सोमवार, 23 अप्रैल 2012

तेरा तुझको उपहार हूँ .....


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मन के
सूने आँगन में ,
मधुर प्रीत
झंकार हूँ
जगती आँखों के
सपनो का ,
सत्य रूप
साकार हूँ

पाया कब औ'
कब खोया था !
गहन हृदय में ही
सोया था ,
छुपा रहा
नैनों से
अब तक
तेरा तुझको
उपहार हूँ
सत्य रूप
साकार हूँ

नज़्म कभी,
कभी गीत पुकारे
कलम से झरते
भाव तुम्हारे
प्रेम रंग से
सजा हुआ
इस भाषा का
श्रृंगार हूँ ,
सत्य रूप
साकार हूँ

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

सतत यौवन

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जिज्ञासा अज्ञात की
रखती जीवंत
प्रफुल्ल युवा चेतना,
देह नहीं
मानस पर निर्भर
वृद्धत्व बोध
और वेदना

भ्रम हमारा ,
जानने का
सख्त कर देता हमें
नित नूतन को
ना अपनाना
जीर्ण कर देता हमें ...

जो है जाना ,
जो है देखा
जो अभी तक
ज्ञात है
थम जाते क्यूँ
कदम वहीं पर ?
कितना कुछ
अज्ञात है ....!

घेरे रहता है हमें
अज्ञात हर पल
निराकार,
प्राण आंदोलित
क्यूँ ना होते
सुन के भी
उसकी पुकार....!

चाहिए साहस ,
गवेषण करने को
अज्ञात का ,
किन्तु
सुविधामय,
सुरक्षित
मार्ग है न
ज्ञात का ....!

क्यूँ बने हम
राम से ,
या कृष्ण से
या बुद्ध से
महावीर से !!
हैं अनन्य
जगत में हम
निज सत्व खोजें
धीर से ...


खोज करने में
है जोखिम ,
मान्यताएं ,
टूट जातीं
नित नए
आयाम दिखते
धारणाएं
छूट जातीं .....

साथ ना होता
किसी का
हो अकेले
इस राह तुम
स्व-विवेक
अनुकूल हो कर
चल पड़ो
बेपरवाह तुम ....

उत्साह
सीखने का हो
मन में,
साहस ,हृदय में
भरपूर हो ,
भीड़ का
अनुमोदन नहीं
एकाकी होना
मंज़ूर हो .....

तभी चेतना
निखर उठेगी
प्राण पुष्प
खिल जाएगा ,
उम्र ना होगी
हावी हम पर
सतत यौवन
मिल जाएगा .....

( To Be Young Means Living state of MInd -Thus said OSHO )


गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

वह पाती पीथल की...(भावानुवाद)

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(प्रस्तुत कविता राजस्थानी के मूर्धन्य कवि स्वर्गीय पदमश्री कन्हैया लाल जी सा सेठिया की प्रसिद्ध कृति ' पातळ'र पीथळ ' का सहज भावानुवाद है . ..ह़र भाषा का अपना प्रवाह होता है भावों के अनुसार इस प्रवाह को बनाये रखने हेतु कुछ सामान्य परिवर्तन अनुवाद करते समय किये हैं..जो इस कार्य की अपेक्षा थी...

भावों के चितेरे सेठियाजी की मूल कृति के समक्ष इस स्वान्तः सुखाय प्रयास का अस्तित्व एक पासंग समान भी नहीं है....यह तो बस एक विनम्र प्रयास मात्र है जिसमें बहुत सुधार की गुंजाईश है.....हाँ मैं अपने इस कार्य को करने के क्रम में बहुत प्रसन्न हूँ....प्रेरित हूँ. राजस्थानी भाषा को समझने में सहयोग करने के लिए विनेश जी की विनम्र आभारी हूँ ..उनके मार्गदर्शन के बिना यह कार्य संभव नहीं था ... कविवर की कलम, महाराणा प्रताप की आन-बान-शान और राष्ट्रभक्ति, पृथ्वीराज राठोड उर्फ़ पीथलसा की सूझ बूझ एवं राजपूताने की झुझारू एवं मेधावी संस्कृति को प्रणाम !)




