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देह आँगन की देहरी पर
थी धुनें कुछ ठहरी ठहरी
रुक गयी थी धमनियों में
अति अबूझ सी स्वर लहरी....
आरोह अवरोह का क्रम
था कुछ यूँ बहका बहका
ऐसे में अंदाज़-ए-महफ़िल
हो कैसे चहका चहका....
पकड़ूँ "सा" तो लग जाता
"प" किसी अन्य ही सप्तक का,
बिखर जाते सुर मतवाले
सुन स्वर बेगानी दस्तक का...,
छिड़े थे तार मेरे दिल के
जब सुना था पहली बार तुझे
सफ़र सप्तकों का जीवंत
धड़कनें करा रही थी मुझे..
छुआ था तुम्हारे स्पंदनों ने
बस कर मेरे ही मस्तक में
सधी सरगम उस पल स्वत:
अनजाने मध्य ही सप्तक में....
छिड़ गई रागिनी शनै: शनै:
थे बहके हम फ़िज़ाओं में
बन संगीत अनोखा तुम
समा गये हो मेरी शिराओं में....
ख़र्ज, मन्द्र ,मध्य,तार में भटका
मन मयूर हुआ चंचल चलायमान
पाया तुम को संग साज़ ओ' आवाज़
मधुरिम राग हुआ था विद्यमान.....
घुल गए थे हम और घटित हुआ
तारतम्य सुर और गीत का
व्याप्त हुआ अस्तित्व में
कोई तराना दिव्य संगीत का....
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