बुधवार, 28 दिसंबर 2011

हो पाते तुम काश यहाँ !!

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पर्वत पर हैं ठहरे बादल
खग पेड़ों पर रुके हुए
झील का ठहरा पानी कहता
हो पाते तुम काश यहाँ !

आसमान भी सूना सा है
बहते बहते थमी पवन
मूक धरा निश्चल हो कहती
हो पाते तुम काश यहाँ !

कण कण में गुंजार रही
हृदय कामना बिन बोली
मैं ही बस ये ना कह पाती
हो पाते तुम काश यहाँ !

नज़रें मेरी आतुर क्यूँ हैं
स्पर्श तेरा अनुभूत हृदय में
बसे हो मुझ में फिर क्यूँ चाहूँ
हो पाते तुम काश यहाँ !



मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

छाया की प्रतिछाया


भेद विभेद करा देते हैं
काल, नाम और ये काया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया

युगों युगों से जीते आये
जिस पावन 'अनाम' को हम
समय की सीमा लांघ लांघ वो
फिर फिर जीवन बन आया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया

आते जाते काले बादल
आंधी तूफां भी अक्सर
साथ ये सूरज जैसा अपना
कोई न विचलित कर पाया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया

साँसों में तेरी सांसें हैं
धड़कन में धड़कन तेरी
नहीं है मुझमें ऐसा कुछ भी
जहाँ नहीं तुझको पाया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया



रविवार, 25 दिसंबर 2011

अस्मिता -(आशु रचना )

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करते हैं हम
ना जाने
उपद्रव कितने ,
रखने को कायम
अपनी किसी
वैयक्तिक विशेषता को ,
समझ कर उसी को
अस्तित्व अपना

हो जाते हैं
हठधर्मी ,
करने को साबित
अपने छद्म व्यक्तित्व को,
करते हैं पोषण
ओढ़े हुए आवरणों का
परोसते हुए
दिखावटी दर्शन के
तर्कों और
युक्तियों को ...

नहीं होता भरोसा
जब हमें
अपनी अस्मिता का ,
हो जाते हैं विध्वंसकारी
चेष्टा में
स्वयं को श्रेष्ठ
साबित करने की ,
हीनता से भरे हुए
अंतर्मन के साथ
देते हैं धोखा
स्वयं को ,
अन्यों को भी ....

अस्मिता तो है
स्वाभाविक गुण हमारा,
सहज ,
सकारात्मक
और
दिव्य ,
नहीं आवश्यकता
किसी चेष्टा की
साबित करने हेतु
इसको ..

जीना होता है बस
प्रदूषणमुक्त हो कर
हमें
और
होती है प्रसरित
स्वयं ही
सुगंध इसकी ...

समाज
के बनाये
नाम ,
पद ,
और
रिश्तों के
मिथ्या आवरणों को
कायम रखने की
चेष्टा में
घुटने लगता है दम
हमारी अस्मिता का
और
बढ़ता जाता है
प्रदूषण ...

बढ़ने लगती हैं दूरियां
'मैं' ,'मेरा ' के
छद्म स्वंत्रतायुक्त
व्यक्तित्व की चाह में ..
जबकि
अस्मिता नहीं है
अलगाववादी
और हठधर्मी ,
यह तो है कोमल ,
स्त्रैण,
अनाक्रमक
और ग्राही ..

आओ ना !
गिरा कर
इन अवांछनीय
आवरणों को ,
प्रकट हों हम अपने
मूल स्वरुप में ,
जहाँ हैं हम
विशुद्ध
और प्रामाणिक ,
अविभक्त
उस परम अस्तित्व से ...
यही है पहचान हमारी
यही है अस्मिता हमारी ...!!!


शनिवार, 24 दिसंबर 2011

रूह में यूँ घुल गए तुम

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रों रों से हो के गुज़रे ,रूह में यूँ घुल गए तुम
चाहत नहीं कोई भी, मुझको जो मिल गए तुम

राहें हुई हैं रौशन ,मंज़िल पुकारती है
बन कर चिराग दिल में मेरे जो जल गए तुम

काँटों से पार पाना आसां हुआ ए हमदम
गुलशन में मेरे जब से ,गुल हो के खिल गए तुम

अब गुम है होश मेरा ,बेखुदी होशमंद है
मेरे जाम-ए-ज़िन्दगी में ,मय बन के ढल गए तुम

महफूज़ हूँ मैं तेरी पलकों की चिलमनों में
जागी नज़र में मेरी ,ख्वाबों सा पल गए तुम

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

मिल कर बन जाते हैं ध्यान -अनुवाद



######

अनुशासन
और
विद्रोह
दो पहलू
एक ही सिक्के के,
समरूप तत्व
सदृश सत्व,
करते हैं
महसूस दोनों
एकसार
इश्वरत्व को

उभरते हैं
विभिन्न
प्रकटीकरण ,
साधुवाद
विभिन्न स्थितियों को
किया जाता है जिनका
भिन्न भिन्न
निर्वचन
भिन्न भिन्न
व्यक्तियों द्वारा ..

