बंजर सी धरती पे
क्यूँ बरसाए नेह का सावन
कठोर है धरा
बीज तक ना पंहुचेगा तेरा आवाहान
प्रेम के हल से करी जुताई
बीज धरा में तूने बोया
नम अँखियों से सींचा उसको
व्यर्थ प्रतीक्षा में ना सोया
देख धरा पे कुछ त्रिन हैं
स्वतः ही जनम हुआ है उनका
सहज स्वाभाविक अवसर पा कर
उदगम नैसर्गिक हुआ है उनका
ना शोक मना तू बांझ धरा का
तूने करम किया स्व पूरा
जितना मिलना लिखा भाग्य में
वो नहीं मिलेगा कभी अधूरा
ले आनंद उन्ही त्रिनो का
कन कन प्रतिकन ही तो जीवन है
हर क्षण को सींच प्रेम अँसुअन से
यही मनुष्य सार्थक जीवन है
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