शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बेज़ुबानों की संवेदना ...

कल रात घटित हुई एक सच्ची घटना पर आधारित....

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बेज़ुबानों की संवेदना....

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पूस की
ठंडी रात ,
हो रही थी
हलकी बरसात ..
टहलने
निकले थे हम
रात्रि भोजन के
पश्चात ...
करुण विलाप
श्वान शिशुओं का
अकस्मात
ठिठका गया
हमें ,
देखा
मेहंदी की बाड़
से सटी
नाली के किनारे
छ: नन्हे थे
जमे ..
पास जा कर
झाँका जो
नाली में ,
गिरा था
उन सा ही
एक नन्हा ,
असफल कोशिश
बाहर आने की
कर रहा था
वो तन्हा ..
उठा कर
हाथों से
उसे
रख दिया
बाकी शिशुओं
के साथ ..
मुड लिए
घर की तरफ
कि अब
हो जायेंगे
ये शांत...
किन्तु क्रंदन
सभी शिशुओं का
फिर भी रहा
जारी ...
नाली से निकला
शिशु
ज्यूँ कर रहा था
फिर गिरने की
तैयारी ..
दो बार रखा
उसे
नाली से परे
मेहंदी की बाड़
के भीतर ...
किन्तु
चला आता था
वह
नाली की ही ओर
रो रो कर ...
तभी हुआ
अन्य दिश से
नाली में
एक और
नन्हे का
आगमन..
देख कर
उसको
बढ़ा था
सब शिशुओं का
फिर रुदन ...
उठा उसे भी
बाड़ के भीतर
धरा
जब निज हाथ से
व्यक्त करने लगे
खुशी ,
शिशु
एक दूसरे को
चाट के ...
छू गयी
मेरे हृदय को
ये मूक सी
संवेदना ....
बस माह भर की
उम्र के
शिशुओं में
कितनी
वेदना !!!
एक भी साथी
घिरा था
खतरे में
जिस
दम तलक ...
जान जोखिम
में थी फिर भी
न था रहा
कोई पलट
आह!!
इंसानों की
फितरत में
क्यूँ इतना
स्वार्थ है !!
काश...
सीखे
बेज़ुबानों से ही
क्या परमार्थ है!!!

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

उस गुलमोहर के तले.....

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उस गुलमोहर के तले
बिता लें आज
फिर कुछ पल ,
मिले थे हम
जहाँ इक रोज़
पहले पहल ...

प्रथम निवेदन
प्रणय का
हुआ था
आँखों ही
आँखों में,
दौड़ गए थे
स्पंदन जिसके
गुलमोहर की
शाखों में ..

किया था
पुष्पों से
अनुमोदन
उसने
हमारे
प्यार का ...
साँसों में
अपनी है
ताज़ा,
एहसास
उस
ख़ुमार का ...

चलो ..!!
भूल कर
दुनिया की
अंतहीन
भागमभाग ,
हम चुरा लें
थोड़ी सी
उन
दग्ध
लाल फूलों से
आग ....

साक्षी बन
गुलमोहर
आशीष दे
इस साथ को ..
छुप के
पहलू में मेरे 
तुम
थाम लेना
हाथ को ...

तेरे माथे की
सलों को
मिटा दें
मेरी ये उंगलियां ...
हों प्रवाहित 
अधरों से मेरे 
तन में तेरे
बिजलियाँ ...

तन औ' मन 
गर क्लांत है तो 
ले ज़रा सा 
तू ठहर
भूल जा 
दुनिया के गम 
और 
जी ले 
खुद को एक पहर

हो उठे
हर कण में
झंकृत
सुर
कोई
संगीत का ...
छेड़ दें
अपने हृदय
बस राग
अपनी प्रीत का ...

भूल जाओ
तुम कहाँ हो
और
मैं भी हूँ कहाँ !!!!
द्वीप अपना
इक बना लें
भूल जाएँ ये जहाँ ....

इन्ही लम्हों से
गुज़र कर
खुद को हम
जी पायेंगे ....
दुनिया
कब छूटी है
किससे
जो हमीं
छुट पाएंगे ...

है हकीकत
साथ अपना
बाकी जीवन कर्म है
खुद की जानिब
लौट आना
ये ही
सच्चा धर्म है ......

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

अभिमान और अवमान ...


*****
अभिमान(अहंकार) और अवमान (तिरस्कार) ऐसी दो स्थितियां हैं जो बहुत से सामाजिक , मानसिक और शारीरिक अपराधों को जन्म देती हैं.. आत्मा के स्तर पर इनका उन्मूलन करते हुए आत्मिक संतुलन आवश्यक है.. इसीको आधार बना कर इन दोनों ही स्थितियों में आत्मिक हनन पर प्रकाश डालने की कोशिश करी है मैंने..कुछ कमी का इंगित या सुझावों का स्वागत है
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समझ श्रेष्ठ
औरों से
निज को
दम्भी हो जाता
इंसान ..
चाहे हरदम
मिले प्रशंसा
भले ही हो
मिथ्या
सम्मान ...
किंचित भी
हो कमी जो
इसमें ,
मान लेता
उसको
अपमान ...
बेहतर हो
कोई और
जो खुद से,
क्रोधित
हो जाता
अभिमान ....
आगे रहने को
फिर सबसे
बन जाता
कपटी
बेईमान ...
राह
सत्य की
छोड़ के पीछे,
पकड़ लेता
राहें
अनजान ....

यही हश्र
अवमान
है करता ,
खुद को
जान ना
पाता है ..
समझ
अयोग्य
स्वयं को
इन्सां,
दीन-हीन
बन
जाता है...
प्रतिभा
कुंठित
हो जाती है ,
पनप नहीं
वो
पाता है ...
आश्रय
अनीति का
है लेता ,
अन्याय से
न लड़
पाता है ...
खातिर
खुद
को
साबित
करने ,
कपटी भी
बन जाता है ...
छल,
पाखण्ड
खुशामद जैसे
हथकंडे
फिर
अपनाता है

विकृत मन के जटिल भाव हैं
अभिमान हो या अवमान
दोनों के चंगुल में विस्मृत
होता मानव का निज ज्ञान

रविवार, 19 दिसंबर 2010

"खैरख्वाह ".....

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हो जाते हैं
अकस्मात
प्रकट
कई अनजान
"खैरख्वाह"
बुरे हालातों में मेरे ...
लटके हुए चेहरों से
दिखा कर
संवेदना झूठी
होता है तुष्ट
'अहम् '
इन
तथाकथित मित्रों का ..
देता है
दुःख दूसरों का
राहत
उनकी खुद की
दयनीय ज़िन्दगी को ...
पाया है
सच्चे मित्रों को मैंने
सदैव
इर्द गिर्द अपने
बांटते हुए
हर पल ,
हर ख़ुशी ,
प्रफ्फुलित चेहरों से ..
देते हुए
हौसला मुझको
कदम दर कदम
और
मनाते हुए
उत्सव
सफ़लता के क्षणों का
साथ मेरे ......

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अक्स...


####


क्यूँ  हैं हम
मुखौटों के
प्रतिबिबों के बीच
धुंधलाते
आईने में
चेहरा अपना ....
धुल कर
आंसुओं से
होगा जब साफ़
आईना दिल का
दिखेगा तभी
मुस्कुराता हुआ
अक्स भी खुद का....


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

किससे कहे सुने बैरागन ...

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कान्हा ही गर
ना समझे जो
व्यथा नैन के
नीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....

रह रह कसक
हृदय में उठती,
नयनन बरसे
अश्रु जल..
बाट जोहती
अँखियाँ थक गयी,
लगे बरस जैसा
हर पल...
कब तक लोगे
श्याम परीक्षा,
मूक प्रेम के
धीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की ....

अधिकार नहीं
जाना है
तुमपे,
है नहीं
मानिनी
राधा सी....
प्रेम किया
बस अर्पण उसने,
न तुम्हें
कभी कोई
बाधा दी....
तुम हो एक
बहता हुआ
दरिया,
संग रहे वो
तीर सी ...
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....

मीरा का
यह प्रेम
अनोखा,
दुनिया
जय जय
गान करे...
अमृत में
ढल जाता
प्याला,
मीरा
जब
विषपान करे...
हुई मुक्त वो
डूब प्रेम में,
खुली गाँठ
ज़ंजीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....






गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सरमाया-ज़िंदगी का

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चांदनी रात में
नदी किनारे बैठे
मैं और तुम
निशब्द
लिए हाथों में हाथ
एकटक देखते हुए
लहरों पर
उतर आये
सितारों को
जिनकी चमक
है नज़रों में
हमारी ...
बहता है
मध्य हमारे
बस
मुखरित मौन
जिसकी संगति
दे रहा है संगीत
नदी की
कल कल का ...
यही लम्हे
सरमाया है
ज़िंदगी का मेरी
जब मैं बस 'मैं 'हूँ
तुम बस 'तुम ' हो
न मैं 'मैं हूँ
न तुम 'तुम' हो
दुनिया से
पृथक
दो अस्तित्व
हो उठे हैं
एकाकार
उस विराट में
खो कर
स्वयं को




मंगलवार, 30 नवंबर 2010

पथिक !! तू राह भटक मत जाना .....

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सफ़र है
लम्बा ,
मंज़िल
अनजानी ,
धीरज खो मत जाना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना

फूल खिलेंगे
अगर सफ़र में
संग * भी होंगे
कभी डगर में
भरमा तू मत जाना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना
(संग=पत्थर )

साथ मिले गर
राह में ऐसा
बंधन डाले
कोई भी कैसा
लिप्सा में डूब न जाना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना

सुन्दर दृश्यों को
तू जीना
प्रेम के अमृत को
भी पीना
लक्ष्य को मत बिसराना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना

राह में ऐसे
मोड़ जो आयें
साथी तुझको
छोड़ भी जाएँ
किंचित दुःख न पाना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना

हो पड़ाव
मनमोहक
कोई
जी लेना
हर इच्छा
सोयी
दमित न मन कर जाना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना

सहज
सरल
रहना
अभीष्ट है
साथ सदा
रहता वो
इष्ट है
भीतर है उसको पाना
पथिक !!
तू राह भटक मत जाना .....






सरगोशी.....

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रात की
ख़ामोशी में,
जगती
मेरी
तन्हाइयाँ...
बंद पलकों में
सिमटती ,
अनगिनत
परछाइयाँ ...
उन पलों में ,
नर्म सरगोशी
तेरी आवाज़ की...
छेड़ देती
जैसे
रग रग में मेरी
शहनाइयाँ .....



शनिवार, 27 नवंबर 2010

प्रेम का मूल्य

देवताओं के गुरु 'बृहस्पति ' का पुत्र 'कच' संसार में शंकराचार्य से अमर जीवन के रहस्य की शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त स्वर्ग लोक जाने को शंकराचार्य की पुत्री देवयानी से आज्ञा लेने आता है ॥वर्षों तक कठोर परिश्रम के उपरान्त उसका ध्येय बस देवलोक तक इस रहस्य को पहुँचाना है किन्तु वर्षों के साथ के कारन देवयानी और कच के मध्य प्रेम प्रस्फुटित हुआ जिसकी अनदेखी कर 'कच 'अपने उद्देश्य की पूर्ती कर स्वर्गलोक जाना चाहता है ।वर्षों की मेहनत को वह प्रेम पर बलिदान नहीं करना चाहता और देवयानी उसे प्रेम का मूल्य समझा देती है॥यह कहानी गुरुदेव रबिन्द्र नाथ टैगोर ने बहुत खूबसूरती से लिखी है..उसे ही आधार बना कर एक कविता की सृष्टि की है...सीमित शब्दों में उस खूबसूरती को समेटना बहुत कठिन था ..इतना छू गयी कहानी कि लिखे बिना रह नहीं पायी...प्रयास सफल रहा या असफल आप लोगों की प्रतिक्रिया से पता चलेगा ....

प्रेम का मूल्य -

पा कर गुरु से
रहस्य अमृत्व का
कच बहुत
हर्षाया था ..
देवयानी से
स्वर्ग गमन की
आज्ञा लेने
आया था ..

पूछा देवी ने
तब उससे
निज भावों का
वर्णन था..
नयनों से
संप्रेषित होते
हृदय भावों का
कंपन था ...

