शनिवार, 31 जुलाई 2010

नदिया.....

नदिया..

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पिघल पिघल कर जल से अपने
जग की प्यास बुझाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

चिर बहना ही जीवन इसका
दूर दूर तक जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

ले कर अपनी लहरों के संग
किसे कहाँ पहुंचाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

जिस तट को भी ये छू कर गुज़रे
हरा भरा कर जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

कूड़ा कचरा जग वालों का
बहा संग ले जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

प्रिय मिलन की उत्कंठा में
पल भर न सुस्ताती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

करे यात्रा युगों युगों तक
तब सागर को पाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती




6 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

अच्छी अभिव्यक्ति ,सुंदर रचना ।

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

मन की गहराइयों में डूब कर गहरी अनुभूतियों को प्रतीक के माध्यम से सार्थक अभिव्यक्त प्रदान करती एक सशक्त रचना. संवेदनशीलों के लिए गहरी नहीं, तो नदिया की तरह उपेक्षित......, कचरा बहाने की चीज. स्वागत है इस रचना के लिए. जागे रहिये और जगाते रहिये, यही जीवन की सार्थकता और उपयोगिता है.

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....

PAWAN VIJAY ने कहा…
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PAWAN VIJAY ने कहा…

touching lines

sanu shukla ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति ....!