सोमवार, 30 मई 2011

संबल इक दूजे का हम तुम !!

तृण प्रेम का, बना है संबल
भवसागर की इन लहरों में
मुक्त हो रही मन से अपने
भले रहे तन इन पहरों में

लहरों का उत्पात रहेगा
विचलित किन्तु कर न सकेगा
दीप जला है प्रेम का अपने
तिमिर पराजित हो के रहेगा

डूब के पार हो जाएँ साथी !
प्रेम ही जीवन की है थाती
राह प्रज्ज्वलित करने हेतु
दीपक बिन है व्यर्थ ही बाती

तुम संग मैं हूँ मुझ संग हो तुम
हो मत जाना लहरों में गुम
आयें जाएँ व्यवधान अनेकों
संबल इक दूजे का हम तुम

संबल इक दूजे का हम तुम !!!.......

शनिवार, 28 मई 2011

स्वाद अद्वैत का !!!!

####

पा कर
विलायक
जल को ,
घबरा गयी थी
डली गुड़ की ,
अपने
अस्तित्व के
खो जाने के
भय से

कर लिया था
पृथक
खुद को
तत्क्षण ही
जल से उसने
होते ही
अंदेशा
इस सम्भावना का ..

किन्तु !!!
हो गए हैं
परिवर्तित
गुण -धर्म
जल के
और
भर गयी है मिठास
स्वाद में
उस के
गुड़ के
आंशिक विलय से

करना पृथक
जल से
गुड़ के
अंश को
नहीं है
अब संभव
क्यूंकि
ले लिया है
स्वाद
जल ने
अद्वैत का !!!!

गुरुवार, 26 मई 2011

लो ! फिर बही जाती हूँ मैं ....

सुखद सी
यह अनुभूति ,
छुअन है
फूल की
या
ज़ख्मों पर
लगता
मरहम है ,
सोच नहीं पाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

आती है
सागर से लहर,
ले जाती है
रेत
तले मेरे
क़दमों से ..
गुदगुदाहट सी
तलुवों में,
पा के
खिलखिलाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

असीम है विस्तार
प्रेम का,
ओर -छोर
इसका
कब दृष्टि
है जान सकी !
आनंद के
इस दरिया में
फिर फिर
गोते खाती हूँ मैं ..
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

मंगलवार, 24 मई 2011

अम्बर के काँधे पे ....

अम्बर के
काँधे पे जब,
सर रख कर
अवनि सोती है
कितना भी हो
तिमिर घनेरा
हर रात की
सुबह होती है

सूर्य किरण
चूमे ललाट
तब
धरा की देखो
आँख खुले
बहती बयार के
संग संग
इस जीवन का
हर रंग खिले
खिल उठती हँसी
उन्ही में है
जो आंसू
शबनम रोती है
अम्बर के
काँधे पे जब
सर रख कर
अवनि सोती है .....

उन्मीलित
नयनों से
धरती
क्षितिज को देखो
ताक रही
मन के
सिन्दूरी रंगों को
चेहरे पर उसके
भांप रही
उल्लासित
मन के उपवन में
बीज प्रेम का
बोती है
अम्बर के
काँधे पे जब
सर रख कर
अवनि सोती है




रविवार, 22 मई 2011

ले ली पेड़ों से हरियाली

###

ले ली
पेड़ों से
हरियाली
और
सूरज से लाली ,
जवाकुसुम सा
खिला है चेहरा
तन लचके
जैसे डाली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली ..

कोयल से ली
कूहू कूहू
मोर से ले ली
पीहू पीहू
तितली जैसी
उडूं हमेशा
प्रेम में
मैं मतवाली
ले ली
पेड़ों से हरियाली !

खिलूँ
चांदिनी रात सी
अब तो
मन भींगा
बिन बरसात
के अब तो
जबसे लगी
पिया से मेरी
लगन न
छुटने वाली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली!

कोमल मन
की आस जगी है
बात पिया की
प्रेम पगी है
खोने का नहीं
भय है जिसका
ऐसी दौलत ये
पा ली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली ..

प्रेम के रंग में
डूब गयी है ,
जोगन खुद को
भूल गयी है
साजन के
सब रंगों से
चुनरी कोरी
रंग डाली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली ..