बोला कच-
मैं हूँ प्रतिज्ञ
देवों के सम्मुख
जाऊँगा
वर्षों तक जो
किया परिश्रम
क्या प्रेम पर
उसे गवाऊंगा

क्रुद्ध हो उठी
गुरु पुत्री
तत्क्षण-
"क्या मात्र
शिक्षा का
ही
मूल्य है !!!
नारी प्रेम
प्राप्य सृष्टि में
हो जाना ,
सदभाग्य
और
अमूल्य है ..."

शक्ति,
शिक्षा,
अर्जन हेतु
मनुज
तपस्या करता है
किन्तु
प्रेम
अपनाने में
न जाने क्यूँ
भय करता है

नहीं छोड़ी क्या
पुस्तक तुमने
साथ मेरा
कभी
पाने को ..
या छल था
वो नेह तुम्हारा
उद्देश्य पूर्ण
कर जाने को

कच बोला -
" नारी अभिमानी !!
जीवन का
कर्तव्य
मेरा यह ,
नहीं उपक्रम
प्रेम
निभाने का ..
लक्ष्य मेरा
संकल्पित है
सुरों तक
अमृत
पहुँचाने का

पाषण हो उठा
नारी कोमल्य,
हुआ क्रोधमय
अति अंतर ..
दुखित हृदय से
श्राप हुआ ,
विस्मृत हो
बोध
तुम्हारा हर

शिक्षा तू
दे पाये
सबको
निज लाभ
किन्तु न
ले पायेगा..
लुप्त होयेगा
सब ज्ञानार्जन
क्या
प्रेम-मूल्य
यह दे पायेगा ???



मंगलवार, 23 नवंबर 2010

विदा की बेला ....

कुछ समय के लिए घर से दूर हूँ....घर से आते समय इक एहसास था कि अगर दीवारें बोल पाती तो मुझसे क्या कहती.... उन्ही को शब्दों में बाँधा है...

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विदा की बेला...
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हौले से छुआ था
वक्ते-जुदाई मैंने उनको
पूछ बैठी थीं वो-
'अब कब दिखोगी फिर हमको?'

नमी अंतरंग की
उभर सी थी आई,
सिहर उठी मैं,
भीगी स़ी ठंडक थी जो पायी...

थी उग जैसे आई
हर सिम्त ज़ुबानें,
बयाँ हो रहे थे
अजब से कुछ फ़साने...

निगाहें भी जैसे
उभर आयीं थी उन पर,
समेटे सवाल लाखों
बोझिल हुए थे जिन पर.

कौन संवारेगा ,
कौन सजायेगा हमें
नर्म एहसासों का
यकीं दिलाएगा हमें...

सन्नाटे में ढूँढेंगे
हम हँसी तुम्हारी,
खुशबू भी हममें है
बसी तुम्हारी..

सोचा नहीं था
बिन तेरे यूं रहना,
वक्त मुश्किल कभी
पड़ेगा यूं सहना..

तेरे होने से दिल
धड़कता है अपना,
नहीं तो है बेजान बेनूर
हमारा हर सपना..

ना समझो हमें
सिर्फ दीवारें घर की,
रहीं हम गवाह ,
हर पल और पहर की..

समेटा तेरे अश्कों को
दीद-ए-क़फ़स में,
हँसी तेरी शामिल
अपने हर इक नफ़स में...

मकाँ हमसे बनता
भले ही हो सुन्दर
मगर साँस तू ने ही
भरी है इसके अंदर...

फ़र्ज़ अपना मुक्कमल
करने चली इस डगर पे
बदलेगी मकाँ दूजा
एक चहकते घर में


संजोये यादें तेरी सुहानी
बिता देंगे हम भी दिन यूं
लौटेगी जब तू इक दिन
संवारेगी इसको फिर यूं.....

भरे से गले से मैं
कुछ ना कह भी पायी,
तुम्ही पर नहीं भारी
महज़ यह जुदाई...

बंटा मन अब है मेरा
दो दो जगह पर
दिखूं चाहे एक ही
सबको इस सतह पर..

नमी पलकों की
बस समेटी है मन में,
पड़ जाऊं ना कमज़ोर मैं
अगले ही किसी छिन में..

विदा की ये बेला है,
मुस्काओ अरे साथी !
घड़ियाँ बिछोह की बस
आती है और जाती........

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गुरुवार, 18 नवंबर 2010

अध जल गगरी......


रसोई में घटित एक छोटी सी घटना ने जिस चिंतन को अंजाम दिया उसे शब्दों में बाँधा है... बात नयी नहीं ..पहले भी कई बार कही जा चुकी है ,समझी जा चुकी है..इससे भी ज्यादा खूबसूरत ढंग से..किन्तु मेरा मन किया इसको शेयर करने का..अपने ढंग से ..:)

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घटित हुई एक नन्ही घटना
चिंतन का अवसर था पाया
भ्रम हुआ था भरे हुए का
घट ने जब पानी छलकाया

जल भरना चाहा था घट में
किन्तु ढक्कन लगा हुआ था
पल में ही बह उठा था पानी
लगा मुझे घट भरा हुआ था

पूरा ज़ोर लगा कर जब फिर
घड़ा भरा यूँ उठाया मैंने
लगा जोर से मुंह पर आ कर
हो हतप्रभ यह पाया मैंने

बंद मुंह होने के कारण
खाली रहा घड़ा भीतर से
भ्रम हुआ वज़नी होने का
भरा जिसे समझा था नीर से

ताक़त व्यर्थ लगा कर उस पे
खुद ठोकर ही खाई मैंने
छलकते घट को भरा जान कर
शिक्षा खूब ये पायी मैंने

जो खाली है भरना उसको
तब तक संभव नहीं है होता
आमद को स्वीकार ना कर के
बंद दीवारों में जो खोता

छलक से मत निश्चित कर लेना
कौन है कितना भरा यहाँ पर
तुला पे मन की तोल भी लेना
वज़न है कुछ क्या कोई वहाँ पर !!!!!




सोमवार, 15 नवंबर 2010

पृथक ....


#####


सूरज की
किरणों से
धरती ,
क्या होती
कभी
पृथक है !!!!
दिन
मिलना
और
रात जुदाई ,
भ्रामक
सभी
मिथक हैं ...




रविवार, 14 नवंबर 2010

सुवासित --(आशु रचना )

####

फूल खिला
जिस पल
अंतस का ,
हुई
सुवासित
सभी दिशाएं ...
गमक उठा
हर कण
जीवन का
चमक उठी
बुझती
आशाएं ....
अद्भुत पुष्प
ये ऐसा
जिसको ,
चेतनता
पोषित
कर जाए ...
तनिक नहीं ,
भय
मुरझाने का
हारी इससे
सभी
खिज़ायें




बुधवार, 10 नवंबर 2010

एक खयाल यूँही सा....


####

जज़्ब करके भी
धाराएं स्नेह की
रहता है
समंद रेत का
सूखा सूखा सा..
बुझती नहीं
दोहन से रेत के
प्यास कभी
पथिक की ..
समा कर
अन्तरंग में
धरती के
फूट पड़ती है
जल की धार
पा कर
परिस्थितियाँ
अनुकूल अपने ....

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

राह स्वयं की रोशन रखना ...


#####


सहज प्रस्फुटित भावों का जब
दमन किया जाता है
स्नेह कलुषित हो उठता है
सम्मान छितर जाता है ..

भिन्न भिन्न संबोधन देकर
रिश्ते हैं जोड़े जाते
निरीह,दीन,याचक बनने को
दमित भाव उकसाते

अंतर बसी दमित वासना
चित्र कल्पित बनाती
चढ़ा भ्रमित शब्दों का रोगन
वृथा पूजनीय दर्शाती

सहज स्वीकार नहीं होते हैं
भाव हृदय के गहरे
अनुकूलन की जड़ें लगाती
सही गलत के पहरे

बंद दीवारों से घिर मानव
चैतन्यहीन हो जाता
चोटिल पा कर अहम् को अपने
भुजंग क्रोधित बन जाता

विषवमन करना फिर उसकी
मात्र प्रतिक्रिया होती
दिशाहीन फुफकार,सर्प की
अभिव्यक्ति भय की होती

अंधकार को मान नियति
तरस स्वयं पर खाते
किरण रोशनी की मिलने पर
चक्षु बंद कर जाते

दिशाहीन ऐसे मानव को
राह कौन दिखाए ?
चेतन करने की कोशिश में
समय क्यूँ व्यर्थ गंवाए!!!

राह स्वयं की रोशन रखना
स्वचैतन्य को पाना
देख समझ अंतरज्योति को
तम होता स्वयं ही मिटाना .....

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

गृहिणी......


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अधमुंदी आँखों से
सूर्य की
प्रथम किरणों के
स्पर्श को
महसूसते हुए
होती है
शुरुआत
एक गृहणी के
दिन की...

छोड़ कर
गर्माहट
रजाई की
उठना ही है ,
नहीं होगा
हाज़िर
सामने उसके
कोई
लेकर
एक प्याली
भाप उड़ाती
चाय की...

होती है
शुरू फिर
एक
अनवरत
जिंदगी,
बंधी हुई
सुइयों से
घड़ी की ...

बन जाती है
बस यही
बंदगी उसकी,
घूमते घूमते
इर्द गिर्द
परिवार के,
मान बैठती है
धुरी खुद को
निर्धारित कर
अपेक्षाएं
सभी की....


वृहत हितों के
कारन करती
अनदेखी
सूक्ष्म हितों की..
पूर्व स्वयं की
आशा से
बन जाती
प्राथमिकताएं,
अभिलाषाएं
परिचितों की ...

स्वपन
अनजीये
बन जाते
आहुति
गृहस्थी के
पावन -अपावन
यज्ञ में ,
तथापि
करते प्रतिपादित
प्रज्ञा हीन
उसे जब
होती स्थिति
तर्क-वितर्क की ....

कुंठित हो
फिर अनचाहा
हो जाता
घटित
अकस्मात ही,
निरुद्देश्य कही
बातें अनजाने
कर देती
हृदय पर
घात प्रतिघात भी ....


फड़फड़ा कर
पंख
रह जाता
पंछी मन का
बेचारा ,
गृहिणी हो कर
क्यूँ तूने
आकाश
स्वयं का
हारा ???

छोड़ परिधि को
विस्तृत कर
अंतस दृष्टि
अपनी,
सत्व छुपा
नारीत्व का
ममतामय
तू ही तो है
जननी ......

घर बनता है
स्नेह से तेरे
जो कल था
दीवारें,
कण कण
खिल उठता है
पा कर
तेरे सुकोमल
सहारे...

किन्तु
खो देना
निज को
धर्म नहीं
गृहिणी का,
चेतन खुद को
रख कर ही
कर तू
संपादन
कर्तव्य का...

खो कर निज को
गृहस्वामिनी
गृह सेविका
सम हो जाती,
बिना पारिश्रमिक
बिना मान के
क्रमशः
विषम हो जाती...

पीड़ा इस
निर्मात्री की
अनुभव
काश कोई
कर पाता,
ईश्वर से पूर्व
सम्मुख उसके
शीश
सब का
झुक जाता....


गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

लम्हों में.....

वो जाते जाते तेरा ,
ठिठक कर यूँ ही रुक जाना
निगाहों से गुज़र कर ,
रूह तक मेरी चले आना
पिघलना बाहों में मेरी ,
मुझे संग खुद के पिघलाना
डुबो कर इश्क में खुद को ,
उसी शिद्दत से खो जाना
ना आगत का ,ना था गुज़रे
किन्ही लम्हों का जो हासिल
वही इक लम्हा था तुझ में ,
उसी को मुझ में जी जाना

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

आंखमिचौनी

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खेलें हम तुम आँखमिचौनी
दिन बचपन के जी लें साथी...
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!

आसमान के विस्तृत तल में
चंचल बादल सा ढल जाओ
तरह तरह के रूप बदल तुम
हैराँ मुझको कर इठलाओ
खोजूं नेह भरा मैं बादल
जानूं वो ही तुम हो साथी ...
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!

कभी मैं बन के बुलबुल प्यारी
मिल जाऊं उड़ती चिड़ियों में
कभी बनूँ तितली बगिया की
छुप जाऊं खिलती कलियों में
चहक सुनो तुम, महक से पूछो
छुपी कहाँ मेरी है साथी ....??
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!

बचपन का ये खेल अनोखा
आज भी मन को कितना भाता
रोम रोम में प्रिय बसा कर
हर शै में फिर ढूँढा जाता
छुअन पवन की ,ताप सूर्य का
सबमें तुम होते हो साथी.....
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!
खेलें हम तुम आँखमिचौनी
दिन बचपन के जी लें साथी.......



गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

शहीद-ए-वफ़ा


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पिघलती है
औ' जलती है
कतरा कतरा
शब् भर
शमा
इश्क के
इंतज़ार में...
फ़ना
लम्हे में
हो कर
कहलाता
शहीद-ए-वफ़ा
परवाना
इस
प्यार में ...

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

महक

मेरी प्यारी दोस्त 'महक ' के लिए .........

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खिलते हैं प्रतिदिन कई पुष्प यहाँ
'महक' बिना किन्तु , है खुशबू कहाँ

गमकती बयार सी मन को महकाती
होने से उसके , हंसी लब पे थिरक जाती

सूना सा लगता 'अभिव्यक्ति' का चमन
'महक' ना कर पाती यहाँ गर रमण

गहनता सागर सी, नदी सा प्रवाह
ज्ञान अपनी नैनो में भरती अथाह

स्नेह से अपने है सबको यूँ बाँधा
बिन उसके सब कुछ लगता है आधा

चहकती फुदकती वो बुलबुल चमन की
भिगो देती है परते सभी अंतर्मन की

क्षणिक से ही आने से उसके यहाँ
चटकती हैं गुलशन में नयी कलियाँ

दुआ दिल से लब तक चली बस ये आये
'महक' से सदा हर चमन मुस्कुराये


रविवार, 17 अक्टूबर 2010

धुरी ....

केंद्र पर स्थिर
तनी हुई धुरी
नियति के अनुरूप
करती संतुलित
अपने इर्द गिर्द
घूमते
चाक को ...
क्षणिक विचलन
बना देता है
दोषी उसको
सारी
अस्त्व्यस्तताओं का...
नहीं अधिकार
विचलित होने का
नितांत एकाकी
धुरी को
क्यूंकि
स्थिरता उसकी
कराती है
कुम्हार के हाथों
दोषरहित सृजन .....




शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

विलय ...

######

एक ही छत के नीचे
दो पृथक अस्तित्व
कोशिश में
बचाने की
अपने
मिथ्या वजूद को
बचते हैं
सामने भी
पड़ने से
एक दूसरे के
अपने
असली चेहरे के साथ ...
टकराहट
'मैं'
और
'तू'
की
खड़े कर देती है
और भी
वृहद
'मैं'
और
'तू'
क्यूंकि
हो कर
आवरण हीन
'हम'
में विलय
जो नहीं हो पाते
वे कभी



बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

'कोयला' भये ना 'राख'


###

सालों से
बक्से में
बंद
पीले पड़ चुके
कागजों पर
कभी
उकेरे गए
तुम्हारे एहसास
आज
वक़्त की
धूल झाड़
बिखर गए
क्वार की
नर्म धूप से
मेरे आँगन में....
कांपती उँगलियों से
छुआ
तो
नमी
कुछ
अनबुझे
लफ़्ज़ों की
उतर आई
पलकों पर
मेरी ...
सुलगते अरमान
अधबुने सपने
सुनहरे दिन
रुपहली रातें
सब इतरा रहे हैं
आज
मन के
विस्मृत
कोने में
सांस लेते हुए....
फूँक दो
अपनी साँसों की
आंच से
इन अधबुझे
नम शोलों को
वरना
ये भी
शिकायत कर बैठेंगे
कि
ना ये
'कोयला'
हुए ना
'राख '



शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

उम्मीदें.....

#######

दुक्खों का एहसास कराती
कुछ नन्ही मासूम उम्मीदें
रिश्तों को हैराँ कर जाती
अनजानी बेनाम उम्मीदें ...

अपने मन का चाहा क्या
होता है दूजे हाथ सदा
बंधन में बस बांधें रखती
परिभाषित झूठी उम्मीदें

अहम् तुम्हारा आड़े आता
प्रेम की मीठी अभिव्यक्ति में
सूखे पात सी फिर झर जाती
वर्षा पर निर्भर उम्मीदें

चेहरा लगता कोई पराया
आँखें लगती सूनी सूनी
वीरानी सी है छा जाती
पूर्ण ना होती जब उम्मीदें

प्रतिबिम्ब पराये  नयनों में
कब होता निज के भावों का
सच को झुठला झुठला जाती
भ्रम में  जकड़ी कुछ  उम्मीदें

निज से जब पहचान है होती
बंधन क्षीण हैं होने लगते
कम से कमतर होती जाती
अपनों से बेजान उम्मीदें

लौट के आना निज की जानिब
जीवन का है लक्ष्य यही
क्यूँ फिर उलझा उलझा जाती
तुझको ये बेकार उम्मीदें .......



शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

विषम....(आशु रचना )


#######

जब तक विषम ना होता जीवन
मानव ना इंसाँ बन पाता
तूफानों से लड़ कर ही तो
वृक्ष घना सीधा तन पाता

दुक्खों से ना हार मानना
धैर्य बड़ा है प्यारा साथी
संभावनाएं तेरे भीतर की
घड़ी विषम ही तो बतलाती

उन्ही विषम परिस्थितयों में
जी कर हम शिक्षा ये पाते
प्रेम मैत्री करुणा वाले
भाव सदा दुःख हर ले जाते



मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

डिस्टेम्पर

#####

कितनी मेहनत से
सजाई थी
मुस्कान
चेहरे पर
अपने
पर
दिल की
दरारों से
रिसते
दर्द की
सीलन ने
उतार दीं
पपड़ियाँ
उस
ओढ़े हुए
डिस्टेम्पर की ....
परत दर परत
उतरते रंगों ने
भुला दिया है
इस
आशियाने का
मूल रंग भी
मुझको ...
ज़माने की
तपती नज़रों
और
तंज़ की
बरसात को
सहते हुए
जर्जर हुई
इसकी
दीवारों को
दरकार है
तुम्हारे
स्नेहिल स्पर्श की ...
दरारों को
भरता प्यार
और
मोहब्बत की
तपिश
सुखा देगी
सारी सीलन को ...
आओ ना !!
एहसासों की पुट्टी से
ऊबड़ खाबड़
सतह को
कर
समतल
चढा दो
अपनी
मोहब्बत का
गुलाबी रंग
इन दीवारों पर
जिससे
खिल उठे
अस्तित्व इनका
और
हो जाएँ
फिर से ये
तैयार
झेलने को
दुनियावी रिवाज़ों का हर मौसम......

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

कल हों ना हों...

#####

पल दो पल
की फुर्सत
निकालनी
पड़ती है..
जीने को
कुछ लम्हे
स्वयं के लिए
इस भागमभाग की
जिंदगी में..
मत ले
मेरे सब्र का
इम्तिहान
ए दोस्त...!!!
ये
चुराए हुए
कुछ लम्हे ....
कल हों ना हों ..!!!

बुधवार, 29 सितंबर 2010

सौतन.....


#####

याद में तेरी गिन गिन तारे
मैंने हर रात बितायी ...
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

वशीकरण जाने वो ऐसा
ज्यूँ जादू हो बंगाल का
प्रीत छुपा ली मैंने जग से
ज्यूँ धन कोई कंगाल का
सपनो में ही पा कर तुझको
मन ही मन थी मैं हर्षाई
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

हर वो शै हो गयी है सौतन
जिसने तुझको घेर लिया है
पलकों से पथ चूमा तेरा
पर तूने मुंह फेर लिया है
मजबूरी जानूँ मैं तेरी
फिर क्यूँ आँख मेरी भर आई
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

दुनिया के बेढंग झमेले
मिलन की राहों में रोड़े हैं
बिछोह है अपना सदियों जैसा
संग साथ के दिन थोड़े हैं
स्पर्श की तेरे याद दिलाती
जब जब छू जाती पुरवाई
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

जिगसॉ पज़ल ....

######

जिगसॉ पज़ल के
सैंकडों टुकड़ों की तरह
हो गए हैं विचार मेरे ,
सब बेतरतीब से
बिखरे बिखरे ...
थक गयी हूँ
उनको
सही खांचों में
फिट करते करते...
पर
तस्वीर भी तो नहीं
मेरे पास
कि
जिसे देख
लगा पाऊं
इन टुकड़ों को
उनकी सही जगह पर ,

तुम आओ तो
साथ में
इस पहेली की
तस्वीर लेते आना ..
मिल के
जोड़ देंगे
सारे टुकड़ों को
और
मुक्कमल हो जायेगी
ये बिखरी हुई तस्वीर



सोमवार, 27 सितंबर 2010

बाढ़....

######

कल तक
एक दूसरे के
खून के प्यासे
बुधिया और हरिया,
आज
सिमटे बैठे हैं
अपने परिवार
और
ढोर डंगरों को
साथ लिए
काकोया के
पुल पर
दो हाथ
मिली जगह में.
बंधाते हुए ढाढस
एक दूसरे को
कितने सालों बाद
दोनों भाई
मिल जुल कर
रोटी खा रहे हैं...


इस बार
उनकी
दुश्मनी
की वजह
को
रामगंगा
बहा जो ले गयी.......



शनिवार, 25 सितंबर 2010

प्रीत का देखो रंग ....


#######

नज़रों ने छू लिया तुम्हारी
देह का हर इक अंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग

नैनो में ज्यूँ छलक उठे हैं
मादक मदिरा के प्याले
अधर हुए रस भीगे अम्बुज
मधुकर डेरा डाले
रोम रोम से फूट रही है
मिलन आस उत्तुंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग ....

बीते यौवन पर छाई है
मदमस्त सी कोई बहार
नयी कोंपलें फूटी हैं
जब बरसी प्रेम फुहार
हर पल नभ में खुद को पाऊँ
मिले जो तेरा संग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग ....

मैंने तुम पर हार दिया है
मन भी तन भी अपना
सहज समर्पित तुमको मैंने
किया आज हर सपना
प्रेम किया तुमको जब अर्पण
मन में छाई उमंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग

तेरी चाहत ने मुझको यूँ
दीवानी कर डाला
जोगन बन कर जपूँ निरंतर
तेरे नाम की माला
तुमने देखे प्रेम अनेकों
मेरा अपना ढंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग ....




शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कुछ यूँही ....

कभी कुछ पल के लिए कुछ एहसास मन में आ जाते हैं॥उन्ही को शब्दों में ढाला है..


############

प्राथमिकता ..

मेरी
प्राथमिकताओं में
सर्वोच्च
होना
तुम्हारा,
प्रतिपादित
तो नहीं
करता ना ,
तुम्हारी
प्राथमिकताओं में
मेरा
सर्वोच्च
होना ......

========================

नज़र .....

देखा है
जबसे
खुद को,
तेरी नज़र
से
जानम ,
आईना भी
हैरान है
कि कौन हैं
ये
खानम ॥:)

============

इंतज़ार .....

दिखता नहीं
खत्म सा
सिलसिला
इंतज़ार का ....
सुना था ,
अब जान लिया ,
है ये ही
सिला
प्यार का


गुरुवार, 23 सितंबर 2010

स्वच्छंद सहचर

########

उस दरख़्त की
सबसे ऊंची
टहनी पर
रुके थे कभी
हम तुम ..
ठहर गए थे
सांस लेने को
उड़ते उड़ते
असीम
आकाश में

तुम्हारी
मासूम नज़रें
अधखुली चोंच
और
कांपते हुए पंख...
समेट लिए थे
मैंने
अपनी
नन्ही छाती में ...
दुबक गयी थी
तुम भी
भूल कर
आकाश के
असीम
विस्तार को..
समा गयी थी
मेरे पंखों में
महसूस कर
उनकी
गर्माहट को
पलों में
जी लिया था
हमने
जन्मों को जैसे ..
किन्तु इर्ष्यालू था
वह साथी चिड़ा...
उड़ते हुए
आ बैठा
सीधा
हम दोनों के
मध्य
करते हुए
तीव्र आघात ...
संभाल नहीं पायी
वह नाजुक सी टहनी
वह
अप्रत्याशित
प्रहार ...
छूट गयी
मेरे पंजों से
वह धरती
जिस पर
बो रहा था
मैं
अपनी
मोहब्बत के
बीज ....
लड़खड़ा के
संभला मैं ,
उड़ते हुए
देखा था
तेरी ओर
और
विवशता
तेरी नज़रों की
भांप
उड़ चला था
अनजानी दिशा को
गर्वोन्मत चिड़ा
बढ़ा था
तेरी ओर
अपनी विजय पर
इतराते हुए
किन्तु
क्षुब्ध सी
तू भी
उड़ चली थी
किसी
अनजानी दिशा में

कुछ पलों का
वह साथ
देता है
प्रेरणा
उड़ने की
मुझको
कि
फिर
किन्ही लम्हों में
सांस लेने रुकेंगे
हम तुम
ऐसी ही किसी
टहनी पर


और जन्मों से देखो..
उस दरख़्त की
वो शाख
लचकती है
आज भी ,
उन पलों की
मादकता में
करते हुए
इंतज़ार
फिर
किन्ही
हम जैसे
स्वच्छंद सहचरों का ....



