बुधवार, 19 मई 2010

संदेसा पवन का...


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ले के आई पवन संदेसा
पिया तेरे जब आवन का
जेठ की तपती धरती पर ज्यूँ
बादल बरसा हो सावन का

महक उठा मन तन उपवन सा
खिले मोगरा और जूही
चहक उठी हर डाल पे चिडियाँ
संगीत बना मेरा " तू " ही
रोम रोम हर्षित मेरा है
दरस होगा मनभावन का
जेठ की तपती धरती पर ज्यूँ
बादल बरसा हो सावन का


सोंधी माटी की खुशबु ज्यूँ
साँसों को महकाती है
आस मिलन की तपते मन को
ठंडक सी पहुंचाती है
सपनो में हर रोज जिया
अब साथ मिलेगा साजन का
जेठ की तपती धरती पर ज्यूँ
बादल बरसा हो सावन का



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1 टिप्पणी:

Deepak Shukla ने कहा…

नमस्कार॥

जेठ की तपती दुपहरी में याद जो साजन की आती...

मन के आँगन बरखा रिमझिम बरस के सावन हैं लाती...

याद जो आती है सजन की, सोते सपने जगें कई...

दिल की हर एक आह अश्रु सी आँखों में है बस जाती...



सुन्दर कविता...

दीपक...