सुगंध मेरी माटी की ..
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आते ही करीब
जन्मभूमि के
सिमट आई
उर में
सोंधी सी महक
उठ रही है जो
मेरी अपनी
माटी से ....
सहला रही है
भीगी सी
ठंडक लिए
हवा
गालों को मेरे
ज्यूँ मिली हो
सालों बाद
माँ अपनी
बेटी से...
आकाश का
नीलापन भी
है कुछ
अलग सा
यहाँ का ,
हरीतिमा
जंगल की
कितनी
पहचानी सी है..
साल
और
सागौन के पेड़
जैसे
पूछ रहे हैं
मुझसे
हो गयी तू
क्यूँ इतनी
बेगानी सी है ..??
नए हैं पत्ते
सागौन के
जिन्होंने
देखा भी नहीं
कभी मुझे
लेकिन
उनके भी
स्नेह की
वही है
ठंडी छाँव ..
महक,
गीली मिटटी
और
हरे पत्तों की
करने को
आत्मसात,
बरबस ही
ठिठक जाते हैं
मेरे पांव.....
भले ही
बन गयी हैं
ढेरों इमारतें
किन्तु ,
धान के
खेतों के बीच
बना
दूर कहीं
दिखता
वो एक घर,
कराता है
एहसास मुझे ,
किसी
अनदेखे ,
अनजाने
फिर भी
अपने
के होने का
वहाँ पर ...
पहचाने से
पर्वतों के बीच
दिखता
वो नन्हा कोना
शुभ्र हिमालय का,
ज्यूँ
दिला रहा है
यकीन
मुझको ,
मेरे
शाश्वत
पितृ-आलय का
आम
और
लीची के
बागों में
खिला बौर
झूम उठा है
मुझको देख कर
लगता है
मुझे ऐसा भी ...
नहीं लगता
मुझे
कुछ भी
अजनबी
इस शहर में
बदल जाए
बाह्य रूप
चाहे इसका
कैसा भी ..
आ कर
गोद में
अपनी
जननी की
सोच रही हूँ
भीगी पलकों से...
कैसे कह बैठी थी मैं
परायी हो
अपनी माटी से,
कि अब वहां
मेरा कोई नहीं ...!!
आते ही करीब
जन्मभूमि के
सिमट आई
उर में
सोंधी सी महक
उठ रही है जो
मेरी अपनी
माटी से ....
सहला रही है
भीगी सी
ठंडक लिए
हवा
गालों को मेरे
ज्यूँ मिली हो
सालों बाद
माँ अपनी
बेटी से...
आकाश का
नीलापन भी
है कुछ
अलग सा
यहाँ का ,
हरीतिमा
जंगल की
कितनी
पहचानी सी है..
साल
और
सागौन के पेड़
जैसे
पूछ रहे हैं
मुझसे
हो गयी तू
क्यूँ इतनी
बेगानी सी है ..??
नए हैं पत्ते
सागौन के
जिन्होंने
देखा भी नहीं
कभी मुझे
लेकिन
उनके भी
स्नेह की
वही है
ठंडी छाँव ..
महक,
गीली मिटटी
और
हरे पत्तों की
करने को
आत्मसात,
बरबस ही
ठिठक जाते हैं
मेरे पांव.....
भले ही
बन गयी हैं
ढेरों इमारतें
किन्तु ,
धान के
खेतों के बीच
बना
दूर कहीं
दिखता
वो एक घर,
कराता है
एहसास मुझे ,
किसी
अनदेखे ,
अनजाने
फिर भी
अपने
के होने का
वहाँ पर ...
पहचाने से
पर्वतों के बीच
दिखता
वो नन्हा कोना
शुभ्र हिमालय का,
ज्यूँ
दिला रहा है
यकीन
मुझको ,
मेरे
शाश्वत
पितृ-आलय का
आम
और
लीची के
बागों में
खिला बौर
झूम उठा है
मुझको देख कर
लगता है
मुझे ऐसा भी ...
नहीं लगता
मुझे
कुछ भी
अजनबी
इस शहर में
बदल जाए
बाह्य रूप
चाहे इसका
कैसा भी ..
आ कर
गोद में
अपनी
जननी की
सोच रही हूँ
भीगी पलकों से...
कैसे कह बैठी थी मैं
परायी हो
अपनी माटी से,
कि अब वहां
मेरा कोई नहीं ...!!
9 टिप्पणियां:
अपनी माटी और अपनी माटी की खुश्बू कौन भूल पाता है..बहुत मर्मस्पर्शी रचना..
per wo apni si bilkul apni si yaaden to hain n
बहुत प्यारी और भाव पूर्ण रचना ...कब गयीं तुम देहरादून ? बताया भी नहीं :(:(
मुदिता जी,
अति सुन्दर ....बचपन के गलियारों कि और ले जाती है ये पोस्ट ...प्रशंसनीय |
माटी का अपनत्व
और
माटी का मातृत्व
कितना मोहक, कितना सुन्दर वर्णन :)
मुदिता जी.....जज़्बात पर आपकी टिप्पणी का तहेदिल से आभारी हूँ.....अज़ल और अजल में फर्क का मुझे पता नहीं था....आपने इस और ध्यान दिलाया इसका शुक्रिया आगे से ध्यान रखूँगा......रही बात नाम की तो मेरे ब्लॉग में सबसे ऊपर लिखा है शायद आपने ध्यान नहीं दिया ....इस दहलीज़ पर सिर्फ जज्बातों की अहमियत है नामों की नहीं.....हो सके तो नामों से ऊपर उठें और जज्बातों में डूबिये......आपने खुद कहा यहाँ मैं खुद भी लिखता हूँ पर क्या आपको कहीं मेरा नाम लिखा दिखा? ......नहीं न....
अगर ग़ज़ल में कहीं तखल्लुस का इस्तेमाल हुआ है तो वो ज़रूर आएगा.......और यकीन जानिए मैं इसका श्रेय नहीं लेता......मेरा मकसद सिर्फ इतना है की हम तेरा और मेरा से हटकर रचना में मिहित जज्बातों पर गौर करें......आप मेरे ब्लॉग के बारे में पढेगी तो मैंने ये सब वहां पहले ही लिखा हुआ है .........एक बार फिर से शुक्रिया आपका....
मुदिता जी आपने माटी से अपने जुड़ाव को बहुत शिद्दत से लफ़्ज़ों में ढाला है... मेरी बधाई स्वीकारें
नीरज
मुदिता जी,
हर कदम आपकी रचनाएँ महसूसती है जीवन को , आपके शब्द सच में धड़कते हैं, हमरे देश का दुर्भाग्य है की आप जैसे कलम के और भावों के धनि को कभी पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता मगर आप सच में युगों तक रहेंगी इस धरती पर इन शब्दों के द्वारा.
आपका एक प्रशंसक !
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