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कहते ही मेरे
कि
होना चाहती हूँ मैं
"स्वयं" में ..
बिना किसी के
साथ के ..
उतर आये थे
प्रश्नचिन्ह
ढेरों
नज़रों में
तुम्हारी
और
गुजर कर
नज़रों से
बिखर गए थे
तुम्हारे
चेहरे पर
छुप गयी थी
पहचान
तुम्हारी
उन प्रश्नचिन्हों के पीछे..
असंख्य
प्रश्नचिन्हों के मध्य
बन गया था
अस्तित्व तुम्हारा
जैसे स्वयं एक प्रश्न ...
"क्या मेरे भी बिना ???"
क्यूँ
स्वीकार नहीं लेते
कि मैं हूँ
एक अस्तित्व
"स्वतंत्र"
तुम्हारे बिना भी ..
हैं हम साथ
क्यूंकि
किया था
कुछ अपनों ने
निर्धारित,
जीते हैं
साथ
ये जीवन
करते हुए
कर्तव्य पूरे
अपने
जो अपेक्षित हैं
उन्ही अपनों के द्वारा,
बिना जाने बूझे
एक दूसरे के
अस्तित्व को ....
स्वयं को जाने बिना
कैसे जान सकती हूँ
मैं तुम्हें
या
तुम मुझे !!!
खोजने को
स्वयं की पहचान
नहीं चाहिए
बंधन
समाज द्वारा
निर्धारित किये
मानकों का
ना ही चाहिए लाठी
ओढ़े हुए रिश्तों की ...
बाहरी व्यवस्थाओं से
निर्बाध हो
जीना चाहती हूँ
सिर्फ और सिर्फ मैं
अपने अंतरंग में
कुछ लम्हे
एक नारी हो कर ....
दिया -लिया है
कई सालों
हमने
एक दूजे को
बहुत कुछ
किन्तु !!
पहचानने को
स्वयं का अस्तित्व
चाहिए एक
खुला आकाश
और
एक
विस्तृत सोच
जो देना चाहती हूँ
तुम्हें और
मांगती भी हूँ
तुमसे
बस यही..
बस यही...!!!!
`
कहते ही मेरे
कि
होना चाहती हूँ मैं
"स्वयं" में ..
बिना किसी के
साथ के ..
उतर आये थे
प्रश्नचिन्ह
ढेरों
नज़रों में
तुम्हारी
और
गुजर कर
नज़रों से
बिखर गए थे
तुम्हारे
चेहरे पर
छुप गयी थी
पहचान
तुम्हारी
उन प्रश्नचिन्हों के पीछे..
असंख्य
प्रश्नचिन्हों के मध्य
बन गया था
अस्तित्व तुम्हारा
जैसे स्वयं एक प्रश्न ...
"क्या मेरे भी बिना ???"
क्यूँ
स्वीकार नहीं लेते
कि मैं हूँ
एक अस्तित्व
"स्वतंत्र"
तुम्हारे बिना भी ..
हैं हम साथ
क्यूंकि
किया था
कुछ अपनों ने
निर्धारित,
जीते हैं
साथ
ये जीवन
करते हुए
कर्तव्य पूरे
अपने
जो अपेक्षित हैं
उन्ही अपनों के द्वारा,
बिना जाने बूझे
एक दूसरे के
अस्तित्व को ....
स्वयं को जाने बिना
कैसे जान सकती हूँ
मैं तुम्हें
या
तुम मुझे !!!
खोजने को
स्वयं की पहचान
नहीं चाहिए
बंधन
समाज द्वारा
निर्धारित किये
मानकों का
ना ही चाहिए लाठी
ओढ़े हुए रिश्तों की ...
बाहरी व्यवस्थाओं से
निर्बाध हो
जीना चाहती हूँ
सिर्फ और सिर्फ मैं
अपने अंतरंग में
कुछ लम्हे
एक नारी हो कर ....
दिया -लिया है
कई सालों
हमने
एक दूजे को
बहुत कुछ
किन्तु !!
पहचानने को
स्वयं का अस्तित्व
चाहिए एक
खुला आकाश
और
एक
विस्तृत सोच
जो देना चाहती हूँ
तुम्हें और
मांगती भी हूँ
तुमसे
बस यही..
बस यही...!!!!
`
6 टिप्पणियां:
bahut badiya rachna
सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई
पहचानने को
स्वयं का अस्तित्व
चाहिए एक
खुला आकाश
और
एक
विस्तृत सोच
जो देना चाहती हूँ
तुम्हें और
मांगती भी हूँ
अस्तित्व की सच्ची खोज....
Hi..
Man ke manthan se upji..
Kavita main antardwandw dikha..
Us se hai chhutna chaha..
Jis se hai sambandh dikha..
Bhale milaya ho logon ne..
Par wo to hai sang tere..
Ek paksh bhi na mane jo..
Aisa ek anubandh dikha..
Eshwar kare kavita matr kalpana hi ho..
Deepak..
@ Deepak ji,
Kaviyon ka to apako pata hai yatharth aur kalpnaon ka tana baana hi bunte hain... jo likha hi wo yatharth hai jeevan ka... lekin jaroori nahin aap beeti ho... yah astitv ki talaash har kisi ko ek na ek din yah kehne pr badhy karti hai.. lekin aap rachna ki gehrayi ko shayad nahin smajhe... yahan alag hone ki baat nahin kahi hai.. sirf swayam ke saath hone ki baat kahi hai..aur aisa bilkul bhi nahin ki koi agar swayam ke saath hona chahe to use doosron ko chhodna hoga....:)...ek baar jara vistrit soch ke saath padhiye ye rachna...
जायज माँग है दी,
स्वस्तित्व का होना बहुत आवश्यक है, स्व के होने के लिए.. और स्व है तो ही हैं बाकी नाते और उनका नेह.
अस्तित्व रहे..बढे..प्रखर हो, आपकी आँखों के बनास में निखरा रहे :)
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