ताक पर
रख कर
सोचों को
अपने...
करते जाना
समर्थन
प्रिय की
बात का ,
नहीं है
प्रेम सहज
अपितु
बन जाता है
कारन
अंतर्घात का ...
प्रेम नहीं
इक जैसा
होना ,
प्रेम तो है
बस
सच्चा
होना ..
हो
स्वीकार
अस्तित्व
प्रिय का,
किन्तु
निज का
अस्तित्वन खोना
अंतर
सोचों में
होता जब
विकसित
दोनों ही
होते हैं
खुले हृदय से
जाने समझे
नहीं
दूसरे को
ढोते हैं...
नहीं
विसंगति
प्रेम की
दुश्मन
गर मन
से सम्मान
करो तो ..
"तुम -मैं"
"मैं -तुम'
भेद छोड़ के
'हम" को ही
स्वीकार
करो तो ......
2 टिप्पणियां:
एक शब्द में कहूँ...??? सत्य..
एक और शब्द में कहूँ??... सत्य..
और फिर कुछ ढूँढूं तो फिर से वही...सत्य!!!
:)
बहुत सुन्दर रचना...
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