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तप रहा था माथा
उसके लाल का
भूख से खुद का भी
बुरा हाल था
इंतज़ार उसे था ,
शौहर के आने का
था झूठा ख्वाब,
जिम्मेवारी निभाने का
लेकिन आया घर वो
लड़खड़ाता हुआ
गालियाँ ढेरों बीवी के लिए
बडबडाता हुआ
पूछा उसने दिन भर की
कमाई का हिसाब
बोला ,मैं तो सब की
पी गया शराब
खून के आंसू पी कर
वो रह गयी
बच्चे के कारण
हर सितम सह गयी
लगा सीने से बालक को
निकल पड़ी घर से
कोई तो दयालु
मददगार होगा
शहर में
मदद जिससे भी मांगी ,
सबकी नज़रें थी प्यासी
जिस्म था खूबसूरत ,
भले थी चेहरे पे उदासी
बदले में मदद के सबने,
चाहा कुछ था पाना
लुटा दिया इक माँ ने,
वो इकलौता खज़ाना
मिटाने भूख अपने
उस बीमार लाल की
मिटा दी थी भूख उसने
जिस्म के दलाल की
हो गया स्वस्थ बालक ,
दुःख मिट गए सभी
परवरिश में फिर उसकी,
न रही कमी कभी
बन गया सम्मानीय
वो एक दिन समाज में
सुनने लगा लोगों की बाते ,
दबी ढकी आवाज़ में
करते थे कटाक्ष उस पर ,
समाज के ठेकेदार
शामिल थे जो बनाने में ,
उसकी माँ को गुनहगार
माँ ने लुटा कर खुद को ,
जिस बीज को था सींचा
हो कर बड़ा उसी ने ,
दामन था अपना खींचा
करती थी माँ रुदन यूँ,
दिल हो रहा था छलनी.
गुनाह दूसरे का लेकिन ,
सजा मुझको
क्यूँ थी मिलनी !!!!
तप रहा था माथा
उसके लाल का
भूख से खुद का भी
बुरा हाल था
इंतज़ार उसे था ,
शौहर के आने का
था झूठा ख्वाब,
जिम्मेवारी निभाने का
लेकिन आया घर वो
लड़खड़ाता हुआ
गालियाँ ढेरों बीवी के लिए
बडबडाता हुआ
पूछा उसने दिन भर की
कमाई का हिसाब
बोला ,मैं तो सब की
पी गया शराब
खून के आंसू पी कर
वो रह गयी
बच्चे के कारण
हर सितम सह गयी
लगा सीने से बालक को
निकल पड़ी घर से
कोई तो दयालु
मददगार होगा
शहर में
मदद जिससे भी मांगी ,
सबकी नज़रें थी प्यासी
जिस्म था खूबसूरत ,
भले थी चेहरे पे उदासी
बदले में मदद के सबने,
चाहा कुछ था पाना
लुटा दिया इक माँ ने,
वो इकलौता खज़ाना
मिटाने भूख अपने
उस बीमार लाल की
मिटा दी थी भूख उसने
जिस्म के दलाल की
हो गया स्वस्थ बालक ,
दुःख मिट गए सभी
परवरिश में फिर उसकी,
न रही कमी कभी
बन गया सम्मानीय
वो एक दिन समाज में
सुनने लगा लोगों की बाते ,
दबी ढकी आवाज़ में
करते थे कटाक्ष उस पर ,
समाज के ठेकेदार
शामिल थे जो बनाने में ,
उसकी माँ को गुनहगार
माँ ने लुटा कर खुद को ,
जिस बीज को था सींचा
हो कर बड़ा उसी ने ,
दामन था अपना खींचा
करती थी माँ रुदन यूँ,
दिल हो रहा था छलनी.
गुनाह दूसरे का लेकिन ,
सजा मुझको
क्यूँ थी मिलनी !!!!
8 टिप्पणियां:
मुदिता जी, जीवन की विद्रूपताओं को आपने बहुत ही सलीके से लफ्जों का जामा पहना दिया है। हार्दिक बधाई।
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मिल गया खुशियों का ठिकाना।
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं?
