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चित्र बनाया मेरा जब भी
हर अपने पराये ने
थी हैरान मैं देख विविधता
खुद अपने ही साये में
कोई चित्र न मेरे जैसा
हुआ भ्रम ये कैसा सबको
साम्य नहीं उनमें भी कोई
था अचरज ये भी तो मुझको
दी तस्वीर थी सबको अपनी
जो मैंने निज की जानी थी
पर खींचा खाका सबने जो
सोच सभी की अनजानी थी
देखी फिर तस्वीर जो अपनी
राज़ ये मुझ पर खुल के आया
चित्र नहीं ,वो एक आईना
इसीलिए था जग भरमाया
जिसने देखा उसकी जानिब
अक्स खुद ही का उसमें पाया
उसी अक्स को समझ के मेरा
चित्र मेरा मन में उतराया
समझ गयी जब बात ये गहरी
मन हल्का जैसे हो आया
विचलित होना व्यर्थ है मित्रों
किसने हमको कैसा पाया ......!!!!!
7 टिप्पणियां:
बहुत सशक्त अभिव्यक्ति....जो जैसा होता है वैसा ही अक्स दूसरे में दिखाई देता है.....सुन्दर रचना ...बधाई
Hi...
Chitr bhale kaisa hi ho par...
man main ek akruti hoti...
khaka vaisa kheenchte sab hain...
dil main jo anukruti hoti..
baaton se jo bhapte dil ko...
unka chitron se kya kaam..
chitr bina bhi wo kar sakte...
apne saathi ki pahchan!!!!
Sundar abhivyakti..hamesha ki tarah...
Deepak...
aakhiri do lines...jhannaat hain ekdam..sab kuchh isi me paa liya maine
जिसने देखा उसकी जानिब
अक्स खुद ही का उसमें पाया
उसी अक्स को समझ के मेरा
चित्र मेरा मन में उतराया
बस यही तो बात है....बहुत सशक्त तरीके से कह डाला...
speechless ..awaysome
rythem ,shabd ,bhaav ,or vichar har lihaaj se ek utkrist kavita .
yakinan kabil-e-daad
kubool karen
ittifaq se Blogger संगीता स्वरुप ji ki kavita balatkar par aapka comment padhkar apke blog tak aana hua ...lekin nirash nahi huaa .aapka lekhan har unchaai kopaar karen aisi kaamna karte hai
शानदार अभिव्यक्ति!
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