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निभाते हुए
अनेकों रिश्ते
ढल कर अलग अलग किरदारों में
हो जाता है गुम
वजूद ही खुद का
भूल ही जाता है मानव
मूल स्वरूप तक अपना...
लेते ही जन्म
जुड़ जाते हैं रिश्ते बहुतेरे
होती है पहचान जिनसे
हमारे दुनियावी वजूद की
होते हैं निर्भर हम
उन्ही रिश्तों पर
जानने समझने बातें दुनियावी....
जुड़ते जाते हैं
इन्ही रिश्तों में
कुछ नए नाम
जो चुन लेते हैं हम
पाने को साथ
दुनिया की जद्दोजहद में,
देते हैं सब कुछ अपना
इन रिश्तों को सींचने में....पनपाने में ...
दिखते हैं भरे पूरे हम
रिश्तों की इस महफ़िल में
तभी चुपके से
रूह की गहराइयों में
फूटता है कोई अंकुर
अनदेखा अनजाना बेनाम सा
लिए हुए खुशबू
खुद के वजूद की ....
जीते हुए तमाम रिश्तों को
पहचान लेते हैं हम
फिर से वजूद अपना
इस अनदेखे अनजान
अनाम से जुड़ाव में
जो होता है
खुद का खुद से ही .....
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