शनिवार, 9 अक्टूबर 2021

बहुत कठिन है ....


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(होम मेकर्स के रोल को लेकर चर्चाएं होती है, यह रचना  कुछ पहलुओं को शब्दों में पिरोने का प्रयास है...विषय इससे भी कहीं अधिक विस्तृत और गहन है)

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इतना आसान कहाँ था

गृहिणी हो जाना

ईंट गारे की दीवारों को

घर में बदलना

नए परिवेश में 

स्वयं की पहचान बनाना

शब्दों से परे व्यवहार से

विश्वास जमाना

अपनी काबिलियत का

भरोसा दिलाना

आसान कहाँ था 

एक अपरिचित का 

हमसफ़र हो जाना...


पहली पीढ़ी के 

जीवन मूल्यों को 

सम्मान दिलाना

पुरानी नयी सोचों में 

सामंजस्य बिठाना

चार पीढ़ियों का 

एक छत तले होने का 

सौभाग्य पाना

आसान कहाँ था 

सबकी लाड़ली हो जाना.....


बच्चों के बचपन में

खुद जी जाना

डगमगाते क़दमों की 

दृढ ज़मीन बन जाना

नन्हीं सी दृष्टि को 

आकाश दिखाना 

उड़ने में पंखों की 

ताक़त बन जाना 

आसान कहाँ था 

नयी पौध के लिए

प्रेरक हो जाना...


बाहरी लोगों की बातों से

खा कर चोट 

कभी खुद ही की 

उलझनों का घोट

अवसाद कभी 

तो कभी विफलता

भय भी कभी 

गर न मिली सफलता 

हर स्थिति में 

पति व बच्चों का साथ निभाना

मन की सुनना और समझाना 

आसान कहाँ था 

मनोचिकित्सक हो जाना ...


सीमित चादर में 

पैर फैलाना

अपनी शिक्षा 

व्यर्थ न गंवाना

कर उपयोग ज्ञान का 

निज कार्य की संतुष्टि पाना

परिणामस्वरूप घर में

योगदान अतिरिक्त आय का करना

लगा लगाम फिजूलखर्ची पे 

बचत निवेश से 

समृद्धि लाना 

आसान कहाँ था 

वित्त मंत्री का पात्र निभाना ....


बीच व्यस्त इन सबके भी

खुद को न बिसराना 

गीत संगीत और

लिखना पढ़ना

शौक सभी पूरे कर पाना

परवाह औरों की 

कर सकने ख़ातिर

पहले खुद की परवाह करना

स्वीकर तहे दिल से निज भूलें

क्षमा चाहना 

क्षमा भी करना 

आसान कहाँ था 

'स्वयं हो जाना ....


सच कहती हूँ 

आसान कहाँ था गृहिणी हो जाना

बहुत कठिन है 'होममेकर 'होना

सोमवार, 26 जुलाई 2021

तेरे सुर और मेरे गीत

 

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सुर तेरे

जो सज न सके

गीत मेरे

जो रच न सके

बिखरे बिखरे

जीवन प्रांगण में

इस मन के 

सूने आंगन में...


छेड़ तान तू

साज़े दिल पर

ऐसी कोई 

कम्पन पा कर

जग जाएं आखर 

छलक उठे हृदय पात्र से

प्रीत जो सोई खोई...


हो तरंगित 

अनाहत अपना

रूह छेड़े

फिर राग भी अपना,

विलग ना हों फिर 

मैं और तुम

हम में सब 

हो जाए गुम...


वही तरंगे हों 

प्रसारित

ऊर्जा अपनी हो 

विस्तारित

कण कण थिरकन 

प्रेम की हो

नहीं भावना 

भरम की हो...


सार्थक हो फिर 

साथ ये अपना

सच हो 

सुंदर धरा का सपना

सज जाएं फिर 

सुर तेरे भी

रच जाएं फिर 

गीत मेरे भी...


पूरन हो 

मधुर मिलन की रीत

खिल जाए 

फिर अपनी प्रीत 

तेरे सुर और मेरे गीत  

दोनों मिल बन जाएं मीत ...!!!

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

सावन.

 

प्रारंभ  सावन का 
उभार देता है 
एक गीत  हृदय के 
अंतरतम तल में, 
जुबां तक आते आते
कर जाता है अवरुद्ध
कण्ठ को ,
बजाय प्रस्फुटित होने 
अधरों से 
बहने लगते है बोल 
नयनों से मेरे......

"अब के बरस भेज 
भैया को बाबुल
सावन में लीजो
बुलाय रे........"

कौन बुलाये 
अब सावन में 
नैहर ही जब 
छूट गया है 
देह छोड़ने संग 
बाबुल के 
रिश्ता सबसे 
टूट गया है ...

लगता है किन्तु 
ज्यूँ ही सावन 
चपल चपल 
हो उठता है मन,
खुश होता 
अल्हड किशोरी सा 
खिल खिलाता
चन्दा और चकोरी सा .......

वो आँगन में 
आम की शाख पे 
पड़े  झूले पर 
पींगे  बढ़ाना
हलकी रिमझिम की
फुहारों  में भीग 
सिहर सिहर जाना
पटरियों के जोड़े पर
सखियों संग 
उल्लास भरे 
गीत गाते 
ऊंचा  और ऊंचा 
उठते जाना ...

कल्पनाओं से निकल 
छलकते प्यार का 
सजीव हो जाना 
किसी साथी का गीत 
बरबस ही 
जुबान  पे आ जाना
"मेरी तान से ऊंचा  तेरा झूलना  गोरी ...."

मेहँदी की महक 
कोयल की चहक 
पायल की छन छन 
चूड़ियों की खन खन 
दुप्पटे की सरसराहट
दबी दबी खिलखिलाहट  
घेवर  की मिठास 
सखियों संग मृदुल हास 
आँखों में मदमाते सपने
पल पल साथ रहे थे अपने....

दिखता नहीं 
यह मंजर 
अब सावन के 
आने पर ,
गुज़र जाते हैं 
दिन यूँही 
बैठ यादों के 
मुहाने पर .....

भागती हुई 
ज़िन्दगी ने 
ठहरा दिया है 
उल्लास को 
प्रकृति ने भी 
छोड़ कर संतुलन 
चुन लिया है 
ह्रास को  ....

गुजरे सावन सूखा सूखा 
भीग नहीं पाता
अब तन मन,
रौद्र रूप 
अपनाए बारिश 
डूबे प्रलय में 
जनजीवन .......

हो जाएँ हम थोड़ा चेतन
लौटा लें फिर से वो सावन ....