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एक सुकोमल छुअन
अनदेखी अनजानी सी
रूह की गहराइयों में
लगती कुछ पहचानी सी
पिघला रही है वजूद मेरा
हो गयी सरस तरल मैं....
यह पहचान स्व-सत्व की
आह्लादित मुझको किये है
गिर गए मिथ्या आवरण
जो सच समझ अब तक जिये है
कुंदन करने तपा के निज को
हो गयी पावन अनल मैं....
पुष्प खिल उठा अंतस में
हुआ सु-रंग मेरा अस्तित्व
रौं रौं में सुवास प्रसरित
नहीं किंचित अन्य का कृतित्व
निःसंग हो पंक प्रत्येक से
हो गयी ब्रह्म कमल मैं....
प्रस्फुटित है हास्य निश्छल
स्वयं से और गात से
पल प्रति पल रहती प्रफुल्लित
बात या बिन बात के
उलझावों से मिली है मुक्ति
हो गयी सहज सरल मैं....