नहीं होता
तालमेल
दोनों ही के संग ,
पाखंड
औसतपन
और
दोगलेपन का,
उभरते हैं जो
समाज के
पंगु
मापदंडों के
कारण

होते हैं लालायित
दोनों ही
पाने को आलिंगन
अन्तरंग का ,
स्पर्श
बहिरंग का ,
और
अनुभूति
आकार
और तत्व
दोनों की ...

होता है
मिलन
हृदय और
मस्तिष्क का ,
पिघलते हैं
अस्तित्व
और
घुल जाती हैं
आत्माएं ..

विद्रोह और अनुशासन,
प्रत्येक
यदि एकल ,
करते हैं
सामना
कुंठाओं की
विपद का ,
और
होते हैं
जब संग ,
मिलकर दोनों
बन जाते हैं
ध्यान ...
Original write####

Discipline
And
Rebellion
Two sides of
The same coin,
Homogeneous basics
Analogous essence
Feels alike
Towards
Godliness.....

Different
Manifestations
Emerge
Thanks
Different
Situations
Differently interpreted
By different individuals...

Ill goes with both
Hypocrisy
Mediocrity
And
Double talk
Arising from
Lame scales
Of society.......

Craves both for
Caress of Inner
With
Touch of outer,
Feel of
Form and
Spirit as well...


Head and
Heart
Match,
Melt the
Beings,
Merge the
substances...

Rebellion
And
Discipline
Each alone
Runs risk of
Frustration,
Together
They
Become
Meditation....


by- Nazmaa Khan

आसमान

आसमान ...####

देखो ना!
कैसी फितरत है
आसमान की भी ...
कभी पसर जाता है
अपनी अंतहीन सीमाओं
के साथ
छोटी सी
एक छत की जगह
और
कभी !
असीम विस्तार को लिए
सिमट आता है
जैसे एक छत कोई ......!!!


बुधवार, 21 दिसंबर 2011

प्रबुद्ध या बुद्ध !

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अपने अंतर का
आडोलन,
हर क्षण मानो हो
आन्दोलन ,

रत हैं हम सब
लड़ने जैसे
अनवरत
एक अपरिभाषित युद्ध ,
कोई नहीं
प्रतिपक्षी उसमें
है बस वह
स्वयं का
स्वयं विरुद्ध ,

हो ज्ञात जिस पल
सत्य सार्थक ,
गति पाता
जीवन प्रवाह
रहता जो
अकारण
अवरुद्ध ,
कुंठा मुक्त
मानव
हो सकता
सहज साक्षात्
प्रबुद्ध
या
बुद्ध !


सोमवार, 19 दिसंबर 2011

प्रेम,मित्रता और मैत्री ..

#######


प्रेम मात्र है बस एक सीढ़ी
मित्रता के द्वार तक
मित्रता भी है केवल पुल
मैत्री के विस्तार तक

बिना मित्रता प्रेम है नश्वर
अंत द्वेष में होता जिसका
ठगा हुआ महसूस सा करते
दोष ना जाने होता किसका

प्रेम ले जाता ऊपर जब भी
घटित मित्रता होने लगती
मित्रता भी उपर उठ कर
मैत्री में है खोने लगती

जड़ प्रेम है ,फूल मित्रता
मैत्री तो है शुद्ध सुगंध
प्रेम ,मित्रता में दो होते
मैत्री नहीं कोई सम्बन्ध

मैत्री है नभ सा विस्तार
होता घटित हृदय में अपने
नहीं है बंधन ,नहीं सीमाएं
सच होते से लगते सपने

रविवार, 18 दिसंबर 2011

प्रेम की दीपशिखा...

