गुरुवार, 25 मार्च 2010

उसे कैसे जग से छुपाऊँ मैं .....

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मेरी हर
नफ़स में
छुपा है जो
उसे कैसे
जग से
छुपाऊँ मैं ...
बना खुद को
अब मैं
यूँ आईना,
अक्स
सब को
उसका
दिखाऊं मैं

देती
धडकनें भी
जो ताल हैं,
वो उसी की
धुन का
कमाल है..
सुरों को भी
जो साधूँ तो
हमनशीं
गीत बस
उसी का तो
गाऊं मैं..
उसे कैसे
जग से
छुपाऊँ मैं .....

लबों पर
जो खिली,
उस हंसी
में वो...
झुकी
पलकों की
हर इक
नमी में वो...
जुबां
बंद भी
रखूं तो ,
जिस्म के
रों रों को
चुप ना
कर पाऊं मैं...
उसे कैसे
जग से
छुपाऊँ मैं .....

बुधवार, 24 मार्च 2010

अधर मेरे क्यूँ बोल रहे ....

अंतस की पीड़ा ,ये अधर मेरे
प्रियतम तुमसे क्यूँ बोल रहे!!
अश्रुपूरित हो नयन मेरे
मालिन्य व्यर्थ क्यूँ घोल रहे !!

हर भाव मेरा तुम तक जा कर
क्यूँ निष्फल वापस आया है?
इस धार के संग बह जाने का
भय तुमको आज सताया है?
यूँ जुड़े अन्तरंग अपने जब
शब्दों में हम क्यूँ डोल रहे
अंतस की पीड़ा ,ये अधर मेरे
प्रियतम तुमसे क्यूँ बोल रहे ....

व्यथा हृदय की समझो तुम
क्यूँ कहते मुझसे कहने को
दूरी का क्लेश नहीं मुझको
मन साथ हैं अपने रहने को
सुन लो अब भाषा मौन की तुम
रह रह स्पंदन यूँ बोल रहे
अंतस की पीड़ा ,ये अधर मेरे
प्रियतम तुमसे क्यूँ बोल रहे ....

शक्ति नारी तो नर है शिव
बिन एक दूजे के सम्पूर्ण नहीं
जीवन क्रम की सहयात्रा में
पल कोई जिया अपूर्ण नहीं
प्रतिपल घटित एकत्व को
क्यूँ सीमाओं से मोल रहे
अंतस की पीड़ा ,ये अधर मेरे
प्रियतम तुमसे क्यूँ बोल रहे ....

मंगलवार, 23 मार्च 2010

ऐतबार

ऐतबार
कर
उनके
वादे का
सोते रहे
हम
उम्र भर...
कह कर
गए थे
वो
कि
आयेंगे
ख्वाब में ...

क़ैद

तेरे
तस्सवुर
की क़ैद
रास
आ गयी
ज़हन को,
हुआ
करते थे
हम भी
आज़ाद
तबियत
कभी ...

शनिवार, 20 मार्च 2010

इन्द्रधनुष

प्रखर
तेजयुक्त
दिनकर
को भी
ढक लेते
हैं
नीर भरे
बादल
यूँ आ कर

ताप
बदल जाता
ठंडक में
खिल उठता
हर रंग
रवि का
नभ पर
इन्द्रधनुष
सा छा कर....


गुरुवार, 18 मार्च 2010

बाजी दीप और शलभ की

मेरे मित्र द्वारा रचित 'मेरी पुकार' ने मुझे प्रेरित किया शलभ की बात कहने को॥ और नतीजा ......:)

दो रचनायें जिनमें से पहली मेरे मित्र की लिखी हुई है..और उसके बाद शलभ के भाव मेरे लिखे हुए हैं ..'दीप-तू मुझको ना भरमा ' ..
दोनों रचनाओं का आनंद एक साथ पढने में है इसलिए दोनों एक साथ पोस्ट कर रही हूँ ..

मेरी पुकार ......

# # #
कर कर के
मनुहार
मैं कहता
बारम्बार
सुन ले
मेरी पुकार
शलभ तू
मेरे निकट ना आ........

मुझे प्रपंची
जग कहता है
तू मुझ पर आहें
क्यों भरता है
वृथा दीवाने
क्यों मरता है
यदि चाहता
प्रकाश तू
जा खद्योत से
तनिक मांग ला,
शलभ तू
मेरे निकट ना आ......

है जलन ही
प्राण मेरा
जल जायेगा
छोड़ फेरा
ढूंढ ले तू
अन्य डेरा
प्रेम की पीड़ा
है यदि तो
दूर रह कर
तू अरे गा
शलभ तू
मेरे निकट ना आ......

