######
रहता है
परस्पर
आकर्षण,
होते हैं ध्रुव ,
विपरीत
जब तक ....
नहीं होता
परिवर्तित,
चुम्बक का
उत्तरी ध्रुव,
कभी
दक्षिणी ध्रुव में..
होता है
संतुलन
और
प्रवाह
चुम्बकीय क्षेत्र का
दोनों ध्रुवों के
मौलिक गुणों के
समानुपात के कारण...
नहीं कहता
गुलाब
जूही से
"मैं हूँ
फूलों का राजा
इसलिए
खिलना होगा
तुमको भी
गुलाब हो कर .."
फिर क्यूँ!!
हो गया है
प्रकृति के
प्रतिकूल
मात्र मानव ही!!
नर और नारी
हैं जैसे दो ध्रुव ,
भिन्न हैं
किन्तु
असमान नहीं ..
सदियों के
अनुकूलन ने
भर दी है
हीनता
स्वयं
नारी के ही
मन में...
होता यशगान
नारी का ,
करती यदि
वह
पुरुष सम कार्य ..
गा गा कर
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी "
चढ़ाई जाती
मालाएं
इन पुरुष सम
नारियों की
मूर्तियों पर...
वहीं कोई
पुरुष कर देता
व्यवहार
यदि
प्रेम और करुणा से
ओतप्रोत
तो उड़ाई जाती
खिल्ली उसकी
स्त्री
कह कह कर ..
केंद्र में
पुरुष के
होती महत्वाकांक्षा,
स्त्री है
केंद्र
प्रेम का ...
विलय
दोनों का ही
आवश्यक
पाने को
संतुलन
सृष्टि का ...
देख कर
समाज में
वाहवाही
पुरुषों की ,
अपना बैठी है
नारी
आत्मघाती
प्रवृति को ...
पाने को सम्मान
पुरुषों के समकक्ष,
भूल बैठी है
अपने नारीत्व की
अभिव्यक्ति को ...
नहीं है
जरूरत
होने की हमें
पुरुषों के समान..
करनी है हमें
बस
अपने अस्तित्व की
पहचान ....
करना है
अस्वीकार
स्वयं को
होने से संपत्ति
किसी की ,
देना है
अपने क़दमों को
प्रेम के
धरातल का
सुदृढ़ आधार ...
होगा तभी
संतुलन सृष्टि का ,
मिलेगा
एहसासों को
जब
समान अधिकार ....
रहता है
परस्पर
आकर्षण,
होते हैं ध्रुव ,
विपरीत
जब तक ....
नहीं होता
परिवर्तित,
चुम्बक का
उत्तरी ध्रुव,
कभी
दक्षिणी ध्रुव में..
होता है
संतुलन
और
प्रवाह
चुम्बकीय क्षेत्र का
दोनों ध्रुवों के
मौलिक गुणों के
समानुपात के कारण...
नहीं कहता
गुलाब
जूही से
"मैं हूँ
फूलों का राजा
इसलिए
खिलना होगा
तुमको भी
गुलाब हो कर .."
फिर क्यूँ!!
हो गया है
प्रकृति के
प्रतिकूल
मात्र मानव ही!!
नर और नारी
हैं जैसे दो ध्रुव ,
भिन्न हैं
किन्तु
असमान नहीं ..
सदियों के
अनुकूलन ने
भर दी है
हीनता
स्वयं
नारी के ही
मन में...
होता यशगान
नारी का ,
करती यदि
वह
पुरुष सम कार्य ..
गा गा कर
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी "
चढ़ाई जाती
मालाएं
इन पुरुष सम
नारियों की
मूर्तियों पर...
वहीं कोई
पुरुष कर देता
व्यवहार
यदि
प्रेम और करुणा से
ओतप्रोत
तो उड़ाई जाती
खिल्ली उसकी
स्त्री
कह कह कर ..
केंद्र में
पुरुष के
होती महत्वाकांक्षा,
स्त्री है
केंद्र
प्रेम का ...
विलय
दोनों का ही
आवश्यक
पाने को
संतुलन
सृष्टि का ...
देख कर
समाज में
वाहवाही
पुरुषों की ,
अपना बैठी है
नारी
आत्मघाती
प्रवृति को ...
पाने को सम्मान
पुरुषों के समकक्ष,
भूल बैठी है
अपने नारीत्व की
अभिव्यक्ति को ...
नहीं है
जरूरत
होने की हमें
पुरुषों के समान..
करनी है हमें
बस
अपने अस्तित्व की
पहचान ....
करना है
अस्वीकार
स्वयं को
होने से संपत्ति
किसी की ,
देना है
अपने क़दमों को
प्रेम के
धरातल का
सुदृढ़ आधार ...
होगा तभी
संतुलन सृष्टि का ,
मिलेगा
एहसासों को
जब
समान अधिकार ....
10 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…………तभी संतुलन संभव है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…………तभी संतुलन संभव है।
बहुत शशक्त रचना है आपकी...मेरी बधाई स्वीकारें
नीरज
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ है!
बेहतरीन अभिव्यक्ति!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
उत्कृष्ट ।
आपकी एक टिप्पणी से प्रेरित हो कर एक रचना लिखी है, देखिएगा!
http://mathurnilesh.blogspot.com/2011/01/blog-post_09.html
चमन में इख्तालाके रंग-ओ-बू से बाट बनती है,
तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो,
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं.
बेहद खूबसूरत रचना..
वंदना जी ,नीरज जी ,निलेश जी ,दिव्या जी ,अरुणेश जी एवं हर्षवर्धन जी ..आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया
हर्षवर्धन जी .. आपने बहुत खूबसूरत शेर प्रस्तुत किया है मेरी रचना के पूरक के तौर पर ...धन्यवाद
रहता है
परस्पर
आकर्षण,
होते हैं ध्रुव ,
विपरीत
जब तक ....
नहीं होता
परिवर्तित,
चुम्बक का
उत्तरी ध्रुव,
कभी
दक्षिणी ध्रुव में..
होता है
संतुलन
और
प्रवाह
चुम्बकीय क्षेत्र का
दोनों ध्रुवों के
मौलिक गुणों के
समानुपात के कारण...
chumbakiya guno ke saath nari aur purush ko rakh kar kya sandaaar rachna kari hai aapne...sach me aapke soch ko salam!!
waise bhi bin nar aur nari ke prithvi par jeevan sambhav hi nahi hai..:)
एक टिप्पणी भेजें