शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

नूर-ए-इलाही

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उगा
है
सूरज
मुस्काता सा,
हवा की
छुअन
है लिए
हलकी सी
गर्माहट,
महक रही है
फ़िज़ा
गुलों के
खिलने से,
बना रही है
माहौल
खुशनुमा
परिंदों की
मीठी चहचाहट..
रोम रोम
हो रहा है
स्पंदित,
सुन कर ये
किसके
कदमों की
आहट ..!!!
ना हूँ महज़
मैं ही खुश
झूम रही
कुदरत भी,
रोशन है
सारा आलम
नूर-ए-इलाही से,
जर्रे ज़र्रे में
झलकती
उसकी ही
सजावट !!


6 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण प्रवाहमयी प्रस्तुति..

बेनामी ने कहा…

मुदिता जी,

सिर्फ एक लफ्ज़ है मेरे पास......सुभानाल्लाह........एक शेर याद आ गया है-

मालिक तू ही तू रहे, बाकि न मैं रहूँ न मेरी आरज़ू रहे,
जब तक तन में जान, रगों में लहू रहे,तेरा ही ज़िक्र तेरी ही जुस्तजू रहे,

daanish ने कहा…

अनुपम शब्द ..
अनूठा काव्य ...
बहुत सुन्दर मनोहारी प्रस्तुति ....

The Serious Comedy Show. ने कहा…

कहर देखा तेरा तेरी नवाज़िशे देखीं,
कोई दो चार दिन हम भी तेरे मेहमान रहे.

Anupama Tripathi ने कहा…

रोशन है
सारा आलम
नूर-ए-इलाही से,
जर्रे ज़र्रे में
झलकती
उसकी ही
सजावट !!

ईश्वर की महानता अपरम्पार है -
सुंदर सोच -
शुभकामनायें