गुरुवार, 12 अगस्त 2010

अँधेरा ...(आशु रचना )


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एहसासों की कब्र बनी थी
मन में छाया घोर अँधेरा
दफ़न भले ही पर जिन्दा थे
मान्यताओं का लगा था पहरा

तेरे नूर की बारिश से फिर
बह गयी मिटटी उघड़ी परतें..
चीर के घोर अँधेरे को फिर
रौशन हुई अनजान हसरतें

सोचा समझा जाना निज को
भेद गहन फिर खुल के आया
उनकी मौत से पहले ही क्यूँ
एहसासों को यूँ दफनाया

ऐसा जीवन क्या जीवन है!!
जिसमें जीवित दफ़न हो कोई
आँख खुली और निद्रा टूटी
अब तक बेसुध क्यूँ थी सोयी!!

जीवन के चलते ही दीपक
जला लूं अंतर्मन का अपने
जिन्दा एहसासों को जी कर
जी लूं अपने सारे सपने .......



2 टिप्‍पणियां:

Deepak Shukla ने कहा…

Hi...

Bin Ahsaason ke man aisa...
bin saanson ke jeevan jaisa...
Kaise tumne dafan kiya tha...
nirnay aakhir kiya kyon aisa...

Humko ab tak chubhe dikhe hain...
Tere man main ye hi shool...
Asaason ko dafan kiya jab...
Kari kyon tumne aisi bhool...

Ab nav deep jalao kitne...
guzra vakt kay aayega...
tere bheetar mara hai jo kuchh...
kya jinda ho paayega...?

Par koshish jo aap kar rahe...
Usme tere sang sada...
Raah andheri chahe kitni..
"Deepak" ye bhi sang chala..

Deepak...

mai... ratnakar ने कहा…

जीवन के चलते ही दीपक
जला लूं अंतर्मन का अपने
जिन्दा एहसासों को जी कर
जी लूं अपने सारे सपने .......

AAMEEN!!! nice writting