गुरुवार, 19 मई 2011

नज्में तुम्हारी ...

####


भर ली है
अपनी झोली
मैंने
नज्मों से तुम्हारी ....
जिनमें है
संग गुज़रे
लम्हों की खुशबू ..
सब कहा-अनकहा
सिमट आया है
इन बहते हुए
शब्दों में ..
बन गयी हैं
रहनुमा
मेरे अनजान
रास्तों की
नज्में तुम्हारी ..
नहीं होती कभी
मैं तन्हा अब
क्यूंकि
छू कर इनको
महसूस कर लेती हूँ
तुम्हें ...
हुआ था
जन्म इनका
इस छुअन के
इंतज़ार में ही तो ...

बुधवार, 18 मई 2011

आगाज़...

सोचो ,
और ज़रा बताओ तो
कब हुआ था
हमारे रिश्ते का आगाज़ !!

बेसाख्ता
मिल गए थे
हम
यूँही राहों में
और
कर लिया था
महसूस
उस बहते हुए
दरिया को
जिसका आगाज़
जाने कहाँ है
मालूम न था हमें....

जिसका आगाज़ नहीं
अपने बस में
उसको अंजाम देना
मुमकिन है क्या
हम इंसानों को !!!!



सोमवार, 16 मई 2011

नहीं है मन का ठौर सखी री- (भाग २)

#####

नहीं है मन का ठौर सखी री ...
बात आज कुछ और सखी री
जगती आँखों के सपने में
मुझे मिले चितचोर सखी री ....

शब्द छंद सब हुए विस्मृत
हृदय हुआ दर्शन से ही तृप्त
चरण पखारूँ निज अंसुवन से
सूझे कुछ न और सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ...

प्रेम बन गया भक्ति मेरी
साथ पिया का ,शक्ति मेरी
मन मंदिर में वास उन्ही का
खोजूं क्यूँ कहीं और सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ....

मिटा दूं खुद को प्रेम में उनके
मिलूं पिया से जोगन बनके
कण प्रति कण में उनको पाऊँ
देखूं मैं जिस ओर सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ......


शनिवार, 14 मई 2011

रूपांतरण ....

####

जुड़ते ही स्वयं से
बदल जाती है
गुणवत्ता
जीवन की मेरे

पनपने लगती है
समझ
ज़िंदगी की घटनाओं की
बिना निर्णायक हुए ..

सही -गलत,
अच्छा -बुरा
से हट कर
'जो है -वो है '
की स्वीकृति
शांत करती है
मन -मस्तिष्क मेरा

'मुझे क्या मिलेगा! '
से हट कर
आ जाती हूँ
' मैं क्या दे सकती हूँ! ' पर..

'क्या टूट गया ?'
को भुला कर
होती हूँ केंद्रित
'क्या रच सकती हूँ नया !'पर..

' कैसे मिलेगा
आनंद मुझे ! '
के बजाय
सोचती हूँ
' कैसे व्यक्त करूँ
अपने आनंद को ! '

विचारों का संवेग
होने लगता है कम
और हृदय हो जाता है
अधिक संवेदनशील
जीवन के प्रति

आसान हो जाता है
भूलना
और
माफ करना

दिखने लगते हैं
वे सभी सत्य
जो
उद्व्गिन मन की
लहरों में रहते थे
छुपे हुए ..

रूपान्तरण
मेरे 'स्व' का
बन जाता है
उपहार
अन्यों के लिए
और
जीती रहती हूँ मैं
एक अनवरत आनंद में
स्वतंत्र हो कर
बाहरी दुनिया के
मिथ्या आवरणों से.....



बुधवार, 11 मई 2011

इष्ट तुम्हारा....

