ......


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गमक जाती हूँ
सोंधी मिट्टी सी
तेरी यादों की
शीतल फुहार से
वरना
बदगुमानियों ने मेरी
ज़र्रा ए खाक
बना दिया है मुझको.....

हटता नहीं
तेरा एहसास
एक लम्हा भी
मेरे ख़यालों से
हुआ है जादू कोई
फूँका है मंतर
या कोई मख़्फ़ी तावीज़
बंधा दिया है मुझको.....

धड़क रहा है सीने में
बन के दिल
जो शख़्स
हर लम्हा ,
वो मेरा कोई नहीं
दुनिया ने बारहा
बता दिया है मुझको ....

जमी थी बर्फ़
जज़्ब हुए
अश्क़ों की
सर्द से वजूद पर
किस तमाजते सरगोशी ने
दफ़अतन
पिघला दिया है मुझको ......

मायने:
मख़्फ़ी=अदृश्य, छुपा हुआ
बारहा-बार बार
तमाजते सरगोशी - फुसफुसाहट की गर्माहट
दफ़अतन=अचानक

शुक्रवार, 10 मई 2019

छोटे छोटे एहसास


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कहने को दूर हो चले तुमसे
इक अजब दिल में बेक़रारी है

तुझमें खो कर खुदी मैं भूल गयी
इश्क़ का यूँ ख़ुमार तारी है .....

सोमवार, 6 मई 2019

अनाम सा ......!!!


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निभाते हुए
अनेकों रिश्ते
ढल कर अलग अलग किरदारों में
हो जाता है गुम
वजूद ही खुद का
भूल ही जाता है मानव
मूल स्वरूप तक अपना...

लेते ही जन्म
जुड़ जाते हैं रिश्ते बहुतेरे
होती है पहचान जिनसे
हमारे दुनियावी वजूद की
होते हैं निर्भर हम
उन्ही रिश्तों पर
जानने समझने बातें दुनियावी....

जुड़ते जाते हैं
इन्ही रिश्तों में
कुछ नए नाम
जो चुन लेते हैं हम
पाने को साथ
दुनिया की जद्दोजहद में,
देते हैं सब कुछ अपना
इन रिश्तों को सींचने में....पनपाने में ...

दिखते हैं भरे पूरे हम
रिश्तों की इस महफ़िल में
तभी चुपके से
रूह की गहराइयों में
फूटता है कोई अंकुर
अनदेखा अनजाना बेनाम सा
लिए हुए खुशबू
खुद के वजूद की ....

जीते हुए तमाम रिश्तों को
पहचान लेते हैं हम
फिर से वजूद अपना
इस अनदेखे अनजान
अनाम से जुड़ाव में
जो होता है
खुद का खुद से ही  .....