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कठिन नहीं है
प्रेम को महसूस करना
होता है कठिन
किसी क्षण में
महसूस किये गए
प्रेम की
दीपशिखा को
जलाये रखना
और
उससे भी अधिक कठिन
उस लौ को
निरंतर
उज्जवल करना

होता है जिस क्षण प्रेम
शब्दों में परिवर्तित ,
कर लेता है
मस्तिष्क
अतिक्रमण हृदय का
और
मिलता है
मिथ्या प्रतिबिम्ब
प्रेम का
सुनी,
कही,
देखी ,
बातों के अनुरूप

उलझ जाते हैं
हम
मायाजाल में
आसक्ति
और
निर्भरता के
और होता है अंत
ऐसे प्रेम का
दुःख
और
हताशा में
आरोप -प्रत्यारोप में ...

हो कर
समाकलित ,
सुसंगत
और
संवेदनशील
न सिर्फ
जलाये रख सकते हैं
हम
अपने हृदय में
दीपशिखा प्रेम की
अपितु
कर सकते हैं
विस्तार
इसकी ज्योति का
कण कण में ....

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

बस मेरा सरमाया है....

#######

तेरे खत में सलाम आया है
एक भूला सा नाम आया है
खुशबू साँसों की तेरी है उसमें
तेरी नज़रों का जाम आया है

है क्यूँ रेशम सा कागज़ी टुकड़ा
बार बार चेहरे से छुआती हूँ
मेरे हाथों में जैसे हाथ तेरा
उंगलियाँ उसपे यूँ फिराती हूँ
कब लिखा जा सकेगा शब्दों में
अनकहा जो पयाम आया है
तेरे खत में सलाम आया है ...

तेरे हर्फों की जो ख़ामोशी है
गूंजती जा रही है धड़कन में
इश्क की राह में उतर लीं हैं
कितनी गहराइयां सनम हमने !
ज़िंदगी भर की खुशी दे दी है
खत तेरा ,बस मेरा सरमाया है
तेरे खत में सलाम आया है
एक भूला सा नाम आया है
खुशबू साँसों की तेरी है उसमें
तेरी नज़रों का जाम आया है ...

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

एक कविता ...

#######

हूँ मैं भी
एक कविता
रची गयी
उस सर्वोच्च रचनाकार की कलम से

जिसके हर लफ्ज़ में छुपे हैं
अनगिनत भाव ,
जिन्हें पढ़ने वाला
पढ़ता है
अपने ही आयाम दे कर
और रहता है इंतज़ार
रचना और रचयिता को
उस पाठक का जो
पढ़े ,
समझे और
अपना सके
रचना को
उसके निहित अर्थ में
उसकी समग्रता के साथ
टुकड़ों टुकड़ों
को जोड़ते हुए भी .....

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

एहसास.....

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उठा कर
नींद की गोद से
उस सहर
भर लिया था
मुझे
अपने ही
साये ने
आगोश में
खुद के ,

खुलने से पहले ही
पलकों को
कर दिया था
बंद
नरम गरम
छुअन से
अपनी ,

पिघल गयी थी मैं
गुनगुनाती सी
घुल जाने को,
मोम की मानिंद,

ना जाने
घुला था
वो मुझमें
या कि
मैं उसमें,
पसर गयी थी
फ़िज़ा में
महक लोबान की'

मस्जिद से
गूंजी थी
अजान ,
और
मंदिर से
उठे थे स्वर
आरती के ,

फूल खिले थे
पत्ते थे सरसराये
कलरव किया था
पखेरुओं ने ,
गा रहा था जोगी
प्रभाती
कर रही थी मैं
बातें खुद से ,

या खुदा !!
मेरे मौला !!
ये एहसास था क्या
तेरे आ जाने का ?

रविवार, 11 दिसंबर 2011

'अनाम '

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सुना है
बेनाम ,बेशक्ल
होती हैं रूहें ,
फिर भी
ना जाने क्यूँ
होते हैं
यादों के धुंधलके में
चंद नाम ,
चंद चेहरे
अपने अपने से..
लगता है कोई क्यूँ
जन्मों से
खुद सा
पहली ही
मुलाकात में
और गूँज जाता है
कोई अनाम
यादों की गलियों में
जैसे
दे रहा हो
सदा
दूसरे छोर पर
खड़ा हुआ ..

बाँध लेती है
ना जाने कैसे
कोई अदृश्य डोर
अप्रत्याशित सी
घटनाओं को ,
पकड़ कर सिरा जिसका
चीर कर
अंधियारे को ,
करता हुआ पार
हर दूरी को
पहुँच ही जाता है
कोई
'मीत'
अपने 'मन' की
तहों में बसे
'अनाम' तक
और चल पड़ते हैं
'मनमीत '
संग संग
जानिब-ए-मंज़िल
एक नयी सहर का
आगाज़ लिए ..




