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निरंतर
खोजती हूँ
खुद को
क्या हैं मेरी
चाहते
आशाएं
सपने ...
गुज़र चुकी है
वो रुपहली उमर
होते हैं दिन
जब सोने के
और
चांदी की रातें
सुना है ऐसा मैंने..
सोने की तपन
और
चांदी की शीतलता
महसूस किये बिना
भीगे काष्ठ सा ही
सुलगता रहा
ये तन
और
मन मेरा ..
फिसलते जा रहे हैं
पल यूँ वक़्त के
जैसे मुठ्ठी से रेत ....
रेत का अंतिम कण
फिसलने से पहले
एक बार ,
बस एक बार ,
ज़िन्दगी !!!!
मिलवा दे
मुझको
मुझी से तू .....
2 टिप्पणियां:
सोने की तपन
और
चांदी की शीतलता
महसूस किये बिना
भीगे काष्ठ सा ही
सुलगता रहा
ये तन
भीगे काष्ठ सा ...अच्छा बिम्ब है ...
मन के द्वंद को खूबसूरती से लिखा है ...
और हाँ तुम्हारी चिंदिया में कौन हिस्सा बांटता
...:):)
जब लिख रही थी तो यह भी याद आ रहा था ...पर तुमको बचाने के लिए झूठ तो कई बार बोला न .. :):)तुम ही डांट पड़वा देतीं थीं .. हा हा हा ..
रेत का अंतिम कण
फिसलने से पहले
एक बार ,
बस एक बार ,
ज़िन्दगी !!!!
मिलवा दे
मुझको
मुझी से तू .....
nihshabd !
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