शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

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ना जाने मुझको आज सजन
तुम याद बहुत क्यूँ आते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

धड़कन धडकन में गूँज रही
बातें मुझसे जो कहते थे
अक्षर अक्षर में डोल रही
जिस प्रीत में हम तुम बहते थे
पढूं तुम्हें या मैं लिख दूं
हर गीत में तुम रच जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

लम्हों में युग जी लेते थे
कभी युग बीते ज्यूँ लम्हा हो
मैं साथ तेरे तन्हाई में
तुम बीच सभी के तन्हा हो
दिन मजबूरी के थोड़े हैं
तुम आस यही दे जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

हर सुबह का सूरज आशा की
चमकीली किरने लाता है
सांझ की लाली में घुल कर
इक प्रेम संदेसा आता है
सूरज ढलने के साथ ही तुम
बन चाँद मेरे आ जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो .......

1 टिप्पणी:

आनंद ने कहा…

पढूं तुम्हें या मैं लिख दूं
हर गीत में तुम रच जाते हो
........
मैं साथ तेरे तन्हाई में
तुम बीच सभी के तन्हा हो
..
kini dur tak baha sakte ho aap bhavnaon me ? koi or chhor nahi hai.
atul gahrayi hai aapki kaviton me.