#####

जीवन तो इक बहती धारा
वक़्त न ठहरा ,कभी न हारा

परिवर्तन ही बस अपरिवर्तित
परिवर्तन से ही हुआ विसर्जित

क्यूँ करते संघर्ष व्यर्थ तुम
स्वीकार करो बन के समर्थ तुम

आसक्ति क्यूँ क्षणभंगुर में
मिटा बीज ,पनपा अंकुर में

आज नहीं हैं जब कल जैसा
नहीं रहेगा कल भी ऐसा

दोनों 'कल' ही मिथ्या भ्रम हैं
'अभी' 'यहीं' बस सत्य क्रम है

जो भी शाश्वत और सत्य है
नहीं मिटेगा यही तथ्य है

जियो समग्र हो कर इस क्षण में
मिलेंगे प्रीतम हर इक कण में

मिलन यही अभीष्ट तुम्हारा
पा जाओगे 'इष्ट' तुम्हारा

रविवार, 8 मई 2011

माँ.....

मई का दूसरा रविवार हमेशा मदर्स डे के रूप में मनाया जाता है... शायद व्यस्तता के इस दौर में एक दिन सुनिश्चित करने के लिए कि जो भावनाएं पल पल माँ के लिए मन में रहती हैं उनको आज एक दिन अभिव्यक्त कर पाएं ...कुछ कहने की कोशिश करी है ..जबकि असंभव सा ही है कुछ कहना ..फिर भी ..

#############


होते हैं मन में
संवेदन ,
आज व्यक्त उन्हें
हम कर लें ,
माँ के प्रति
अगण्य भावों को
सीमित से
शब्दों में भर लें ....

खून से अपने
सींच सींच कर,
पनपाती
एक जीवन को ..
कष्ट असाध्य
सह कर देती है ,
फूल सुगन्धित ,
उपवन को ..

देखभाल फिर
उन फूलों की
तन मन धन से
करती है ...
आंधी ,
बारिश ,
तूफानों से
स्वयं कभी न
डरती है ...

विकसित होते
फूल को
लख लख ,
माँ का मन
हर्षाता है
खिले पूर्ण
निज सम्भावना से
प्रयास यही
दर्शाता है ...

निस्वार्थ प्रेम
बस इसी रूप में
मिलता हर इक
प्राणी को ..
किन्तु माँ ही
समझ सके
इस
मूक प्रेम की
वाणी को ...

शब्दों में
कभी नहीं है
संभव ,
भाव
व्यक्त ये
कर पाना ,
माँ का प्यार
है होता कैसा!
मैंने
माँ बन कर ही
जाना ........




शुक्रवार, 6 मई 2011

निशब्द दिलासा .....

भोर के
उजास में,
चिड़ियों की
मीठी चहचाहट
के मध्य ,
हुई थी
धीमी सी
आहट
उन कदमों की
दर पर मेरे ...
शीतल ,मंद
बयार में
बहते
स्पन्दन
पहुँच गए हैं
मेरे हृदय तक....
छोड़ कर
कदमों के निशाँ,
लौट गए हैं वो
दे कर यह
निशब्द दिलासा
मुझको ,
कि नहीं हुई है
अभी विस्मृत ,
मेरी राह से
जुड़ने वाली
राह उन्हें ...
जलाये हुए
दिया प्रेम का ,
होने को
सतत
चलायमान
इस राह पर,
मेरे लिए तो
यह
निशब्द दिलासा ही
काफी है ......

बुधवार, 4 मई 2011

बादल और आकाश

####

छा जाना
घटाओं का
आकाश पर
कर देता है
मलिन
सूर्य
और
चन्द्र को ..

हो जाता है
वातावरण
घुटन भरा
जब नहीं चलती
हवा तनिक भी ..

किन्तु !!
होते हैं बादल
क्षणभंगुर
और
सीमित..
कर पाते हैं
आच्छादित
आकाश के
मात्र अंश को ही ...

नश्वर है
उनसे जनित
घुटन
और
शाश्वत है
खुले आकाश का
आनंद ...

बरसते ही
बादलों के
हो जाता है
समस्त अस्तित्व
उल्लासित ,
खिल उठा है
कण कण
प्रकृति का
भीगी भीगी
अनुभूतियों को लिए...

जिस पल लगे
बादलों की
घुटन से
कहीं ज्यादा है
आनंद
असीमित
आकाश का ,
चले आना
भरके उड़ान
बादलों से परे,
निरभ्र आकाश में
उड़ने को साथ
अंतहीन यात्रा में ..

क्यूंकि !
है व्याकुल
मेरे साथ ही
समस्त अस्तित्व
भी
प्रतीक्षा में
मिलन की अपने ...