गुरुवार, 23 सितंबर 2010

स्वच्छंद सहचर

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उस दरख़्त की
सबसे ऊंची
टहनी पर
रुके थे कभी
हम तुम ..
ठहर गए थे
सांस लेने को
उड़ते उड़ते
असीम
आकाश में

तुम्हारी
मासूम नज़रें
अधखुली चोंच
और
कांपते हुए पंख...
समेट लिए थे
मैंने
अपनी
नन्ही छाती में ...
दुबक गयी थी
तुम भी
भूल कर
आकाश के
असीम
विस्तार को..
समा गयी थी
मेरे पंखों में
महसूस कर
उनकी
गर्माहट को
पलों में
जी लिया था
हमने
जन्मों को जैसे ..
किन्तु इर्ष्यालू था
वह साथी चिड़ा...
उड़ते हुए
आ बैठा
सीधा
हम दोनों के
मध्य
करते हुए
तीव्र आघात ...
संभाल नहीं पायी
वह नाजुक सी टहनी
वह
अप्रत्याशित
प्रहार ...
छूट गयी
मेरे पंजों से
वह धरती
जिस पर
बो रहा था
मैं
अपनी
मोहब्बत के
बीज ....
लड़खड़ा के
संभला मैं ,
उड़ते हुए
देखा था
तेरी ओर
और
विवशता
तेरी नज़रों की
भांप
उड़ चला था
अनजानी दिशा को
गर्वोन्मत चिड़ा
बढ़ा था
तेरी ओर
अपनी विजय पर
इतराते हुए
किन्तु
क्षुब्ध सी
तू भी
उड़ चली थी
किसी
अनजानी दिशा में

कुछ पलों का
वह साथ
देता है
प्रेरणा
उड़ने की
मुझको
कि
फिर
किन्ही लम्हों में
सांस लेने रुकेंगे
हम तुम
ऐसी ही किसी
टहनी पर


और जन्मों से देखो..
उस दरख़्त की
वो शाख
लचकती है
आज भी ,
उन पलों की
मादकता में
करते हुए
इंतज़ार
फिर
किन्ही
हम जैसे
स्वच्छंद सहचरों का ....



2 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

संजय भास्‍कर ने कहा…

आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
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