सोमवार, 16 अगस्त 2010

मंज़िल का मेरी हो एहसास...

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चलते चलते
उजाड़ राहों पे
हो रहे थे
पाँव शिथिल
उखड़ रही थी
सांस...
बेतरह
सूख रहा था
गला
लगी थी कैसी
प्यास...
नहीं था कोई
आसार पानी का
दिखती ना थी
छाँव की भी
आस...
अचानक
मिल जाना
तुम्हारा,
भर गया
मुझमें
कैसा
विश्वास....
बढ़ चली
उत्साहित
हो मैं,
भूली
कंठ सोखती
प्यास...
चले हैं
हम
साथ यूँ जैसे
जुडी है
एक दूजे से
अपनी
साँस...
छाँव भी
तुम हो
जल भी
तुम ही,
तुम ही
मंजिल का मेरी
हो
एहसास.......

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