रविवार, 24 मई 2009

betabi

कैसा सरूर है ये,कैसी है बेताबी
दस्तक होने से पहले दिल धड़क उठता है

और उठ जाती हूँ मैं खोलने दर को
दूर तक घूम के नज़रें फिर
लौट आती हैं दीवार पर लगी घड़ी की तरफ
जो बिना किसी बेताबी के अपने नियमों में बंधी
सुकून से चलती रहती है....

क्यूँ मैं इस घड़ी की तरह
वक़्त से बेपरवाह हो कर नहीं चल सकती
क्यूँ जीवंत पलों को वक़्त की सीमाओं में बांधा है मैंने..
ये बेताबी ये बेचैनी सब स्वतः ही घुल जायेंगे
जीने लगूं गर मैं पल दर पल...
घड़ी के सेकेंड के कांटे की तरह .....

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