बुधवार, 22 सितंबर 2010

घुँघरू..(आशु रचना )

एक ऐसे पति की मनोव्यथा जिससे किसी कमजोर क्षण में अपनी बीवी का क़त्ल हो गया ..जिसे वह बेहद प्यार करता था...

####

मैं
सौ-सौ बार
हुलस उठता था,
घुंघरू की तरह
झंकारती
जिसकी
आवाज पर

भूल जाता था
थकन
दिन भर की ,
जिसकी
मुस्कुराहट पर

खिलखिलाती थी
हंसी
जिसकी
घर भर में
गुंजार कर

भीग भीग
उठता था मन
उसकी आँखों में
डूब कर

क्यूँ ना
संभाल पाया
मैं
खुद को
बस
इक
कमजोर
क्षण पर

वो
जिसके
खून के छींटे
आज भी
दर्ज हैं
मेरी आस्तीन पर,

उसकी
पायल का घुंघरू
दिला जाता है
एहसास
उसके वजूद का
मेरी शर्ट की
जेब में
खनक कर

सोमवार, 20 सितंबर 2010

ए मेरे आवारा बादल..!!

#########

संजो प्रीत सागर की मन में
सहेज अंश उसका निज तन में
दूर दूर तक उड़ के जाना
पूरब से पश्चिम अपनाना
कभी सिमटना कभी बिखरना
कभी बरसना कभी छितरना
नहीं बंधे हो तुम बंधन में
क्षुब्ध नहीं होते क्रंदन में
क्या होती तुमको भी प्रीत
कहीं मिला तुमको क्या मीत
जहाँ था चाहा तुमने रुकना ?
किसी की अलकों में जा छुपना ?
किन्तु नियति नहीं तुम्हारी
तुम उड़ते हो दुनिया सारी
ठहर भला कैसे जाओगे
कैसे प्रीत में बंध पाओगे
तुमने बस देना ही जाना
तप्त धरा की प्यास बुझाना
कभी प्रचंड सूरज से लड़ कर
छाया बन जाते हो बढ़ कर
पल पल रूप है यूँ अनजाने
आवारा सब तुमको माने .......


शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

'हम्म'.....


####

उमगता हुआ
आता हूँ मैं
समेटे
हृदय में अपने
कहने को तुमसे
हज़ार शब्द ,
लाखों बातें ,
करोड़ों सपने
और
अपने ही
अंतरमन की
घुटती चीखें
तुम तक
पहुँचाने को ....
पुकारता हूँ तुम्हें
और तुम्हारा
वो मासूम सा
"हम्म''
भुला देता है
मुझे सारे
शब्द
बातें
सपने
और
चीखें बदल जाती हैं
इस
गहन स्वर के
संगीत में
जो बहने लगता है
तुम्हारे मन से
मेरे मन की ओर
और
ठगा सा
खड़ा रह जाता हूँ मैं ..
कुछ बोल नहीं पाता ...........
क्या है इस 'हम्म' में ???

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

पूंछ का दर्द..!!!!

#####

कितना
नाज़ुक जुडाव
है ना
छिपकली
और
उसकी पूँछ
के दरमियाँ ..
हल्के से ही
आघात से
पूंछ
अलग
हो जाती है
और
दर्द का
एहसास
तक नहीं होता
उससे
अब तक
जुडी हुई
छिपकली को..
जुदाई की
तड़प से
तब तक
छटपटाती है
पूंछ
जब तक
उसमें
एक भी
कतरा
जान
होती है
बाकी
और
छिपकली
उस
जुदा हुई
पूंछ से
बेखबर
पा लेती है
एक नयी
पूंछ
कुछ ही
दिनों में ...


मैंने
महसूसा है
अपने रिश्ते में
उस पूंछ का दर्द ............

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हश्र लम्हों का.....

# # #
प्रतीक्षा
अपेक्षा
समीक्षा
परिभाषा
परीक्षा से
उकता कर
लम्हों में
जीने की
आरज़ू
रखने वाले
जब
अकस्मात
पाए
लम्हों को
जीने के
बजाय ,
प्रतीक्षा को
नजरंदाज
कर
अपेक्षा को
ठुकरा कर
परिभाषाओं की
समीक्षा कर
परीक्षा
लेने लगते हैं
तो
लम्हों के
इस हश्र पर
रो देती हूँ मैं....

सोमवार, 13 सितंबर 2010

अपरिवर्तित

#######

बदलाव
नज़र आते हैं
जब सोचते हैं
हम
बीते हुए पल ..
या
हमारी चाहतों से
अलग होते हैं
आने वाले पल ..

देखना
समय से पीछे
या
फिर आगे
देता है एहसास
परिवर्तनशीलता का ..
और
हो जाती है
शिकायत
अनकही सी
मन में ,
"तुम अब पहले जैसे  नहीं रहे ! '
या
उम्मीद इस वादे की
"तुम हमेशा ऐसी ही रहोगी ना ! " ...

संभव नहीं है
इन कसौटियों पर
खरा उतरना
किसी का भी
किन्तु
कसौटियों से परे
होता है महसूस
एक
कहा-अनकहा साथ
बिना किसी वादे
और
घोषणाओं के
घुला हुआ जैसे
अपने ही सत्व में ...

सिर्फ वही है
अपरिवर्तित
इस पल पल
परिवर्तित
दिखने वाली
जिंदगी में .....

रविवार, 12 सितंबर 2010

किनारे.....


######

दो किनारों को
जोड़ती है
संवेदनाओं की
नदी ....
निरन्तर
बहती ,
उमगती ,
उफनती
नदी
घुला लेती है
संवेदनाओं के
जल में
अंश किनारों का...
घुल कर
नदी के जल में
खो कर अपने
पृथक अस्तित्व को
हो जाते हैं एकमेव
वो हमसफ़र ...
कर नहीं सकता
विभाजित उन को
कोई
अब
दांयें या बांयें
किनारे में
और यूँ
मिल जाते हैं
दो किनारे ,
होते हुए
अभी भी
नदी के
दोनों छोर पर
अपने अपने
अस्तित्व के साथ
और
दुनिया कहती है
किनारे कभी मिलते नहीं.....!!!!

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

######

ना जाने मुझको आज सजन
तुम याद बहुत क्यूँ आते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

धड़कन धडकन में गूँज रही
बातें मुझसे जो कहते थे
अक्षर अक्षर में डोल रही
जिस प्रीत में हम तुम बहते थे
पढूं तुम्हें या मैं लिख दूं
हर गीत में तुम रच जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

लम्हों में युग जी लेते थे
कभी युग बीते ज्यूँ लम्हा हो
मैं साथ तेरे तन्हाई में
तुम बीच सभी के तन्हा हो
दिन मजबूरी के थोड़े हैं
तुम आस यही दे जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

हर सुबह का सूरज आशा की
चमकीली किरने लाता है
सांझ की लाली में घुल कर
इक प्रेम संदेसा आता है
सूरज ढलने के साथ ही तुम
बन चाँद मेरे आ जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो .......

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

क्या है ये ..!!!!

###

जागती आँखों में
बन के सपना
उतर आने से
तुम्हारे
भारी हो गयी
पलकें
खुलती नहीं
घुल गए हैं
लाल डोरे
तुम्हारे
प्रेम की
मादकता के
उनमें ...
तरलता
एहसासों की
छलक छलक
जा रही है
और .....

.
.
.
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.
ये मुआ डॉक्टर कहता है कि 'आई फ्लू ' है ...:)

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

अंतिम छवि....

#####


हर दिन
तुम्हारे
दफ्तर जाते समय
मेरा तुम्हें
मुस्कुराते हुए
विदा करना
दिनचर्या सी है
तुम्हारे लिए ....
लेकिन
मन की
तमाम
ऊहापोहों के बावजूद
मैं
मुस्कुरा के देती हूँ
विदा तुमको
कि
कहीं किसी दिन
लौटने पर तुम्हारे
गर मैं ना मिलूं
तो
अंकित रहे
हृदय में तुम्हारे
मेरी
मुस्कुराती हुई
अंतिम छवि ......



ज़िन्दगी..!! मिलवा दे मुझको मुझी से ..

######

निरंतर
खोजती हूँ
खुद को
क्या हैं मेरी
चाहते
आशाएं
सपने ...
गुज़र चुकी है
वो रुपहली उमर
होते हैं दिन
जब सोने के
और
चांदी की रातें
सुना है ऐसा मैंने..
सोने की तपन
और
चांदी की शीतलता
महसूस किये बिना
भीगे काष्ठ सा ही
सुलगता रहा
ये तन
और
मन मेरा ..
फिसलते जा रहे हैं
पल यूँ वक़्त के
जैसे मुठ्ठी से रेत ....
रेत का अंतिम कण
फिसलने से पहले
एक बार ,
बस एक बार ,
ज़िन्दगी !!!!
मिलवा दे
मुझको
मुझी से तू .....

जोगन और ज्ञानी....


जोगी...(आशु रचना )

#######

जोगन के प्रेम पर ज्ञानी का उवाच :

निर्मोही संग प्रीत लगायी
क्यूँ अपनी सुध बुध बिसराई
वो तो है इक रमता जोगी
उसे डोर कोई बाँध ना पायी

मन का मौजी वो मतवाला
राम नाम की जपता माला
तू पगली दिल दे कर उसको
क्यूँ पीती है विष का प्याला

प्रेम तेरा जो समझ ना पाए
तू क्यूँ उससे आस लगाये
प्रेम तेरा थाती है तेरी
क्यूँ कुपात्र पर इसे गंवाए

जोगन के भाव...

मैंने प्रेम किया है जिन से
नहीं कामना प्रतिफल की उनसे
प्रेम नहीं है बंधन कोई
मन की डोर जुड़ी है मन से

पात्र देख कर चयन करे जो
प्रेम नहीं कर सकता है वो
प्रेम तो है बस एक भावना
छूती है जो अंतर्मन को

बरसात ....


######

एक नाज़ुक सा
स्पर्श
एक स्नेहिल
निगाह
मन से मन की
छुअन
एक गर्माहट का
एहसास ..
काफी है ,
अवसाद के बादलों को
बरसाने के लिए ....
बरसात के बाद
निखरा निखरा सा
ये समां ...
पेड़ कुछ ज्यादा
हरे
आसमां कुछ ज्यादा
नीला
मन की सूखी धरती
भीग उठती है
इस बरसात में
और
इस गीली धरती
में
खिलते हैं फूल
हमारी
चाहतों के
हमारे
प्रेम के
और
हो जाते हैं
दिन
फिर
खुशगवार से
रातें
शायराना सी ....

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

गुफ़्तगू कुछ यूँही अपने दरमियाँ होने लगी ....

#####


दिल की बेचैनी निगाहों से बयाँ होने लगी
गुफ़्तगू कुछ यूँही अपने दरमियाँ होने लगी

अश्क तो दिल में गिरे थे, फिर असर ये क्या हुआ?
क्यूँ नमी पलकों पे आकर के अयाँ होने लगी

अल सवेरे से ही उसने ख़्वाब को परवाज़ दी
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी


ज़िंदगी के रास्ते ,ले कर चले हैं किस तरफ
दिन गुज़रता हैं कहाँ और शब कहाँ होने लगी

तेरी हसरत में रहे हम ,सोच ना पाए कभी
इश्क की राहों में क्यूँ,नाकामियाँ होने लगी


हमसफ़र हो तुम तो मेरा दिल बहुत मग़रूर है
धडकनें बेताब हो कर बदगुमाँ होने लगी


है अँधेरा जीस्त के हर मोड़ पर तो क्या हुआ
रौशनी मेरी नज़र की अब वहाँ होने लगी



मंगलवार, 31 अगस्त 2010

चले आओ ,चले आओ......