वह पाती पीथल की...

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अरे घास की रोटी भी जब
बन बिलाव ही ले भागा,
नन्हा सा अमरसिंह चीख पड़ा
राणा का सोया दुःख जागा....

मैं लड़ा बहुत,मैं सहा बहुत ,
मेवाड़ी मान बचाने में,
नहीं रखी कमी रण में कोई
दुश्मन को धूल चटाने में...

जब याद करूँ हल्दी घाटी
नयनों में रक्त उतर आता,
दुःख-सुख का साथी चेतक भी
सोयी सी हूक जगा जाता...

पर आज बिलखता देखूं जब
मैं राज कुंवर को रोटी को,
विस्मृत मोहे धर्म क्षत्रियों का
भूलूँ मैं हिन्दुत्व की चोटी को...

महलों में कभी मनुहार बिना
पकवान ना खाया करता था
सोने की उजली थाली को
नीलम के पट्ट पे धरता था ....

जिसके चरण करते थे स्पर्श
फूलों के कोमल बिस्तर का ,
तरसे है भूखा प्यासा वो
कैसा यह कृत्य विधीश्वर का ...

सोच सोच दो टूक हुई
राणा की भीम बज्र छाती,
आँखों में आँसू भर बोला
लिखता मैं अकबर को पाती...

पर कैसे लिखूं दृष्टि में मेरे
अरावली हृदय सर्वोच्च लिए,
चित्तोड़ खड़ा पीछे मेरे
गौरव की ऊंची सोच लिए.....

मैं झुकूं कैसे यह आन मेरी
कुल के केसरिया बानों की,
मैं कैसे बुझूँ ! बन लपट शेष
आजादी के परवानों की....

पर फिर अमर की सुबकी सुन
राणा का जियरा भर आया
जाता हूँ शरण मैं दिल्ली की
सन्देश मुग़ल को भिजवाया....


राणा का कागज़ पढ़ कर बस
अकबर को स्वप्न सत्य लगता,
निज नयनों पर विश्वास नहीं
पढ़ पढ़ कर भी वह फिर पढता ...

क्या आज हिमालय पिघल गया
क्या आज हुआ सूरज शीतल,
क्या शेषनाग का सर डोला
ये सोच सम्राट हुआ था विकल...

तब दूत इशारे पर भागा
पीथल को बुलवाने हेतु,
किरणों सा पीथल आ पहुंचा
सब भ्रम मिटाने को अपितु ....

वो वीर बांकुरा पीथल तो
रजपूती गौरवधारी था,
क्षात्रधर्म का यह रक्षक
राणा का प्रेम पुजारी था...

बैरी के मन का काँटा था
बीकाणे का वह पूत कड़क,
राठोड कुशल रणविद्या का
समरूप दुधारे तेज खडग.....

शातिर सम्राट ने जानबूझ
घावों पर नमक लगाने को,
पीथल को तुरत बुलाया था
राणा की हार बताने को...

बांधा मैंने तू सुन पीथल !
पिंजरे में जंगली शेर पकड़,
सुन हाथ लिखा यह कागज है
फिरता तू कैसे अकड़ अकड़ ?

मर जा एक चुल्लू पानी में
क्यूँ झूठे गाल बजाता है,
प्रण भंगित है उस राणा का
यश भाट बना क्यूँ गाता है ?

मैं आज बादशाह धरती का
मेवाड़ी सिरपेच पगों में है,
अब मुझे बता किस राजन का
रजपूती खून रगों में है ?


पीथल ने जब कागज देखा
राणा की सही निशानी का,
धरती क़दमों से सरक गयी
आँखों में झरना पानी का ....

पर फिर तत्काल संभलते ही
कहा बात सरासर झूठी है,
राणा की पाग सदा ऊंची
राणा की आन अटूटी है ...