हुई सुबह
मैं बुझ जाऊँ
बस राख ही तो
बिखरा जाऊं
लौट कर फिर
मैं ना आऊं
शीश बभूत को
लगा बावरे
कर याद
मीत
कोई दीप सा था
शलभ तू
मेरे निकट ना आ.......

(खद्योत=जुगनू)

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दीप...तू मुझको ना भरमा :

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तेरी मनुहार में
छुपा प्यार,
ले आता निकट
बारम्बार,
हो जाता मुझको
दुश्वार,
दूर रह पाना तुझसे
दीप..तू मुझको ना भरमा

तर्क नहीं ,
बस प्रेम को समझे
मन का भोला पंछी
जग की आँखों,
मत दिखला तू
अपना रूप प्रपंची
ध्येय नहीं प्रकाश
खद्योत का
प्रीत जुडी है तुझसे
दीप...तू मुझको ना भरमा

जलन को
शीतल कर देता है
प्रेम का
बस एक कतरा ,
सांस सांस पर
नाम है तेरा ,
जलने का
क्या खतरा !!
अपनी धुन की
लय पर सजता
गीत सुना है तुझसे
दीप... तू मुझको ना भरमा

भोर हुई ,
हो गया उजाला
रात मिलन की बीती
दीप शलभ की
लगी थी बाजी
मिल कर हमने जीती
भस्म हुए
हो कर योगित हम
पृथक नहीं मैं तुझसे
दीप...तू मुझको ना भरमा .....



बुधवार, 17 मार्च 2010

स्वप्न -अवचेतन की चेतना


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फूल खिला इक रोज़ स्वप्न में
महक उठी उससे ज़िन्दगानी
सोच,भरम होता है सपना
क्यूँ थी मैं उससे अनजानी

लेकिन सपनो के साए ही
जीवन में प्रतिबिंबित होते
जी लेते हैं हर उस पल को
जो जगते प्रतिबंधित होते

जागी आँखों के सपने ही
जीने का एहसास कराते
पूरा होगा मन का सोचा
दिल में ये विश्वास जगाते

मूँद के पलकें खो जाओ तुम
अवचेतन की चेतना में
उर आनंद समा जाएगा
ना भटकोगे वेदना में

मंगलवार, 16 मार्च 2010

अन्तरंग

छुपी असंख्य तहों के भीतर
मन की दुनिया अन्तरंग में
देख नहीं पाता तू उसको
भटक रहा क्यूँ बहिरंग में

ध्वनि आत्मा की क्षीण सही
पर सच्ची बात बताती है
कर ले शांत विकारों को तू
दिल की आवाज़ बुलाती है

ढूंढ रहा बाहर किसको तू
हर आनंद है स्व मन में
झरना बहता है खुशियों का
उदगम जिसका अंतर्मन में

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

कश्ती

लहरों पर इठलाती चली जा रही थी कश्ती
भंवर था इक ओझल ,बही जा रही थी कश्ती

मगन थी खुद में अनजान थी आगत से
अपने ही आनंद में जिए जा रही थी कश्ती

अनदेखा अनजाना मोड़ आ गया अचानक
भंवर में हतप्रभ सी फंसी जा रही थी कश्ती

खो गया आनंद उसका,रुक गया प्रवाह
चक्रवात में बेबस थमी जा रही थी कश्ती

जोड़ा उसे जो खुद से ,पाया मैंने कि मैं भी
सोचों के इक भंवर में बनी जा रही थी कश्ती

जड़-चेतन का अंतर, होता है किन्तु गहरा
मांझी बिना जड़ता में, बढ़ी जा रही थी कश्ती


ठहरा सका ना मुझको, भंवर कोई अदेखा
करती विचारमंथन मैं ,खेये जा रही थी कश्ती

चेतन है मेरा अवगत,यात्रा के हर भंवर से
पतवार हाथ स्वयं के , सधी जा रही है कश्ती

बुधवार, 10 मार्च 2010

जो जाही का भावना सो ताहि के पास.....

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तलाश
कब थी तेरी
ख़ुशी से बसी थी
मैं
जीवन के
थिर जल में
कुमुदनी सी ......

नभ में जैसे
चाँद आलोकित
उदित हुआ
तू ऐसे
किरने तेरी
छू कर मुझको
खिला गयी थी
जैसे..

उठी हिलोरें
ठहरे जल में
मानो गिरी
कोई कंकरिया
रंगत तेरी
पा कर मेरी
खिल गयी
सब पाँखुरियाँ...

तू नभ में
धरती पर हूँ मैं
प्रेम अनोखा
अपना
छाया तेरी
पड़ जाने से
पूर्ण हुआ है
सपना......