#######

तुम्हें दिल ने पुकारा है
चले आओ ,चले आओ...
ना तरसाओ ,ना तड़पाओ.
चले आओ, चले आओ

हवा भी हो के निश्चल
सुन रही है ,टूटती सांसें
नज़र भी थक रही है
छोड़ ना बैठे कहीं आसें
है नाज़ुक दिल बहुत मेरा
जरा इस पर तरस खाओ
चले आओ ,चले आओ.....

खनक मेरी हंसी की
खो गयी जाने कहाँ जानां
रुके पलकों पे ,ना सीखा
यूँही अश्को ने बह जाना
हुई गुम मैं कहीं खुद में
मुझे तुम मुझसे मिलवाओ
चले आओ ,चले आओ......

ये मौसम ये हवाएं
छेड़ते हैं जब मेरी अलकें
तभी तुम चुपके आके
मूँद लेते हो मेरी पलकें
हकीक़त में बदल दो
ये तस्सवुर ,अब ना भरमाओ
चले आओ ,चले आओ......

रविवार, 29 अगस्त 2010

अच्छा लगता है....

कभी यादों के कूचे से गुज़रना ,अच्छा लगता है
गए लम्हों को फिर साँसों में भरना ,अच्छा लगता है

वो दुनिया से जुदा हो कर मेरे पहलू में आ जाना
तेरी दीवानगी महसूस करना ,अच्छा लगता है

किया करते थे हम कोशिश हसीं लम्हे चुराने की
चुराए वक्त में जीना औ' मरना ,अच्छा लगता है

तड़प दिल में वही है चाहे हम तुम मिल नहीं पाएं
खतों की मार्फ़त ,दूरी बिसरना,अच्छा लगता है

हज़ारों काम हैं तुमको ,बनिस्बत इसके भी जानम
तेरे ज़ेहन से हर लम्हा गुज़रना अच्छा लगता है

हकीक़त या तस्सवुर है ,मुझे कुछ होश ना इसका
सिमट कर तेरी बाँहों में बिखरना,अच्छा लगता है

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

बादल और सूरज का खेल...

#####

आज
प्रारंभ हुई
सुबह,
कुछ
अनोखी
बेजोड़ सी ..
सूरज
और
बादलों में
जैसे
लगी हुई थी
होड़ सी...

हो
रही थी
तीव्र
बारिश,
छाई थी
घटा
घनघोर ..
सूरज भी
आज
आमादा था
चमकने को
पुरजोर ...

सह रहा था
हफ्ते भर से
बादलों की
वह
मनमानी ......
लगता था,
आज,उनमें
ना छुपने की
मन में थी
उसने ठानी...

चमकदार धूप
और
मूसलाधार
बारिश का
ये अद्भुत
तारतम्य ...
चल रहा था
प्रकृति का
जैसे
रास-रंग
कोई रम्य ...

और बन गयी
मैं
दर्शक
इस
अनोखे खेल की ...
अद्भुत प्रतियोगिता
हो रही थी
बादल
और
सूरज
के मेल की ....

कभी लगता
नीर बादलों का
अब
चुक रहा है,
अगले ही पल
दिखता
सूरज
बादलों से
जैसे
रुक रहा है...

तभी
चमत्कृत
हो उठी
अकस्मात
मेरी आँखें,
झिलमिला उठी
हर तरफ़
जैसे
असंख्य
सतरंगी पांखें ...

गुज़र कर
बारिश की
हर बूँद के
अंगों में ...
रौशनी सूरज की
हो रही थी
परावर्तित
सप्त रंगों में ...

सजा रहा था
प्रकृति को
ईश्वर
ज्यूँ
निज हाथों से,
नभ से
धरा तक
सतरंगी
बल्बों को
जैसे,
टांग
दिया था
धागों से .....

समा कर
बूंदों में ,
रौशनी
सूर्य की
लगी थी
रिसने ..
गुज़र कर
उनसे
कर दिया था
हर ज़र्रा
सतरंगा
उसने ....

बिना
हार जीत
का यह खेल
जिसमें
खिल
उठा था
हर सूं
रंग
एकत्व का...
कर गया
अभिभूत
मुझको,
बरस रहा था
नूर इसमें
जैसे
ईश्वरीय
तत्व का...

बुधवार, 25 अगस्त 2010

झरते हैं भाव ,मेरे दिल से .....

####

अपने इश्क में हमने जानम
खुद को ऐसा साधा है
झरते हैं भाव ,मेरे दिल से
लफ़्ज़ों में तूने बाँधा है ..

बातें जब किसी और से होती
अंत सभी हो जाती हैं
किन्तु बातें हम दोनों में
साँसों जैसी चल जाती हैं
एक खतम हो तो झट दूजी
आ जाती बिन बाधा है
झरते हैं भाव ,मेरे दिल से
लफ़्ज़ों में तूने बाँधा है ..

जब भी तेरी ओर निहारूँ
तू नहीं अकेला सा दिखता
नयनो में छवि दिखती मेरी
इक साये से ज्यूँ तू घिरता
कृष्ण हों जग में कहीं अवस्थित
रों रों से दिखती राधा है
झरते हैं भाव ,मेरे दिल से
लफ़्ज़ों में तूने बाँधा है ..

घटित हुआ है प्रेम हमारा
रस्म रिवाज़ों से हट कर
सदा साथ इक दूजे के हैं
नहीं किन्तु जग से कट कर
सम्पूर्ण किया इक दूजे को
ना हममें अब कोई आधा है
झरते हैं भाव ,मेरे दिल से
लफ़्ज़ों में तूने बाँधा है ..

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

दिशा ...(आशु रचना )

अन्धकार है
कितना गहरा
दृष्टि को
सूझे ना कुछ भी,
दिशाहीन सा
भटके राही
भेद कोई
बूझे ना कुछ भी........
दूजों के
अनुभव से चाहे
राह सही
मुझको मिल जाए,
अनजानी
मंज़िल की जानिब
डरते डरते
कदम बढ़ाये........
दिशा मिलेगी
सही तभी जब
खौफ़ न होगा
अनजाने का,
भटकन का डर
त्याग हृदय से
निश्चय
परम सच को
पाने का.........
अगला शब्द-भटकन

सोमवार, 23 अगस्त 2010

मनुहार --(आशु रचना )

######

रूठूँ कैसे तुमसे साजन
तुम ना करते मनुहार
प्रेम है फीका बिन इसके
ज्यूँ दाल हो बिना बघार .....

मानिनी बन के राह निहारूं
तुम खुद ही बढ़ आओगे
प्रेम पगी फिर बतियाँ करके
तुम मुझको बहलाओगे
किन्तु तुम को लगता हममें
इन सबकी क्या दरकार
प्रेम है फीका बिन इसके
ज्यूँ दाल हो बिना बघार .....

फूल भी खिलते तभी समय पर
सींचा उनको जब जाता
वरना नेह प्रतीक्षा में ही
पौधा कुम्हला जाता
खिज़ा नहीं है भले ही मुझ पर
पर तुम लाते हो बहार
प्रेम है फीका बिन इसके
ज्यूँ दाल हो बिना बघार .....

सच...(आशु रचना )

####

साबित करने
झूठ को
होते हैं
प्रपंच कई ...
इक्कठे कर
गवाह सबूत
गढ़ गढ़
कहानियां नयी...
किन्तु होता
नहीं आसां
साबित करना
सच को ,
वो तो
होता
सभी के लिए
एक
जो हो जाता
बस महसूस
लिए अपने
मौन को ...

रविवार, 22 अगस्त 2010

कसम...(आशु रचना )



कसम ना दो तुम
मुझको कोई
रस्मों को
ना थोपो मुझ पर
सहज हूँ मैं
दिल के रिश्तों में
यकीं तो करके
देखो मुझ पर.....

रस्मों कसमों में
यूँ बंध कर
रिश्ते कब तक
जिन्दा रहते
बंधन में ही
घुट जाते हैं
खुद से
बस शर्मिंदा रहते
स्नेह की
अमृत वर्षा में
भीगो खुद ,
बरसाओ मुझ पर......

खुद पर यकीं
ना होता जिनको
कसमें वो
औरों की खाते
बात का अपनी
वजन बढ़ाने
बाट वे
कसमों के लटकाते
सच को
जब तुम
समझ ना पाते
कसम
बोझ बन जाती मुझ पर......

क्रंदन--(आशु रचना )


#####

हृदय का मेरे
मूक क्रंदन ,
प्रेषित करता
जब स्पंदन ,
विचलित
तुम भी ,
हो उठते हो ,
कैसा अप्रतिम है ,
ये बंधन

बिना नाम के
ये रिश्ते यूँ
अदृश्य डोर से
हैं जुड़ जाते
बंधन बिन भी
बंधे हैं हम तुम
राह हर इक
संग संग
मुड़ जाते

कभी साथ
रहने वाले भी
हृदय मगर
छूने ना पाते
मूक भाष्य को
क्या समझे वो
उलझे अपने में
रह जाते ....

दूरी नजदीकी का कोई
अर्थ नहीं
रूह के
रिश्तों में ..
सूक्ष्म रूप में
जुड़ने वाले
जीवन ना जीते
किश्तों में ...

हर पल साथ है
सूक्ष्म रूप ये
हर कण में
बस ये ही समाया
उस विराट ने
जग वालों को
देखो तो
कैसे भरमाया ...!!!

बार-बार (आशु रचना )

###

आती है सदा तेरी
बार -बार ...

पुकारती है रूह मेरी
बार बार ..

बढती हूँ जानिब तेरी
बार -बार ...

उलझती हैं बेडियाँ मेरी
बार -बार ..


तोड़ कर बंधन सारे
चली आउंगी पास तेरे
एक बार .......

शनिवार, 21 अगस्त 2010

भावों के इस कर्षण में

######

कमी कहाँ रह जाती साजन
मेरे सहज समर्पण में
बीज प्रेम का खो जाता है
भावों के इस कर्षण में ....

नारी मन की सहज भावना
कैसे समझाऊं तुम को
नहीं मुखर ये शब्द हैं मेरे
नैनो से बतलाऊं तुम को
अनबोली भाषा किन्तु ना
सुनी जाए इस घर्षण में
बीज प्रेम का खो जाता है
भावों के इस कर्षण में ....

हो जाता अवरुद्ध प्रवाह भी
हर शै बोझिल हो जाती है
नदी भी जैसे बाँध के कारण
मिथ्या स्थिर हो जाती है
नहीं सुहाता बिम्ब भी अपना
जब जब देखूं दर्पण में
बीज प्रेम का खो जाता है
भावों के इस कर्षण में ....

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

प्रीतम....

#####

प्रीतम के नैनो से छलके
अप्रतिम स्नेह की धार
भीगे तन मन उसमें मेरा
ज्यूँ सावन की प्रथम फुहार

निज को जान रही हूँ मैं भी
उनकी नज़रों से पढ़ कर
चंचल हूँ मैं हिरनी जैसी
लावण्य कुसुम से बढ़ कर
उपमाएं दे दे कर प्रिय ने
रूप दिया है निखार
भीगे तन मन उसमें मेरा
ज्यूँ सावन की प्रथम फुहार

तत्पर उनकी एक चाह पर
सर्वस्व करने को अर्पण
हृदय में बसते उनको मेरा
तन मन पूर्ण समर्पण
नहीं है कुछ भी मेरा जिसपे
उनका ना अधिकार
भीगे तन मन उसमें मेरा
ज्यूँ सावन की प्रथम फुहार

अस्तित्व समाया इक दूजे में
पृथक नहीं अब हम दो
उनमें मैं हूँ या मुझमें वो
गहन भेद है ये तो
मेरी आँखों से छलके है
हृदय का उनके प्यार
भीगे तन मन उसमें मेरा
ज्यूँ सावन की प्रथम फुहार .......

ग्रहण करो तुम भाव ये मेरे ....

####

प्रेम भक्ति से पूर्ण भोग है
अर्पण तुझको भगवन
ग्रहण करो तुम भाव ये मेरे
हो आनंदित मन तन

अहम् क्रोध विद्वेष को तज कर
हृदय करूँ मैं निर्मल
निर्लिप्त रहूँ मैं जग में रह कर
ज्यूँ पंकज कोई खिल कर
प्रेम तुम्हारा राह दिखाए
रौशन हो हर कण कण
ग्रहण करो तुम भाव ये मेरे
हो आनंदित मन तन .......

