मंगलवार, 24 मार्च 2015

परछाई


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धूप - छाँव 
की कला है अद्भुत 
कहलाती जो
परछाई ...
कभी लघु
कभी वृहद्  
रूप में
ढलती रहती 
परछाई !....


अस्तित्व लगे 
परछाई का 
हो धूमिल भी 
प्रकाश अगर, 
गुम हो जाती 
घोर तिमिर में 
नहीं आती ये 
कतई नज़र,
मन के भय
साकार हो उठते 
दिखे  पृथक  जब 
परछाई ......

छुपा हुआ 
परछाई में
रहस्य भरा
संसार ,
मात्र भ्रम हैं
दृष्टि के  
दिखते जो
कई आकार,
कुछ  होता
कुछ और ही दिखता
उलझन ,
समझ न आई,

परछाई बस
है एक रूपक
जो दिन रजनी से
जुड़ जाता
अंधियारे में
घिरे हुओं को
साया
नज़र नहीं आता
संग छोड़ दे 
परछाई तो
विकट  बड़ी
तन्हाई  ......

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

धुंध में घिरा मन ....

धुंध में घिरा,
विचारों के
उलझे धागों में
फंसा मन
शब्दों का ही नहीं
मौन का भी
अर्थ-अनर्थ
कर बैठता है ...
मौन को सुनने
होना होता है मौन ही
उतरना होता है
अंतरंग में
विस्मृत कर
बहिरंग को,
होता है घटित
सहज सा ध्यान
और हो जाता है
स्वत:  ही
समन्वय और संतुलन
शब्द और मौन का,
क्रिया और  प्रतिक्रिया का,
अंतरंग  और   बहिरंग का...
और हो पाती है
अनुभूति
द्वैत के मिथ्यात्व की
अद्वैत के अस्तित्व की..