मानो रजनी में
मिलन हमारा
प्रेम सुधा
बरसी हो
ओस के मोती
टिके हैं तन पर
रोम रोम
सरसी हो...

महसूस हो रहा
आज मुझे यह
कहे मेरी हर सांस :
कुमुदनी जल हरी बसे
चंदा बसे आकास,
जो जाही का भावना
सो ताहि के पास.....

नज़ाकत

बेडी
ना समझ
पैरों की
जानम
पायल की
मुझमें
नज़ाकत है ..
रुनझुन.
प्यार की
ना हो
महसूस
तुझे
ये बात
दीगर है ....

चादर बर्फ की

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दबा के लावा
दिल की
गहराईयों में,
ओढ़ ली
बर्फ की
चादर तूने ..
हलचल
धरती की
परतों की ,
कर जाती है'
उद्वेलित
लावे को
जिसकी
तपिश से
पिघलना चाहती
है वो बर्फ
जो जमा ली है
बरसों से
मन की सतह
पर तूने
दे दे रास्ता
उस लावे को
निकलने का..
महसूस होगी
शीतलता
बर्फ की
तभी
अंतस में..

सोमवार, 8 मार्च 2010

दूरियां

दूरियां
जिस्मों की
बेमानी
हो गयी
जैसे...
दिल से तेरे
आगाज़ ले कर
खयाल कोई ...
होता है
ज़ाहिर
मेरी ज़ुबां से
जैसे ...

रविवार, 7 मार्च 2010

नारी- एक संगिनी


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नारी दिवस के परिपेक्ष्य में अक्सर अभिव्यक्ति की अतिवादी विचारधारा देखने को मिलती है ..नारी को हमेशा एक सहज मानुष ना समझ कर एक रहस्यमय पहेली माना गया है..हमारे साहित्यकारों ने भी नारी की प्रशंसा या अवमानना में अतिवादी दृष्टिकोण अपनाया है..
कुछ उदहारण..

"त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम
देवो न जानाति कुतो मनुष्य: "

"न नारी स्वातन्त्र्यमर्हती !"


और एक अति ..

"यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता !!!"

या तो उसे इतना तुच्छ मानना कि उसकी तुलना तुलसीदास जी ने ढोर गंवार शूद्र और पशु से करी या पूजनीय ,देवी स्वरूप, ..उसको एक सहज इंसान क्यूँ समझा नहीं जाता .. पौराणिक संस्कृति में राधा -कृष्ण जैसा सखा भाव देखने को मिलता है..उन दोनों में कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं था ..कृष्ण श्रेष्ठतम पुरुष होते हुए भी कभी ये प्रतिपादित करते नज़र नहीं आये कि वो नारी जाति से श्रेष्ठ हैं. उनके लिए हर गोपी उनकी सखी थी, उनके सामने नारी अपने भावों की सहज अभिव्यक्ति करने में सक्षम थी .परन्तु अपनी स्वार्थ साधना के लिए पुरुष उनका उदहारण देते हुए कभी नजर नहीं आते.. मनुस्मृति से उद्धृत या तुसलीदास जी के कहे हुए दोहों से नारी को ये एहसास दिलाते हैं कि जब इतने बड़े ज्ञानी नारी के लिए ऐसा कह गए हैं तो सत्य ही होगा ..

आज ऐसे ही एक दोहे को आधार बना कर एक रचना प्रस्तुत कर रही हूँ ..आशा है प्रयास को पसंद किया जाएगा

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रामचरित मानस में रावण मंदोदरी से कहता है-

नारी सुभाऊ सत्य सब कहहिं
अवगुन आठ सदा उर रहहिं
संशय,अनृत ,चपलता,माया
भय,अविवेक,अशौच,अदाया !


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पुरुष प्रधान समाज ने जिन मान्यताओं को नारी के लिए प्रतिपादित किया उनके लिए ये भावाभिव्यक्ति..

किया भ्रमित
नारी को तूने
अवगुण दिए
गिनाय
आठ भाव
ये सहज रूप में
हर मानुस ही पाय ..

) संशय-
दमित वासना
करने पूरी
राह रहे निर्द्वंद
कह संशय
अवगुण है तेरा
दिया नारी को
द्वन्द ..

)अनृत (झूठ)-
नहीं दिया
विश्वास उसे जो
कह पाए
वह सत्य
डरी दबी सकुची
नारी का
अवगुण बना
असत्य ...

) चपलता-
रहे सहज चंचला
यदि तरुणी
उच्छ्रिन्कल वह
कहलाती
सपना बन
रह गयी चपलता
जो बचपन की
थी थाती ..

