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संजो प्रीत सागर की मन में
सहेज अंश उसका निज तन में
दूर दूर तक उड़ के जाना
पूरब से पश्चिम अपनाना
कभी सिमटना कभी बिखरना
कभी बरसना कभी छितरना
नहीं बंधे हो तुम बंधन में
क्षुब्ध नहीं होते क्रंदन में
क्या होती तुमको भी प्रीत
कहीं मिला तुमको क्या मीत
जहाँ था चाहा तुमने रुकना ?
किसी की अलकों में जा छुपना ?
किन्तु नियति नहीं तुम्हारी
तुम उड़ते हो दुनिया सारी
ठहर भला कैसे जाओगे
कैसे प्रीत में बंध पाओगे
तुमने बस देना ही जाना
तप्त धरा की प्यास बुझाना
कभी प्रचंड सूरज से लड़ कर
छाया बन जाते हो बढ़ कर
पल पल रूप है यूँ अनजाने
आवारा सब तुमको माने .......
5 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी रचना
बहुत खूब्।
मन में आये विचारों को शब्दों से पिरो कर अच्छी कविता बनाई आपने.
बढिया.
बहुत बढ़िया !!
बेहतरीन रचना...वाह...
नीरज
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