हो हुकुम अगर तो लिख पूछूं
राणा से कागज की खातिर,
पूछ भले ही ले पीथल
है बात सही बोला अकबर ...

आज सुना मैने कोई सिंह
सियारों के संग में सोयेगा,
और आज सुना है सूरज भी
बादल की ओट में खोएगा..

आज सुना है चातक ने
धरती का पानी पीया है,
आज सुना है हाथी भी
योनि स्वान की जिया है ..

सुना आज है पति रहते
विधवा होगी यह रजपूती,
आज सुना है म्यानों में
तलवार रहेगी अब सोती....

ह्रदय मेरा तो काँप उठा
मूछों के बल और शान गयी,
राणा को पीथल लिख भेजा
यह बात गलत है या है सही...


पीथल के अक्षर पढ़ते ही
राणा की आँखें लाल हुई,
धिक्कार मुझे मैं कायर हूँ
नाहर की एक ललकार हुई....

मैं प्यासा भूखा मर जाऊं
मेवाड़ धरा आजाद रहे,
मैं घोर उजाड़ों में भटकूं
अंतस में माँ की याद रहे....

मैं राजपूत का जाया हूँ
रजपूती कर्ज चुकाऊंगा,
शीश गिरे मेरी पाग नहीं
दिल्ली का मान झुकाऊंगा....

पीथल क्या क्षमता बादल की
जो रोके रवि उजियार को
सिंह का झपट्टा सह जो सके
वो कोख मिली क्या सियार को..

धरती का पानी पीया करे
चातक की चोंच यूँ बनी नहीं,
जो जीवन कुत्ते सा जिया करे
बात ऐसे गज की भी सुनी नहीं.....

इन हाथों में शम्शीर कड़क
कैसे बेवा हो रजपूती ?
म्यान नहीं रिपु सीनों में
तलवार मिलेगी अब सोती....

मेवाड़ धधकता अंगारा
आंधी में चम् चम् चमकेगा,
प्रयाण गीत की तानों पर
पग पग खडग यह खड्केगा...

रखना पीथलसा मूंछ ऐंठ
लहू का दरिया मैं बहा दूंगा,
मैं अथक लडूंगा अकबर से
उजड़ा मेवाड़ बसा दूंगा....

जब राणा का सन्देश मिला
पीथल की छाती हुई दूनी,
हिंदुत्व-सूर्य आलोकित था
अकबर की दुनियां थी सूनी ..


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रविवार, 8 अप्रैल 2012

तेरा होना है.....

तेरा होना है
ज़िन्दगी मेरी ,
देखना तुझको
बंदगी मेरी ,
तुझको
खो खो के
मैंने पाया है
अब मिटी जा के
तिश्नगी मेरी ...

यूँ सहेजा है
इक अनाम सा कुछ ,
के जैसे
आब-ए-शब
गुलों पे हो ,
ना लगे धूप
इस जहां की सनम
इससे कायम है
ताज़गी मेरी.....

संग अपना है
हर लम्हा हासिल,
जैसे लहरों के संग
रहे साहिल ,
तेरी नज़रों में
जो उजाला है
उससे रोशन है
तीरगी मेरी ...

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

पञ्च-तत्व आधार है ..........

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पंचतत्व आधार है
अनादि अनंत इस सृष्टि का
गुण अपना कर पंचतत्व के
अंतर मिट जाता दृष्टि का .....


नहीं मात्र यह देह बनी है
पञ्च तत्वों के मिलने से
होती है विकसित आत्मा
निजत्व में इनके खिलने से .....


धरें धैर्य साक्षात धरा सा
गगन समान हो विशालता
सीखें वायु से गतिमय रहना
जल सम हममें हो तरलता .....


अग्नि तत्व दृढ़ता देता
हर बाधा से पार करे
पंचतत्व सा हो स्वभाव जब
मनुज सहज व्यवहार करे .....


मौलिक स्वरुप यही हमारा
पंचतत्व आधार है ,
आकार विलय हो जाता इनमें
सत्य तथ्य निराकार है .....