उफ़! समाज की विद्रूपता को जिस तरह आपने प्रस्तुत किया है उससे रौंगटे खडे हो गये और कुछ भी कहने मे खुद को असमर्थ महसूस कर रही हूँ।
kaun hai gunahgaar.. prashn aankhon kee vedna ban jate hain
दर्द से भरी रचना -
मन उदास कर गयी-
सच में अजीब सी विवशता का एहसास हो रहा है -
बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है इस अभिव्यक्ति में ।
समाज के ठेकेदार
शामिल थे जो बनाने में ,
उसकी माँ को गुनहगार
माँ ने लुटा कर खुद को ,
जिस बीज को था सींचा
हो कर बड़ा उसी ने ,
दामन था अपना खींचा
करती थी माँ रुदन यूँ,
दिल हो रहा था छलनी.
गुनाह दूसरे का लेकिन ,
सजा मुझको
क्यूँ थी मिलनी !!!!
बहुत सापेक्ष है किसी का गुनाहगार होना या न होना. एक है कानून, एक है समाज और एक है प्राकृतिक न्याय.
भारत में चूँकि अभी तक हम पुराने अंग्रेजों के ज़माने के कानूनों को लिए बैठे हैं, आज के दिन वेश्यावृति गैरकानूनी है, इसलिए आज का कानून उस महिला को गुनाहगार कहेगा. यह बात और है कि कानून में बदलाव आता रहता है, हाल ही मैं समलैंगिक संबंधों के विषय में जो फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दिया और कानून का निर्वचन कुछ हद तक बदला. पहिले हिन्दू ला में एपिलेप्सी (मिर्गी) एक आधार था तलाक का, आज नहीं क्योंकि कानून को बदला गया.
समाज की बात आती है तदुपरांत. व्यवस्था के तहत समाज ने बहुत से नियम, टैबूस और डॉगमॉस खड़े कर दिए. समाज के नाम पर बहुत से ठेकेदार कभी कभी शासन करने लग जाते है. जहाँ तक बात भाषण एवम व्यवहार करने की बात आती है समाज के ठेकेदार वर्जनाओं एवम समाज के अधिकारों को समाज के कर्तव्यों एवम दायित्वों की तुलना में बहुत अधिक प्राथमिकता देते हैं. कर्तव्यों एवम दायित्वों की तो बस बातें ही होती है, करना धरना कुछ नहीं. शराबी जिम्मेदार बाप पर समाज कोई एक्शन नहीं लेगा, बच्चे की परवरिश के लिए समाज कोई भी स्कीम नहीं रखेगा हालाकिं मजबूर माँ के लिए उसकी झोली में दोषारोपण, दंड आदि सब कुछ रहेगा. विडम्बना है.
प्राकृतिक न्याय को देखिये, इश्वर/अस्तित्व/सुप्रीम पॉवर/योग-संयोग ने उस लड़के के पालन पोषण और दुनियावी विकास के लिए एक रास्ता मुहैय्या करा दिया. अगर उस औरत का 'एक्ट' गुनाह का होता तो क्या इश्वर उसे उसी समय नहीं सजा दे देता, रोक देता. हमारे हृदयों में बैठे परमात्मा को हम सुला कर, बस अपनी ही 'कंडीशंड ' नज़रों से देख रहे हैं. समाज का अगर कोई रोल होता तो उन पुरुषों पर तुरत कुछ एक्शन लेता जिन्होंने उस औरत की देह को खरीदा और तुरत कुछ अल्टरनेटिव व्यवस्था औरत और उसके बेटे की देखभाल के लिए करता. कितनी विचित्र स्थिति है यह ?
मेरे व्यक्तिगत विचारों में उस महिला ने कोई गुनाह नहीं किया, जो हुआ सहज स्वाभाविक था उन हालातों में. उसने अपने व्यक्तिगत हुकूक का इस्तेमाल किया, हाँ उसने एड्स आदि से बचने का प्रिकाशन ज़रूर लिया होगा, नहीं तो इस आस्पेक्ट पर अवेयरनेस होनी चाहिए, जो समाज मुहैय्या करा सकता है.
मुदिता जी,
बहुत मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना है.......ये इस देश में सदियों से हो रहा है....पता नहीं कौन सा वो शुभ दिन होगा जब हमारा समाज स्वस्थ हो सकेगा?
आपकी इस रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई|
aapko padhne ka lobh........
sach bahut sundar likhte hain aap!
aapko padhne ke liye antaratma aur aatmsamman ko kisi bhi tah tak le sakta hun!
Pranaam!!
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