भक्ति मेरी निश्छल ईश्वर
नहीं पास कुछ मेरे
मन मंदिर में बसा के तुझको
पाँव पखारूँ तेरे
जो कुछ भोगा जग में मैंने
सर्वस्व तुझी को अर्पण
ग्रहण करो तुम भाव ये मेरे
हो आनंदित मन तन.....

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

जीवन का भेद....

#####

भेद बड़ा गहरा है यारों
सोचो समझो इसको जानो
जीवन में पाना क्या तुमको
अपने भीतर उसको ठानो

जो भी पाना है तुमको फिर
महसूस करो उसके आने का
हर पल अपने अंतर्मन में
विश्वास करो उसको पाने का

तुम्हारी सोचे यकीं तुम्हारा
फल देगा मनचाहा तुमको
जीवन में सब मिलता ही है
जो होता मिल जाना तुमको

जब भी संशय होगा मन में
मनचाहा ना मिल पायेगा
डरोगे जिससे , 'ना हो जाए '
काम वही फिर हो जायेगा

सोच दृढ कर अभीष्ट की अपने
जीवन को तुम जी लो यारों
जीवन में क्या पाना खोना
सब कुछ तुम पर निर्भर यारों .... ....



बुधवार, 18 अगस्त 2010

लिबास ...(आशु रचना )


###

लिबास से
उसके
लगाया था
कयास
उसकी
शख्सियत का

कितनी
गाफिल थी ,
लिबास से
होता है
अंदाज़ा
फक़त
हैसियत का

वो भी तो
होता है
गुमाँ
ज़्यादातर
निगाहों का
ही
लेकिन

दिल पर
नहीं होता
असर
कभी,
ऐसी
किसी
कैफियत का ....

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

साकी ....

तूने जबसे सीख लिया है
मदहोश बनाना साकी को
कितने भी मयकश आये जाएँ
मुश्किल है लुभाना साकी को ....

भूली सब अपना बेगाना
याद नहीं अब खुद की भी
तेरे इश्क में डूब गयी है
पार ना जाना साकी को .....

तेरे क़दमों की आहट से
धडके दिल ,लरजे तन मन
बारिश में अब इश्क की तेरे
भीग ही जाना साकी को...

तूने तो तौबा की है अब
मय को हाथ लगाने की
पर चाहत का ये पैमाना
आता छलकाना साकी को ..

झुक जाती है सजदे में
खुदा बना उसका तू ही
कैसे समझे कैसे जाने
बेदर्द ज़माना साकी को....

बोझिल......(आशु रचना )


####

मिलन के
पलों को,
जुदाई की
सदियों से
जोड़ने वाला
क्षणों का पुल
अकेले
पार करते हुए
बोझिल
हो उठती हूँ
मैं ....
चलो ना!!
जुदाई की
सदियों तक
चले
हाथों में हाथ लिए
इस पुल पर
और
विदा के
इस क्षण को
संजो कर
गुज़ार दें
उन सदियों को,
पुल के
उस तरफ
घटित
मिलन के
पलों को
देख
अपने
साथ का
एहसास लिए ........

सोमवार, 16 अगस्त 2010

भाई...(आशु रचना )


###

तुम मुझसे पहले आये थे
चले गए फिर मुझसे पहले
बड़ा भाई ना मिल पाने के
ज़ख़्म कभी मेरे ना सहले


जब भी कहती तुम होते गर
मैं कितनी खुशकिस्मत होती
माँ कहती थी ,तुम होते तो
मैं फिर इस घर में ना होती

बचपन यौवन सब बीता यूँ
नेह तुम्हारा मिल ना पाया
वंचित रही भाव से ,जो था
भ्रात सुरक्षा का हमसाया

तुमको ढूँढा मैंने उसमें
जरा भी मन जिससे जुड़ पाया
पर राखी बंधवा कर भी वो
बहन मान ना मुझको पाया

थोथे होते नाम के रिश्ते
भाव ना अंतर्मन से आते
भाई बहन का नाम लगा कर
अपमानित क्यूँ यूँ कर जाते

तुषार ...(आशु रचना )


#####

ज्यूँ सागर से
होता है
वाष्पित जल
पा कर
ऊष्मा
सूर्य की .....
यूँही
भाव हृदय के
हो कर
वाष्पित
प्रेम ऊष्मा से
छा जाते हैं
आँखों के आसमां
में
बदली की तरह ...
नहीं मिलता
बरसने को
जब
अनुकूल मौसम
इनको ,
तो ,
आँखों की ये नमी
बनके
तुषार
बिखर जाती है
रिश्ते पर
अपने ....
हूँ प्रतीक्षारत ..
इस सर्द मौसम में ,
धूप के लिए
पिघलाने को
ये तुषार
तेरी
बस एक
तप्त दृष्टि
बहुत है ......

मंज़िल का मेरी हो एहसास...

#####

चलते चलते
उजाड़ राहों पे
हो रहे थे
पाँव शिथिल
उखड़ रही थी
सांस...
बेतरह
सूख रहा था
गला
लगी थी कैसी
प्यास...
नहीं था कोई
आसार पानी का
दिखती ना थी
छाँव की भी
आस...
अचानक
मिल जाना
तुम्हारा,
भर गया
मुझमें
कैसा
विश्वास....
बढ़ चली
उत्साहित
हो मैं,
भूली
कंठ सोखती
प्यास...
चले हैं
हम
साथ यूँ जैसे
जुडी है
एक दूजे से
अपनी
साँस...
छाँव भी
तुम हो
जल भी
तुम ही,
तुम ही
मंजिल का मेरी
हो
एहसास.......

सन्नाटे.....(आशु रचना )...


####

समेट कर
एहसास सारे
दिल से
अपने,
भर लिए थे
मैंने
निगाहों में
अपनी ...
छलकती नज़रों की
ज़ुबान पढ़ने में
थे शायद
नाकाबिल
तुम,
कर एहसास
इसका
दिए थे लफ्ज़
उन एहसासों को
गुज़रे थे
जो लबों से
मेरे ....
गूँज रहे हैं
वो लफ्ज़
मेरे दिल के
सन्नाटे में
शोर
बन कर,
जो
लौट आये हैं
टकरा कर
तुम्हारे
कानो के
बंद
दरवाजों से .....
चलो !!
कम से कम
दिल के
सन्नाटे में
कोई
चहल -पहल
तो है ......




रविवार, 15 अगस्त 2010

मोहब्बत और आजादी ...

###

डरता है वो
कि
हो ना जाए
वो
किसी की
मोहब्बत में
गिरफ्तार ....
हैरान होता है
कि
कैसे कर पाती हूँ
मैं
किसी से
इतना प्यार

नादाँ है
नहीं जानता
जिंदगी के
इस छोटे से
राज़ को ,
मोहब्बत
नहीं करती
गिरफ्तार
कभी किसी
परवाज़ को

रहती है
जब तक
आज़ादी
और
मोहब्बत
जुदा ,
नहीं होता
महबूब
किसी के लिए
तब तक
खुदा ...

लगायी
नहीं कोई
पाबन्दी
खुदा ने खुद
अपनी
परस्तिश में,
उलझता है
इंसान
फिर क्यूँ
इश्क की
बेजा
आजमाईश में...

जब तक होंगे
आज़ादी
और
मोहब्बत
दो अलहदा
एहसास ,
घुटती रहेगी
यूँही
जिंदगी की
हर
आती -जाती
सांस...

डूब जाना
मोहब्बत में
नहीं है
गिरफ्तारी
इश्क की ,
है ये आज़ादी
फ़ैल जाती जो
ज़र्रे ज़र्रे में
जैसे महक
मुश्क की .....

शनिवार, 14 अगस्त 2010

स्वाति नक्षत्र ...

###

मैं हूँ
वो सीप
कि
पाने की
जिसको
बूँद के
जल्दी
नहीं
होती ....
करती
प्रतीक्षा
स्वाति नक्षत्र
की
बने बूँद
जब
सच्चा
मोती.....

खौफ नहीं रहजन का ..दौलत को मेरी

#####

स्व-ज्ञान की
नन्ही गठरी
चली थी
संभाले
अनजान
राहों पर ....
किया इजाफ़ा
रहबरों ने उसमें
अपनी
दौलत से
जो कमाई थी
उन्होंने
चलते हुए
इन्ही राहों पर
मुझसे पहले ...
बढ़ता गया
सरमाया मेरा
काबिल हुयी
दे पाने में
मैं भी
निरंतर बढ़ती
दौलत को...
खोली है गाँठ
जबसे
गठरी की
मैंने,
होती जाती हूँ
और भी अमीर
और
शादमां मैं
क्यूंकि
नहीं हूँ
खौफ़जदा
किसी
रहजन
के होने से ......

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

प्रिये ...(आशु रचना )


######

तुम सात समुन्दर पार प्रिये
मैं विरहन तुमको याद करूँ
इक खबर कोई पहुंचा आओ
हर शै से ये फ़रियाद करूँ

ये मेघ तो नहीं बंधे हैं यूँ
जैसे मैं सीमाओं से बंधती
गर पवन के जैसे होती मैं
छू छू कर तुमको मैं गंधती
ये सब तुमसे मिल आते हैं
मैं कैसे दिल आबाद करूँ
इक खबर कोई पहुंचा आओ
हर शै से ये फ़रियाद करूँ

तुम भी तो छुप छुप कर मुझको
खत लिखते हो खत पढते हो
कभी ख़्वाब में मुझको पाते हो
कभी कविताओं में गढते हो
ये प्यार ना कोई बंधन है
जिससे मैं तुम्हें आज़ाद करूँ
इक खबर कोई पहुंचा आओ
हर शै से ये फ़रियाद करूँ
तुम सात समुन्दर पार प्रिये
मैं विरहन तुमको याद करूँ ...




समर्थन -(आशु रचना)


####

ताक पर
रख कर
सोचों को
अपने...
करते जाना
समर्थन
प्रिय की
बात का ,
नहीं है
प्रेम सहज
अपितु
बन जाता है
कारन
अंतर्घात का ...

प्रेम नहीं
इक जैसा
होना ,
प्रेम तो है
बस
सच्चा
होना ..
हो
स्वीकार
अस्तित्व
प्रिय का,
किन्तु  
निज का
अस्तित्व
न खोना

अंतर
सोचों में
होता जब
विकसित
दोनों ही
होते हैं
खुले हृदय से
जाने समझे
नहीं
दूसरे को
ढोते हैं...

नहीं
विसंगति
प्रेम की
दुश्मन
गर मन
से सम्मान
करो तो ..
"तुम -मैं"
"मैं -तुम'
भेद छोड़ के
'हम" को ही
स्वीकार
करो तो ......

तुम भाल का मेरे चन्दन हो.....

######
मैं चरणों की हूँ धूल तेरे
तुम भाल का मेरे चन्दन हो
रों रों गुंजारित है जिससे
मुझमें बसते स्पंदन हो

कुछ और ना जाना जब से तुम
महके मेरे इस जीवन में
मेरे होठों की हर हंसी हो तुम
हृदय का हर इक क्रंदन हो
मैं चरणों की हूँ धूल तेरे
तुम भाल का मेरे चन्दन हो .....

पलक पांवड़े बिछा के मैं
करूँ प्रतीक्षा पल पल यूँ
तुम कहो,क्या तुमको लगता है ?
ये प्रेम मेरा एक बंधन हो !!
मैं चरणों की हूँ धूल तेरे
तुम भाल का मेरे चन्दन हो

बेपरवाह खुद को दिखलाते
पर साथ सदा रहते प्रतिपल
दुर्गम राहों पे चलने का
एकमात्र तुम्ही अवलंबन हो
मैं चरणों की हूँ धूल तेरे
तुम भाल का मेरे चन्दन हो

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

घूंघट..(आशु रचना )

####

वधु संभाले,रूप की गागर
छलकत जाए घूंघट से..
सलज हंसी की खनक कहो
कैसे रुक पाए घूंघट से ....

उमंग तो मन की छल छल छलके
रोम रोम से बन्नी के
नज़रें बोझिल .कम्पित हैं लब
झाँक रहे जो घूंघट से.....

हाथों का कंगना भी खन खन
बज उठता हर धडकन पर
नथनी डोल रही साँसों पर
चमक दिखाती घूंघट से ....

स्वपन अनगिनत हृदय संजोये
मंथर गति से आन रही
प्रियतम द्वार खड़े हैं आ कर
उन्हें निहारे घूंघट से ........

