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मचल
उठती हूँ
मैं
साथ
होने को
तुम्हारे ..
और
बुजुर्गाना
अंदाज
में तुम
करा देते हो
एहसास
मेरे
बचपने का..
समेट लेती हूँ
सब
आकांक्षाएं
और
शरारतें..
ओढा
देती हूँ
चादर भी
उन्हें
परिपक्वता की ..
किन्तु !!...
मेरे भीतर
बसी
वह
नन्ही सी
बच्ची
जो
बचपन की
मासूमियत
कैशौर्य की
अल्हड़ता
और
यौवन की
मस्ती को
जीना
चाहती है..
यकायक प्रौढ़
नहीं होना
चाहती ...!
मचल
उठती हूँ
मैं
साथ
होने को
तुम्हारे ..
और
बुजुर्गाना
अंदाज
में तुम
करा देते हो
एहसास
मेरे
बचपने का..
समेट लेती हूँ
सब
आकांक्षाएं
और
शरारतें..
ओढा
देती हूँ
चादर भी
उन्हें
परिपक्वता की ..
किन्तु !!...
मेरे भीतर
बसी
वह
नन्ही सी
बच्ची
जो
बचपन की
मासूमियत
कैशौर्य की
अल्हड़ता
और
यौवन की
मस्ती को
जीना
चाहती है..
यकायक प्रौढ़
नहीं होना
चाहती ...!
2 टिप्पणियां:
:) :)
खूबसूरत भावात्मक रचना
Hi..
Antar ki wo chhoti bachchi..
Badi kabhi na hogi gar..
Man ko vah se door karen aur..
Dil se sada sochengi agar..
Vay se jyada man ka asar hota hai na..
Sundar kavita..
DEEPAK..
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