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लगने लगे हैं चेहरे अब अजीब अपने
भुलाएं कैसे उसे,दिल के जो करीब अपने
गिरा है वक़्त के पहलु से वो हसीं लम्हा
जुड़े बेतार थे जिससे कभी , नसीब अपने
किस का हो सहारा इस दर्द-ए-जिगर को
लदे हैं कांधों पे खुद सबके, सलीब अपने
इश्क का फलसफा समझ आएगा कैसे
ढूंढते हैं किताबों में उसे अदीब अपने
हो न जाए जुम्बिश नज़रों-औ -लबों की
बज़्म में बैठे हैं जानां कई रक़ीब अपने
पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने
1 टिप्पणी:
नमस्कार जी...
पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने
वाह....
सुन्दर ग़ज़ल....
दीपक...
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