अँधेरा ...(आशु रचना )


####

एहसासों की कब्र बनी थी
मन में छाया घोर अँधेरा
दफ़न भले ही पर जिन्दा थे
मान्यताओं का लगा था पहरा

तेरे नूर की बारिश से फिर
बह गयी मिटटी उघड़ी परतें..
चीर के घोर अँधेरे को फिर
रौशन हुई अनजान हसरतें

सोचा समझा जाना निज को
भेद गहन फिर खुल के आया
उनकी मौत से पहले ही क्यूँ
एहसासों को यूँ दफनाया

ऐसा जीवन क्या जीवन है!!
जिसमें जीवित दफ़न हो कोई
आँख खुली और निद्रा टूटी
अब तक बेसुध क्यूँ थी सोयी!!

जीवन के चलते ही दीपक
जला लूं अंतर्मन का अपने
जिन्दा एहसासों को जी कर
जी लूं अपने सारे सपने .......



बुधवार, 11 अगस्त 2010

महसूस....


###
हो जाते हैं
महसूस
नेह के नाते,
स्पंदन नहीं
होते
मोहताज
दूरियों के
कभी ...
न हो
फितरत
गर
महसूस
करने की
दिल से ,
रह जाते
अजनबी
एक छत के
नीचे भी
सभी.....

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

प्यास.....

###

तेरी
निगाहों का
ये,
मदमाता
एहसास है
हुई
मदहोश
जिसमें,
मेरी
हर इक
सांस है..
मानिंद
शोलों की ,
भड़कते हुए
जज़्बात मेरे
आसां
नहीं
बुझाना,
जानां !!
ये ,
रूह की
प्यास है ...
---------------------------------

और उसने कुछ यूँ कहा :
##########

प्यास प्यास
होती है
जानां..
रूह की भी
जिस्म की भी...

प्यास में
जुड़ती है
जब आस
और
हो जाते
महसूस
एक दूजे के
एहसास,
प्यास
खुद बा खुद
बन जाती है
सांस...

रज़ा.....

####
शुक्रगुजार हूँ ,
मिला
है
जो भी
मुझको
उसमें
रज़ा है
तेरी ...
चाहा मैंने
पर
मिला नहीं
जो कुछ
उसमें भी
है शामिल
मर्ज़ी तेरी...
क्या शिकायत
तुझसे ए खुदा !!
बेहतर
तुझसे
कौन
जानता है
काबिलियत को
मेरी.....!!!

रविवार, 8 अगस्त 2010

आसमां...(आशु रचना )

####


आसमां , ये मन का मेरे
विस्तृत नील गगन के जैसा
अरमानों के छाते बादल
चित्र बनाते कैसा कैसा ...

कभी श्वेत रुई से बादल
बिल्ली जैसे बन के दिखते
कभी सलेटी स्याही बन कर
नभ में कुछ आखर से लिखते
पढूं वो आखर ,समझ न पाऊं
ज्ञान मिला मुझको न ऐसा
अरमानों के छाते बादल
चित्र बनाते कैसा कैसा ....

कभी सूर्य को ढक कर बादल
दे जाते ठंडक सी मन को
कभी शीत में उसी वजह से
ठिठुरा जाते ,कोमल तन को
हर मौसम में रंग बदलते
रूप नहीं कोई इक जैसा
अरमानों के छाते बादल
चित्र बनाते कैसा कैसा ....

मंत्रमुग्ध कर जाते मुझको
आशा की किरने बिखरा कर
चित्रकार की कूची ने ज्यूँ
ढेरों रंग दिए छितरा कर
अलग अलग रंग जब जब देखूं
मन भी रंग जाता है वैसा
अरमानों के छाते बादल
चित्र बनाते कैसा कैसा ....

शनिवार, 7 अगस्त 2010

ख़्वाब ...(आशु रचना )


###

सजा
लिए हैं
कांच से भी
नाज़ुक
ख़्वाब
पलकों पे
मैंने
अपनी ....
तपिश
लबों की
तुम्हारे
करती है
पुख्ता इनको...
हो जाते हैं
ये पारदर्शी
और
बेहद सुन्दर
जैसे
निखर
आता है
कांच
तपन को
सह कर ....
जागती
आँखों के
ये ख़्वाब
नींद भी तो
आने नहीं देते
इन
आँखों में
अब
ख़्वाब
बदलें
हकीक़त में
तो
शायद
सो पाऊं
सुकूँ से
मैं भी .....


शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

अहम् ....

#####

अहम् तुष्ट करने को मानव
क्या क्या ढोंग रचाता है
धोखा देता 'स्वयं' को पहले
फिर जग को भरमाता है

झूठे चेहरे लगा लगा कर
बिना बात मुस्काता है
हीन भावना से बचने को
उपद्रव ढेर मचाता है

ढूंढ के कमियाँ दूजों में वह
गुण अपने गिनवाता है
मूर्ख बड़ा ये भी ना जाने
सत्य कहाँ छुप पाता है

चाह रहे ये , पाए प्रशंसा
खेल यूँ खूब रचाता है
दिखा के नीचा औरों को पर
खुद नीचा बन जाता है

ठेस जरा सी सह नहीं पाए
अहम् तुरंत उकसाता है
राई बराबर बात हो कोई
पर्वत वो बनवाता है

'स्वयं' जागृत हो जाता जब
'अहम्' टूटता जाता है
कोमल नम्र उदार "स्वयं' से
'अहम्' हारता जाता है.......

बुधवार, 4 अगस्त 2010

पैमाना ..लम्हों का...


******
पैमाना
मेरे लम्हों का
भर देते हो 
तुम
खिलखिलाहटों से ,
उदासी का 
देख कर
उनमें
एक कतरा भी ....

छलकते जाम सी
छलकती हैं
खिलखिलाहटें ..
हो जाता है
समां हसीन
और
पुरनूर 
मेरे आस पास भी....

लम्हों में
भरती
उदासी को
बदल सके जो
मुस्कुराहटों में,
सिवा तुम्हारे
नहीं ऐसा
यहाँ कोई भी .....

भरता
जा रहा है
आज ,
पैमाना
मेरे लम्हों का ,
उदासी से,
जानती हूँ
एहसास है ये
तुमको भी .....

चले  आओ.. !!
भरने को
इस थोड़े से
खाली बचे
प्याले में
खिलखिलाहटें  ...
कहीं छलक उठी
उदासियाँ
तो डूब जायेगी
उस सैलाब में
कायनात भी.......

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

मेरा अस्तित्व ..!!!


####

कहते ही मेरे
कि
होना चाहती हूँ मैं
"स्वयं" में ..
बिना किसी के
साथ के ..
उतर आये थे
प्रश्नचिन्ह
ढेरों
नज़रों में
तुम्हारी
और
गुजर कर
नज़रों से
बिखर गए थे
तुम्हारे
चेहरे पर

छुप गयी थी
पहचान
तुम्हारी
उन प्रश्नचिन्हों के पीछे..
असंख्य
प्रश्नचिन्हों के मध्य
बन गया था
अस्तित्व तुम्हारा
जैसे स्वयं एक प्रश्न ...
"क्या मेरे भी बिना ???"

क्यूँ
स्वीकार नहीं लेते
कि मैं हूँ
एक अस्तित्व
"स्वतंत्र"
तुम्हारे बिना भी ..

हैं हम साथ
क्यूंकि
किया था
कुछ अपनों ने
निर्धारित,

जीते हैं
साथ
ये जीवन
करते हुए
कर्तव्य पूरे
अपने
जो अपेक्षित हैं
उन्ही अपनों के द्वारा,
बिना जाने बूझे
एक दूसरे के
अस्तित्व को ....

स्वयं को जाने बिना
कैसे जान सकती हूँ
मैं तुम्हें
या
तुम मुझे !!!
खोजने को
स्वयं की पहचान
नहीं चाहिए
बंधन
समाज द्वारा
निर्धारित किये
मानकों का
ना ही चाहिए लाठी
ओढ़े हुए रिश्तों की ...

बाहरी व्यवस्थाओं से
निर्बाध हो
जीना चाहती हूँ
सिर्फ और सिर्फ मैं
अपने अंतरंग में
कुछ लम्हे
एक नारी हो कर ....

दिया -लिया है
कई सालों
हमने
एक दूजे को
बहुत कुछ
किन्तु !!
पहचानने को
स्वयं का अस्तित्व
चाहिए एक
खुला आकाश
और
एक
विस्तृत सोच
जो देना चाहती हूँ
तुम्हें और
मांगती भी हूँ
तुमसे
बस यही..
बस यही...!!!!

`

सोमवार, 2 अगस्त 2010

मौसम का क़हर भी ...


#####

आ आ के लौटी है ,साहिल से लहर भी
आ जाएगा महबूब तेरा,दो पल तो ठहर भी

इक लम्हा भी मिल जाए सुकूँ ,इस उम्मीद पे
जी लूं ग़म-ए-दौरां के कुछ और पहर भी

कुछ खौफ़ नहीं इनको तारीकी-ए -शब से
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी

इक तो यूँही कटती नहीं हिज्र की रातें
उस पे है क़यामत हसीं मौसम का क़हर भी

रुकना नहीं फितरत मेरी, हूँ बहता हुआ दरिया
बांधों ना किनारों को ,बनाओ ना नहर भी

लफ़्ज़ों में उतर आते हैं जज़्बात मेरे जब
क्या फ़िक्र ,ग़ज़ल में अगर , ना हो बहर भी

क्या अपना क्या पराया....

####

जग ने दी थी
परिभाषाएं,
अपना कौन ,
है कौन पराया !
स्पर्श किया
हृदय ने
सत्व को
बाकी सब
बिसराया ....

इस जग की
हर शै में
कोई अपना
बैठा होता,
मन की
गहरी परतों में
कोई सपना
पैठा होता
वही तो सपना
बस है अपना
बाकी झूठ ही पाया....

मेघ ,दामिनी
पवन औ' पावस
हृदय से
सब जुड़ जाते,
खुशबू बसती
अंतर्मन में
फूल भले ही
झड़ जाते
वही तत्व
मन के कोने का
अपनापन कहलाया.....


भेद पराये अपने का
जाना जबसे
ये गहरा,
हुई मुक्त
निज पूर्वाग्रहों से
टूटा मन का
हर पहरा
स्वयं से  भी मैं
रही परायी
भेद
नज़र अब आया........

रविवार, 1 अगस्त 2010

अपनापन...(आशु रचना )


####
अपनापन होता है मन में
मन से ही पहचाना जाता
शब्दों के मीठे जालों में
हृदय कभी ना धोखा खाता

नहीं आश्रित रिश्तों पर यह
नहीं नाम की इसको परवाह
हृदय मिले जिनके आपस में
दुनिया से फिर क्यूँ हो चर्चा

मूक पशु भी समझते इसको
नेह स्पर्श सब जतला देता
मन से मन जुड़ जाते हैं जब
हृदय स्पंदन बतला देता

मत बांटो सीमाओं में तुम
अपनापन है इतना विस्तृत
दोगे जितना,कई गुना तुम
पा कर,हो जाओगे विस्मित॥



शनिवार, 31 जुलाई 2010

नदिया.....

नदिया..

####

पिघल पिघल कर जल से अपने
जग की प्यास बुझाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

चिर बहना ही जीवन इसका
दूर दूर तक जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

ले कर अपनी लहरों के संग
किसे कहाँ पहुंचाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

जिस तट को भी ये छू कर गुज़रे
हरा भरा कर जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

कूड़ा कचरा जग वालों का
बहा संग ले जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

प्रिय मिलन की उत्कंठा में
पल भर न सुस्ताती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

करे यात्रा युगों युगों तक
तब सागर को पाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती




शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

नाज़ुक मन ...

#######

मन के भाव
कभी शब्दों में
पूरे न गढ़ पाते,
कभी निरर्थक
परिहास भी
चोट बड़ी दे जाते ..

मन के आंसू
भिगो के मन को
जज़्ब वहीं हो जाते
दिल पर ठेस
लगी लफ़्ज़ों से
भाव मगर सहलाते ...

फिर भी मन
विद्रोही होता
समझ न कुछ भी पाता
बहलाती ,
फुसलाती इसको
पर लड़ता ही जाता ...

मान भरा मन
चाहे पल भर
साथ तेरे रहने को
बाँट दे सबको
जो तत्पर हैं
ग्रहण तुझे करने को ...

उस एक पल के
साथ में झोली
भर जायेगी मेरी
डूब के तेरे
प्रेम में हस्ती
तर जायेगी मेरी ......

