शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

बरसात ....


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एक नाज़ुक सा
स्पर्श
एक स्नेहिल
निगाह
मन से मन की
छुअन
एक गर्माहट का
एहसास ..
काफी है ,
अवसाद के बादलों को
बरसाने के लिए ....
बरसात के बाद
निखरा निखरा सा
ये समां ...
पेड़ कुछ ज्यादा
हरे
आसमां कुछ ज्यादा
नीला
मन की सूखी धरती
भीग उठती है
इस बरसात में
और
इस गीली धरती
में
खिलते हैं फूल
हमारी
चाहतों के
हमारे
प्रेम के
और
हो जाते हैं
दिन
फिर
खुशगवार से
रातें
शायराना सी ....

1 टिप्पणी:

कुमार संतोष ने कहा…

बहुत ही सुन्दर कविता

http://santoshkumar.tk/