रविवार, 14 अक्टूबर 2018

एकमेव

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दी है दस्तक
हौले से
ब्रह्ममुहूर्त में ,
शरद ने
दर पे वसुधा के ..

भीगी सी हरीतिमा
घुल गयी है
साँसों में मेरी
महकाते हुए
मन प्राण मेरा ...

है प्रयासरत
प्रथम रवि-किरण
भेदने को
किला कुहासे का ....

लपेटे हुए
चादर धुंध की
कर रहे हैं
वृक्ष
उद्घोषणा
शीत के आगमन की..

धुंध और हरियाली
हलके से उजास में
जैसे कर रहे हों
प्रतिबिंबित
मेरे ही
हृदय  के भावों  को ..

एक नम सी अनुभूति
बिछोह की तेरे
पा कर विस्तार
मेरे अंतस से,
मानो पसर गयी है
ओस बन कर
कण कण पर,
और
यूँ हो गयी हूँ
एकमेव मैं
प्रकृति से
अस्तित्व से .......

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद