गुरुवार, 12 अगस्त 2010

घूंघट..(आशु रचना )

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वधु संभाले,रूप की गागर
छलकत जाए घूंघट से..
सलज हंसी की खनक कहो
कैसे रुक पाए घूंघट से ....

उमंग तो मन की छल छल छलके
रोम रोम से बन्नी के
नज़रें बोझिल .कम्पित हैं लब
झाँक रहे जो घूंघट से.....

हाथों का कंगना भी खन खन
बज उठता हर धडकन पर
नथनी डोल रही साँसों पर
चमक दिखाती घूंघट से ....

स्वपन अनगिनत हृदय संजोये
मंथर गति से आन रही
प्रियतम द्वार खड़े हैं आ कर
उन्हें निहारे घूंघट से ........

4 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

sundar rachna achhi lagi badhai

Mithilesh dubey ने कहा…

बढिया लगी अभिव्यक्ति ।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

sundar rachna

Deepak ने कहा…

मुदिता जी...

घूँघट का वृतांत सुहाना...
हर क्षण इसका मान अलग...
प्रियतम संग अगर होते तो..
हो इसकी पहचान अलग...

दीपक....