शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जीवन का अंकगणित ...

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जीवन के इस अंकगणित में
इधर उधर क्यूँ जोड़ घटाना
अहम को खुद से घटा घटा के
है अभीष्ट बस शून्य को पाना

क्रोध ,अहम,ईर्ष्या द्वेष सब
जब घट जाते मन से प्राणी
शुरू प्रक्रिया पूजन की होती
विधि नहीं ऐसी कोई जानी

निर्मल मन प्यारे ईश्वर को
जिनमें कलुषित भाव न कोई
जोड़ करो सच्चे भावों का
दया प्रेम करुणा जो होई

करो विभाजित दुःख दूजे का
गुणन करो निज सुख का रब से
जितना सुख अंतर में होगा
बाँट पाओगे वो ही सबसे

हर विचार को घटा दो मन से
लोभ ,मोह, इच्छा हैं जो भी
शून्य को पाना है गर तुमको
करों गुणन स्वयं शून्य से तुम भी

शून्य सम जब हो जाओगे
ईश समा जायेंगे तुममें
बन जाओगे बंसी उनकी
स्वर फूटेंगे उनके जिसमें



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6 टिप्‍पणियां:

Ra ने कहा…

जीवन के सत्य को दर्शाती आपकी यह रचना ..अत्यंत सुन्दर और ,,,,तारीफ़ के काबिल है जो कितना कुछ समेटे हुए है ...एक शब्द में कहा जाए तो मैं इसे 'अदभुत' कहना चाहूँगा .....श्रेष्ठ सृजन..!!!

Deepak Shukla ने कहा…

नमस्कार...

कविता से तेरी है सीखा..
जीवन में क्या जोड़ घटना...
किस से किसका गुणन है करना...
किस से किसका भाग लगाना...

गणित की शिक्षक पता था हमको..
अब पाया अध्यात्म संग में..
आज दिखे तुम अलग बहुत ही..
दिखे हमें ईश्वर के रंग में...

सुन्दर भाव...सुन्दर कविता...

दीपक..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कोशिश करेंगे ...पर दुरूह कार्य है....

सुन्दर रचना

Avinash Chandra ने कहा…

bahut khubsurat ganit :)
madhut sa.. :)

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार

http://charchamanch.blogspot.com/

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत अच्छी बात कही है आपने...काश इसे हर कोई समझे...लाजवाब रचना ...बधाई...
नीरज