दिल की बेचैनी निगाहों से बयाँ होने लगी
गुफ़्तगू कुछ यूँही अपने दरमियाँ होने लगी
अश्क तो दिल में गिरे थे, फिर असर ये क्या हुआ?
क्यूँ नमी पलकों पे आकर के अयाँ होने लगी
अल सवेरे से ही उसने ख़्वाब को परवाज़ दी
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी
ज़िंदगी के रास्ते ,ले कर चले हैं किस तरफ
दिन गुज़रता हैं कहाँ और शब कहाँ होने लगी
तेरी हसरत में रहे हम ,सोच ना पाए कभी
इश्क की राहों में क्यूँ,नाकामियाँ होने लगी
हमसफ़र हो तुम तो मेरा दिल बहुत मग़रूर है
धडकनें बेताब हो कर बदगुमाँ होने लगी
है अँधेरा जीस्त के हर मोड़ पर तो क्या हुआ
रौशनी मेरी नज़र की अब वहाँ होने लगी
6 टिप्पणियां:
दिल की बेचैनी निगाहों से बयाँ होने लगी
गुफ़्तगू कुछ यूँही अपने दरमियाँ होने लगी
वाह वाह क्या बात है...बहुत सारे अहसास उभर आए हैं..इस ग़ज़ल में...बढ़िया अभिव्यक्ति.
मुदिता जी बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने...सारे शेर लाजवाब हैं...मेरी दिली दाद कबूल करें...
नीरज
khubsurat........bahut hi achchhi lagi saree gazlein :)
अल सवेरे से ही उसने ख़्वाब को परवाज़ दी
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी
एक और खूबसूरत रचना बधाई
bahut khub mudita ji,,,
maan gaye aapko to...
behtareen....
अल सवेरे से ही उसने ख़्वाब को परवाज़ दी
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी
पूरी गज़ल बहुत खूबसूरत ....:):)
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