एक पुरानी रचना कुछ संशोधनों के साथ पेश कर रही हूँ
सुनी है बिन आहट, उस दस्तक पर ऐतबार है
अहद-ए-वस्ल हुआ नहीं ,फिर भी इंतज़ार है
गुज़रा यूँ हर लम्हा ,तस्सवुर में तेरे जानां
बेकरारी के पहलू में ज्यूँ मिल गया करार है
एहसास मेरे महके ,ज्यूँ तेरे कलामों में
साँसों से तेरी छू कर , रों रों मेरा गुलज़ार है
कहें ना कहें , सुन लेते हैं हम बातें दिल की
निगाहों की है गुफ़्तगू ,लफ़्ज़ों की ना दरकार है
बज़्म में मेरी, नहीं काम इन खिज़ाओं का
हर लम्हा खिलती यहाँ मौसमे - बहार है
ना सुनेगा जो तू ,तेरे लिए लिख छोड़े थे
पेशे-खिदमत ज़माने को मेरे अशआर है
फ़र्क मेरी डोली तेरे जनाज़े में नही है ज़्यादा
तुझे भी मुझे भी ले जाते चंद कहार है
डूबे हैं इश्क़ में ,नहीं फ़िक्र हमें साहिल की
हमें तो मुबारिक बस मोहब्बत की मझधार है
मीठा सा दर्द है मोहब्बत की चुभन का तन में
दुनिया समझी है उसे ,कि गुल नहीं वो खार है
लबों को सीना मजबूरी सही ए जानम
सुन ख़ामोशी मेरी, मोहब्बत का ये इज़हार है
2 टिप्पणियां:
.....,,.,जनाजे मे कोई फर्क नही.,..,,.,कहार है ।
बहुत अच्छा लिखा है . लाजबाब ।
नमस्कार
है मुहब्बत तुम्हें जिस से भी इतनी ज्यादा....
वो मुहब्बत तो तुझसे भी करता होगा...
भले न देता हो तेरे अशारों पे दाद तुझे ...
दिल ही दिल तुझपे तो मरता होगा...
wo tumse खामोश मोहब्बत करता होगा....
दीपक..
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