सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

बिखरे हों हरसिंगार ज्यूँ ......

 

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रूहानी राबिते थे

जिस्मानी बंदिशों में

मरासिम वो पुराना था,

अनजान पैरहन में....


ग़म कोई नहीं दिल को

हर नफ़स है नाम उसका

फिर कैसी नमी है ये 

नज़रों के कहन में....


जिस्मों का जुदा होना

मौजूँ ही नहीं अपना

घुटती हैं फिर क्यों रूहें

मा'शर के रेहन में .....


उससे बिछुड़ के मिलना ,

और फिर से बिछुड़ जाना 

बिखरे हों हरसिंगार ज्यूँ 

दिल के सहन में...

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मायने- 

राबिते- सम्बन्ध/connection

मरासिम- जानपहचान/bond

पैरहन- पहने हुए कपड़े/cloths

नफ़स-साँस/breath

मौजूँ-विषय/subject

मा'शर -समाज /society

रेहन - बंधक / mortgaged

सहन-आँगन/courtyard

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

तेरी आँखों पे लब रख दूँ....


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हँसी होठों की देखो तो 

कहीं धोखा न खा जाना

ग़मों को अश्क़ बनने में

ज़रा सी देर लगती है ....



उदासी में डुबो ख़ुद को,

क्यूँ बैठी हो यूँ तुम जाना !

ख़ुदा को ख़ुद में ढलने में 

ज़रा सी देर लगती है....


तेरी आँखों पे लब रख दूँ, 

के आबे ग़म को पी जाऊँ

तिश्नगी ए रूह बुझने में, 

ज़रा सी देर लगती है....


समझना खुद को ना तन्हा,

कठिन है राह ये माना

सफ़र में साथ मिलने में 

ज़रा सी देर लगती है....


तपिश मेरी मोहब्बत की 

कभी पहुंचेगी तुम तक भी 

हिमाला को पिघलने में 

ज़रा सी देर लगती है....


है वक़्ती बात ,न भूलो

खुशी हो या ग़मे हिज्रां 

कली से फूल खिलने में 

ज़रा सी देर लगती है ....


-मुदिता

30/09/2020