मंगलवार, 31 अगस्त 2010

चले आओ ,चले आओ......

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तुम्हें दिल ने पुकारा है
चले आओ ,चले आओ...
ना तरसाओ ,ना तड़पाओ.
चले आओ, चले आओ

हवा भी हो के निश्चल
सुन रही है ,टूटती सांसें
नज़र भी थक रही है
छोड़ ना बैठे कहीं आसें
है नाज़ुक दिल बहुत मेरा
जरा इस पर तरस खाओ
चले आओ ,चले आओ.....

खनक मेरी हंसी की
खो गयी जाने कहाँ जानां
रुके पलकों पे ,ना सीखा
यूँही अश्को ने बह जाना
हुई गुम मैं कहीं खुद में
मुझे तुम मुझसे मिलवाओ
चले आओ ,चले आओ......

ये मौसम ये हवाएं
छेड़ते हैं जब मेरी अलकें
तभी तुम चुपके आके
मूँद लेते हो मेरी पलकें
हकीक़त में बदल दो
ये तस्सवुर ,अब ना भरमाओ
चले आओ ,चले आओ......

4 टिप्‍पणियां:

दीपक बाबा ने कहा…

अंतर्मन के अच्छे शब्द मिले है.........
इनको पिरोकर - सुंदर कविता बनी है.

चले आओ...... चलो आओ. ....

बेनामी ने कहा…

bahut khub....
har ek pankti lajawab...

rashmi ravija ने कहा…

ओह्ह ये तो बड़ा प्यारा नगमा है..बहुत खूब

rashmi ravija ने कहा…
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