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सजा
लिए हैं
कांच से भी
नाज़ुक
ख़्वाब
पलकों पे
मैंने
अपनी ....
तपिश
लबों की
तुम्हारे
करती है
पुख्ता इनको...
हो जाते हैं
ये पारदर्शी
और
बेहद सुन्दर
जैसे
निखर
आता है
कांच
तपन को
सह कर ....
जागती
आँखों के
ये ख़्वाब
नींद भी तो
आने नहीं देते
इन
आँखों में
अब
ख़्वाब
बदलें
हकीक़त में
तो
शायद
सो पाऊं
सुकूँ से
मैं भी .....
सजा
लिए हैं
कांच से भी
नाज़ुक
ख़्वाब
पलकों पे
मैंने
अपनी ....
तपिश
लबों की
तुम्हारे
करती है
पुख्ता इनको...
हो जाते हैं
ये पारदर्शी
और
बेहद सुन्दर
जैसे
निखर
आता है
कांच
तपन को
सह कर ....
जागती
आँखों के
ये ख़्वाब
नींद भी तो
आने नहीं देते
इन
आँखों में
अब
ख़्वाब
बदलें
हकीक़त में
तो
शायद
सो पाऊं
सुकूँ से
मैं भी .....
4 टिप्पणियां:
आशु आशु ....सुन्दर कविता
मुदिता जी...
आँखों के
ये ख़्वाब
नींद भी तो
आने नहीं देते
इन
आँखों में
अब
ख़्वाब
बदलें
हकीक़त में
तो
शायद
सो पाऊं
सुकूँ से
मैं भी .....
वाह क्या खूबसूरत अहसास है....
जो न सोये हैं ख्वाबों से...
उनके ख्वाब अलग होंगे...
प्रश्न जो होंगे उनके मन में...
वो जवाब अलग होंगे....
दीपक....
बहुत सुन्दर आशु कविता ....पर फिर वही एक प्रश्न ...ख्वाब हकिकात बन जायेंगे तो फिर ख्वाब नहीं रह जायेंगे :):)
ख्वाब का अपना मजा है .. सबकुछ हकीकत नहीं हो सकता .. अच्छी अभिव्यक्ति !!
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