शनिवार, 10 दिसंबर 2011

पहली करवट ....

पहली करवट ....######

हृदय में सोये
प्रभु की
पहली करवट
कराती है
एहसास
प्रेम का
जो होता है घटित
अन्तरंग में
और
होने लगता है
दृष्टव्य
बहिरंग में...

लगने लगता है
सब कुछ
स्वयं सा
अपना सा
होती है प्रवाहित
मुक्त धारा
जो सरसाती है
तन-मन को,
नज़र आती है
खुबसूरत
हर शै कुदरत की,
हो रहा होता है
बाहर जो ,
होता है वो
बस हमारा
अपना ही
प्रतिबिम्ब

खिंच आता है
कुछ ऐसा
जीवन में
जिससे
बढ़ जाती है
ऊर्जाएं
और
होता है घटित
सामर्थ्य
उस निराकार को
आकार देने का
स्व-हृदय में...

केवल जागरूकता
हमारी
करा सकती है
पहचान हमें
उस करवट की
उस अंगडाई की
उस अवसर की
लौटने के लिए
स्वयं की ही ओर ,
हमारे अंतर में
विराजित
परमात्मा की ओर ...,

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

कोई..!!

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चुरा कर नींद
मेरी आँखों से
कैसे
सोया होगा कोई !
खयालों में
मुझे पा कर
मुझ में ही
खोया होगा कोई ...

तगाफ़ुल है
या बेज़ारी
पलट कर भी
ना देखा तो
मेरे दिल की
सदा पर
कर बहाना
सोया होगा कोई ..

ना मेरी आँख
मुंदती है
ना रहम-ए-नींद है
मुझ पर ,
कि कर महसूस
मेरी बेकली को
क्या
रोया होगा कोई !...

कटेगी रात
यूँ सारी ,
बस इक पैग़ाम की
चाह में ,
सहर होने तलक
एक लम्हा भी
ना
सोया होगा कोई ...

ना करना
तू शिकायत
मेरी आँखों की
उदासी की ,
कहेगी दास्तां वो भी
कि शब भर
रोया होगा कोई.....

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कृपा सिंधु


कृपा सिंधु ....
#####

गीता के सातवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥(७-११)

मैं काम (इच्छा) और राग से रहित बलवानों का बल हूँ. हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन) सब प्राणियों में मैं धर्म के अनुकूल रहने वाली लालसा हूँ. दूसरी पंक्ति को यदि ध्यान से देखें तो भगवान ने स्पष्ट किया है कि वे धर्मविरुद्ध कामों में शुमार नहीं है. हम अज्ञानी या हम में से आसुरी वृति के लोग, अमानवीय धर्म विरुद्ध कृत्यों को भी ईश्वर की मोहर लगा कर चलने का प्रयास करते हैं.
एक पंक्ति में कहें, तो इश्वरत्व सत्य, प्रेम और करुणा है...परमात्मा कभी भी इन के विरुद्ध जो भी होता है उसमें कत्तई शामिल नहीं. ये सब निहित स्वार्थों के अपने निर्वचन हैं.

इसी भावना को ध्यान में रखते हुए एक रचना का सृजन हुआ है ..आशा है बात पहुंचेगी ...



कृपा सिंधु .....####

परमात्मा तो है
सत्य
प्रेम
और करुणा,
कैसे हो सकते हैं
वे शुमार
धर्म विपरीत
कलापों में,
ईर्ष्या ,
द्वेष
और
अहंकार में ..

दिये हैं हमें
प्रभु ने
चेतना
विवेक,
भावनाएं,
संवेदनाएं
कर सकें
जिससे हम
संपादन
सतोगुणों का,
होते हुए साक्षी
मन में उत्पन्न
हर अच्छे बुरे विचार का


आसुरी प्रवृतियां
फोड़ती है ठीकरा
अपनी
नकारात्मकता का
शीश पर
प्रभु के,
अपने हर भाव को
उन्ही का दिया
बतलाते हुए
ले कर छद्म नाम
समर्पण का ..

ले लेते हैं जान
मासूमों की
कितने ही
विवेकशून्य मानव
ज़ेहाद
या
धर्मयुद्ध के नाम पर
करते हुए दावा
खुदा का फरमान,
ईश्वर की आज्ञा
मानने का..

कैसे हो सकता है
कोई भी कृत्य ,
बिम्ब
उस ईश तत्व का,
जो हो विपरीत
शाश्वत समग्रता के !
कैसे हो सकता है
कृपा सिन्धु
असत्य
अप्रेम
और
करुणा विहीन !