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तेरी
निगाहों का
ये,
मदमाता
एहसास है
हुई
मदहोश
जिसमें,
मेरी
हर इक
सांस है..
मानिंद
शोलों की ,
भड़कते हुए
जज़्बात मेरे
आसां
नहीं
बुझाना,
जानां !!
ये ,
रूह की
प्यास है ...
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और उसने कुछ यूँ कहा :
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प्यास प्यास
होती है
जानां..
रूह की भी
जिस्म की भी...
प्यास में
जुड़ती है
जब आस
और
हो जाते
महसूस
एक दूजे के
एहसास,
प्यास
खुद बा खुद
बन जाती है
सांस...
2 टिप्पणियां:
मुदिता जी...
रूह की प्यास भी बुझती....
जो प्रियतम संग हो...
प्यास मृगतृष्णा रहे...
जो मन में न उमंग हो...
गर समर्पण कोई कर देता ...
कहीं मन प्राण से...
रूह की भी प्यास बुझती...
मन के इस निर्वाण से...
सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
दीपक...
jugalbandi...achhi lagi.
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