) माया-
कहा सभी ने
माया उसको
बन गयी
एक पहेली
कभी ना समझा
कभी ना जाना
निज की
एक सहेली......

)भय-
भय तुझको
अस्तित्व का
अपने
कर जाता है
छोटा
बता बता
भय अवगुण
उसमें
निर्भय क्या
तू होता.......??

) अविवेक-
कर उपेक्षा
विवेक की उसके
दिया हीन एहसास
काट सके ना
बात को तेरी
रहा यही प्रयास

) अशौच -
सहज खिले
नारीत्व को तू ने
दिया
अशौच का नाम
जगजाहिर कर
निजता उसकी
उचित किया
क्या काम .....??

) अदाया -
अदया
उसका अवगुण
कह कर
खुद को
झुठला बैठा
दया भाव
नारी से ज्यादा
कौन हृदय में
पैठा.....??

इन भावों का
कर अनुरोपण
बाँधा नारी को ऐसे
छोड़ के इनको
जीना उसको
पाप लगे है जैसे.....

सिंचित कर
स्नेह सहज से
जीवन की
फुलवारी को
तुच्छ-श्रेष्ठ का
भाव नहीं
बस
समझ संगिनी
नारी को ...

गुरुवार, 4 मार्च 2010

क्षण का पुनर्जन्म

क्यूँ हो
परेशान
एक क्षण की
मृत्यु से.
पुनर्जन्म
उस क्षण का
होगा एक
नयी योनि में..

यही कहा था
तुमने
जब
एक क्षण
खो जाने से
हो उठी थी
विचलित मैं

ज्ञात है मुझे
हर क्षण
अपने में
होता है
जीवंत..
कालचक्र
के अनुरूप
होता है
उसका भी
अंत ..
मुक्त किया था
स्वयं को
कर
अंत्येष्टि
उस
मृत क्षण की
तुरंत ...

फिर भी..
नहीं सहनी है
प्रसव पीड़ा
मुझे
क्षण के
पुनर्जन्म की

बहुत से क्षण
होते है
जन्म
ले के भी
अजन्मे
और
होते हैं
कुछ अनाथ
प्रतीक्षा में
उसकी
जो कर दे
उनको
जीवंत

ऐसा ही
कोई क्षण
मिल जाएगा
मुझे भी
बिना पीड़ा के
बाहों में
भरने को..
अपना
बचपन
यौवन और
बुढ़ापा
जीने को.........

मंगलवार, 2 मार्च 2010

दिन -रात-(यिन और यांग)

चाँद का टीका
भाल सजाये
दुल्हन निशा
सजी तारों से,
हो शोभित
सूर्य रथ पर
दूल्हा दिवस
चला आता ..
मिलन होता
रात दिन का
रंग
क्षितिज पर
एकत्व का
खिल जाता .....
दिखते दोनों
भ्रमित जगत को
अस्तित्व पृथक
हो कर...
किन्तु हैं
योगित
सदियों से
यिन और यांग
हो कर....

सोमवार, 1 मार्च 2010

कैसा वृतुल


********

हुआ पूरा
कैसे यह वृतुल....
बात उनकी
खुद-ब-खुद
मुझ तक
पहुँच जाती है..
जाना हो कहीं
मंज़िल हो कोई
राहें
खुद -ब-खुद
मगर
मुझ तक
पहुँच जाती है....

कान्हा ...खेरो होरी !!!

रंग उड़े हैं नीले पीले
कोई मन ना भाये
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी
तन भी रंग रंग जाए

मन मेरा अब हुआ बसन्ती
तन पर उसकी छाया
रंग हुआ गालों का ऐसा
ज्यूँ गुलाल छितराया
देख छवि कान्हा में अपनी
नैनन रंग बरसाए
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी...

होली का हर रंग है फीका
क्या नीला क्या पीला
सूखा मोरा मन है तुझ बिन
रंग डार करो गीला...
लगूं अंग अब स्याम तिहारे
मन तन सब रंग जाए
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी...

खिला है फागुन चहुँ दिसा में
सुनो वेदना मोरी
सखियाँ रंगने आयीं लेकिन
चुनरी मेरी कोरी
रंग दो मेरे रोम रोम को
मैं तू,तू मैं हो जाए
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी
तन भी रंग रंग जाए ..

मुकम्मल

दुनिया सिमट
गयी है या
नज़रों का है
ये गुमां मेरा ...
कोई शै
मुकम्मल
नहीं है
तेरे बिन....
तुझमें
मुकम्मल
हो जाता है
जहाँ मेरा .....