शनिवार, 21 अगस्त 2010

भावों के इस कर्षण में

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कमी कहाँ रह जाती साजन
मेरे सहज समर्पण में
बीज प्रेम का खो जाता है
भावों के इस कर्षण में ....

नारी मन की सहज भावना
कैसे समझाऊं तुम को
नहीं मुखर ये शब्द हैं मेरे
नैनो से बतलाऊं तुम को
अनबोली भाषा किन्तु ना
सुनी जाए इस घर्षण में
बीज प्रेम का खो जाता है
भावों के इस कर्षण में ....

हो जाता अवरुद्ध प्रवाह भी
हर शै बोझिल हो जाती है
नदी भी जैसे बाँध के कारण
मिथ्या स्थिर हो जाती है
नहीं सुहाता बिम्ब भी अपना
जब जब देखूं दर्पण में
बीज प्रेम का खो जाता है
भावों के इस कर्षण में ....

2 टिप्‍पणियां:

Deepak Shukla ने कहा…

मुदिता जी...

सहज समर्पण बाँध है लेता...
प्रियतम को मन के अर्पण में...
प्रियतम की ही छवि है दिखती...
झांकें जब मन के दर्पण में....

जिसको है सर्वस्व न्योछावर...
शब्द उसे क्या बतलाने हैं...
नयनों की भाषा जो मुखर हो...
दिल के भाव क्या समझाने हैं...

जो दिल में है बसता तेरे...
दिल के बात भी वो जानें...
भले नहीं वो बोल रहा पर...
तुझको अपना वो माने....

उसके मौन पे जाओ न तुम...
प्रेम सुधा वो पीता होगा...
तेरे अर्पण में वो समाहित...
करके खुद को जीता होगा....

सुन्दर कविता....

दीपक.....

खोरेन्द्र ने कहा…

prithak nahi ab ham do

bahut sundar bhav

ekakaar ho chukane kii
sampurntaa ka bhav


bahut sundar