जीवन का अंकगणित ...

####

जीवन के इस अंकगणित में
इधर उधर क्यूँ जोड़ घटाना
अहम को खुद से घटा घटा के
है अभीष्ट बस शून्य को पाना

क्रोध ,अहम,ईर्ष्या द्वेष सब
जब घट जाते मन से प्राणी
शुरू प्रक्रिया पूजन की होती
विधि नहीं ऐसी कोई जानी

निर्मल मन प्यारे ईश्वर को
जिनमें कलुषित भाव न कोई
जोड़ करो सच्चे भावों का
दया प्रेम करुणा जो होई

करो विभाजित दुःख दूजे का
गुणन करो निज सुख का रब से
जितना सुख अंतर में होगा
बाँट पाओगे वो ही सबसे

हर विचार को घटा दो मन से
लोभ ,मोह, इच्छा हैं जो भी
शून्य को पाना है गर तुमको
करों गुणन स्वयं शून्य से तुम भी

शून्य सम जब हो जाओगे
ईश समा जायेंगे तुममें
बन जाओगे बंसी उनकी
स्वर फूटेंगे उनके जिसमें



........................................
........

बुधवार, 28 जुलाई 2010

अरमान-(आशु रचना )


####

बड़े जतन से
बहला फुसला कर
छुपाये थे पंख
मैंने
अरमानो के अपने....
बरसों बरस
नहीं था
एहसास
पंखों के
होने का
इनको ....
पर
आने के साथ ही
तुम्हारे
जान गए हैं
अस्तित्व
अपने पंखों का
मेरे अरमान .....
लाख समझाने पर भी
उड़ लेते हैं
फडफडा के पंख
विस्तृत नभ में ...
लेकिन .!!
अब बहुत दिन हुए
उड़ नहीं पाए हैं
अरमान मेरे,
भीगे पंखों को
समेटे बैठे हैं
उस बारिश के बाद
जो बरसी थी
वक्त-ए -जुदाई
नैनों से अपने ...
नहीं निकला है
तब से
तेरी
आवाज़ का सूरज भी
आओ न !!
तोड़ के
तिलिस्म
बादलों का
दिखा दो न
धूप
मेरे अरमानो को...



चेतन...(आशु रचना )

####

सत्य को पाने को होते
बस दो ही हैं रास्ते
डूब के पाओ मृत्यु में या
खो जाओ जीवन के वास्ते

पर दोनों में साम्य है गहरा
चेतन मनवा कहीं न ठहरा
डुबो के जीवन या मृत्यु में
सजग रहे चैतन्य का पहरा

वरना जीवन सभी हैं जीते
फिर क्यूँ मन रह जाते रीते
मौत भी क्या सच दे पाती है
मिल जाती जो सहज सुभीते

बिन चेतन के राह न कोई
ढूंढें गाफ़िल ,मंज़िल खोयी
हर पल का आनंद है जीवन
सजग दृष्टि जब जब न सोयी

बुद्ध ने पाया त्याग के जीवन
मीरा पा गयी प्रेम लगन संग
पायी दोनों ने ही मंज़िल
निमित्त बना था उनका चेतन

करो जागृत इस चेतन को
निज को देखो,जानो ,परखो
बढ़े चलो बस राह सत्य की
करो न विचलित अंतर्मन को .......

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

हबीब अपने...

####

लगने लगे हैं चेहरे अब अजीब अपने
भुलाएं कैसे उसे,दिल के जो करीब अपने

गिरा है वक़्त के पहलु से वो हसीं लम्हा
जुड़े बेतार थे जिससे कभी , नसीब अपने

किस का हो सहारा इस दर्द-ए-जिगर को
लदे हैं कांधों पे खुद सबके, सलीब अपने

इश्क का फलसफा समझ आएगा कैसे
ढूंढते हैं किताबों में उसे अदीब अपने

हो न जाए जुम्बिश नज़रों-औ -लबों की
बज़्म में बैठे हैं जानां कई रक़ीब अपने

पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मेरा चित्र....

####

चित्र बनाया मेरा जब भी
हर अपने पराये ने
थी हैरान मैं देख विविधता
खुद अपने ही साये में

कोई चित्र न मेरे जैसा
हुआ भ्रम ये कैसा सबको
साम्य नहीं उनमें भी कोई
था अचरज ये भी तो मुझको


दी तस्वीर थी सबको अपनी
जो मैंने निज की जानी थी
पर खींचा खाका सबने जो
सोच सभी की अनजानी थी

देखी फिर तस्वीर जो अपनी
राज़ ये मुझ पर खुल के आया
चित्र नहीं ,वो एक आईना
इसीलिए था जग भरमाया

जिसने देखा उसकी जानिब
अक्स खुद ही का उसमें पाया
उसी अक्स को समझ के मेरा
चित्र मेरा मन में उतराया

समझ गयी जब बात ये गहरी
मन हल्का जैसे हो आया
विचलित होना व्यर्थ है मित्रों
किसने हमको कैसा पाया ......!!!!!

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

साथ ही हैं हम.....


#####

गुज़रते
वक़्त के
संग ,
हो रही
सांसें भी
अब
मद्धम ...
चले आओ,
छुपा लो
मुझको
बाँहों में
मेरे हमदम ....

संजो लूं
मैं
तेरी
हर
सांस,
हर
धड़कन
मेरे
दिल में ...
यही
एहसास
पाने को,
हों पल
कुछ
साथ
कम से कम ....

तेरी
नज़्मों को
छू कर,
छू लिया
जैसे
तुझे
मैंने ...
मिलूंगी
मैं भी
बन
गज़लें,
चले
जब भी
तेरी कलम ....

ये माना
दूर
होगे तुम ,
निगाहों से ,
छुअन
से भी ...
पवन
पुरवा
छुए
तुमको ,
समझना
छू रहे
हैं हम .....

हैं आँखें
नम

दिल भारी
घड़ी वो
आ गयी
आख़िर.....
निकलती
जान
जिस्मों से,
जुदा
होने को
है धड़कन ....

विदा
लेने को
आये,
कस के
बाहों में
कहा
तुमने....
क्यूँ
रोती हो,
कहाँ दूरी
ये देखो ,
साथ ही हैं हम .....

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

सच्चा झूठ.... !!!!

#######

मेरी
साँसों से
गुज़र कर,
मेरे
एहसासों को
छू कर
उतर
जाते हो
गहरे उनमें,
हो जाते हो
उन्ही
में से
एक....
बन कर
एक
अनछुआ
एहसास
हो जाते हो
करीब मेरे
कल्पनाओं में
मेरी ,
और हो
उठता है
चन्दन सा  
सुवासित ,
ये तन
और
मन मेरा
जीती हूँ
उस एहसास
में डूब कर
वे चंद 
खूबसूरत 
लम्हे
जो नहीं बनते
हकीक़त कभी ...
रोम रोम
देता है
गवाही 
होने की 
तुम्हारे
और
सतह पर
होने की
बात कह
बहकाते हो
तुम ,
मुझे नहीं
खुद को....
नहीं है
अपेक्षा
प्रतिदान की 
शब्दों में,
नहीं है
अनिवार्य
तुम्हारा
सोचना भी
मुझको ,  
खुश हूँ
पा कर 
तुम्हें,
मेरी
और
सिर्फ मेरी 
उस दुनिया में
दूर है जो
हकीक़त से ...
पर !!
हो तुम
किसी भी
हकीकत से
ज्यादा सच्चे ,
कैसे
झुठला
पाओगे 
इस सच को ??
बार बार
नकारने से
"सच "
कभी
"झूठ"
हुआ है क्या ???

सोमवार, 19 जुलाई 2010

जड़ें-एहसासों के दरख़्त की

जड़ें-एहसासों के दरख़्त की

####


मन की
भूमि पर
उगे
एहसासों के
दरख़्त को
सींच कर
नेह जल से
कर लिया है
जड़ों को
अब
मजबूत इतना
कि तूफ़ान कोई
विचारों का
नहीं सकता हिला
जड़ों को
इस दरख़्त की  ..
नहीं
टिक पाते
पत्ते भले ही
इन तूफानों के
सम्मुख
और
हो उठता है
भ्रम
वीरानियों का
किन्तु
रहता है
सत्व
अक्षुण्ण
प्रवाह में
और
फूट आती हैं
कोंपलें
फिर से
इन दरख्तों पर
जड़ें हैं जिनकी
गहरी
मेरे मन के
गहरे
दृढ तल में ......

चाहत ...

पूछा था उसने
" साथ मेरे
क्या मिल रहा है ,
जो चाहती हो तुम ??"
निहारा था
निर्निमेष
उसे
मैंने,
दिल से
उठी आवाज़ को
पहुँचाया था
उस तक
अनकहे
अलफ़ाज़
और
मुस्कुराती आँखों के
ज़रिये...
मुस्कुरा दिया था
यह अनकहा
सुन कर
वो भी
"इस
नायाब साथ
के बाद
कुछ और
चाहना
बाकी ही
कहाँ !!!" .......

========================
और मेरी इस नज़्म को पढ़ कर मेरे अभिन्न मित्र की  प्रतिक्रिया  कुछ यूँ थी

###########

अजीब सा
सवाल था
उसका,
नज़रों को 
देख कर
कर रहा था
वो अनदेखा..

या था वो
नासमझ
नादां और
भोला,
तभी तो उसने
शबनम को
समझा था
शोला..

महसूस कर
एहसासों को भी
पूछ रहा था वो
शायद
खुद से ही खुद
जूझ  रहा था वो..

चाहत और
राहत को
अल्फाज़ देने की
हर कोशिश
होती है
नाकामयाब,
क्या कह सकता है
तफसील से
कोई अपनी
रातों का ख्वाब !

कुछ बातें
होती है
इतनी नायाब,
अच्छा होता
लफ़्ज़ों से
नहीं बस
मुस्कान से देती
तुम जवाब..

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

चले जाने को हैं अब वो....

#####

चले जाने को हैं  अब वो
ये दिल बेकल हुआ है यूँ
कि उनके प्यार की  खुशबू
जरा  साँसों में मैं भर लूँ

सजा लूँ मैं बदन  अपना
छुअन से उनके होठों की
चढ़े रंग यूँ  मोहब्बत का
खिले जैसे बसंत हर सूं

निगाहें गर मिलीं  उनसे
अयाँ हो जायेगी हालत
सिमट के उनकी बाहों में
छुपा लूं आँख के आंसू

मिलन के दिन बहुत छोटे
विरह की रात है लंबी
तड़प इस दिल की है कैसी
ये वो समझे या मैं जानूँ ...
चले जाने को हैं अब वो
ये दिल बेकल हुआ है यूँ .....

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

क़दमों के निशाँ

खोजती हूँ
पदचिन्ह
तुम्हारे ,
दरिया-ए -वक्त
के साहिल की
रेत पर ...

रख कर
कदम
अपने ,
तेरे
क़दमों के
निशाँ पर,
पाती हूँ
सुकूँ ,
खुद को
तेरी
हमसफ़र
समझ  कर ...

लेकिन
हर
अगले
पल की 
लहर
मिटा
देती है 
वे चिन्ह
पहुँचती हूँ
तुम तक
मैं
जिनको
छू कर .....

धकेल
देती है
कश्ती
तुम्हारी ,
वक्त की
लहरें,
परे मुझसे ,
हो जाते हैं
दूर हम
मजबूर
हो कर
 ...

मैं गुम सी
साहिल पर
खड़ी
ढूंढती हूँ 
जाने क्या !
क़दमों के
निशाँ तो
बनते नहीं
हैं ना
पानी पर....!!!

================================================

प्रत्युत्तर..

कभी कभी किसी पल किसी मानसिक अवस्था के तहत कुछ सवाल उठते हैं और उन्ही सवालों के जवाब किसी दूसरे पल स्वयं से ही मिलने लगते हैं ....इस रचना का प्रत्युत्तर जो मन की गहराईयों से ..स्वयं की अनुगूंज सा उभर कर आया ..आप सबसे शेयर कर रही हूँ..

पहली रचना में जो सोच किसी को केन्द्र में रख कर लिखी गयी है.. उस सोच का प्रत्युत्तर उस किसी की तरफ से लिखने की कोशिश करी है ..


============================================================
खोजा करते हैं
पाँव के
निशानों को
जो,
होती नहीं
कुवत
उनमें
अपनी राहें
बनाने की ..

तुम नहीं हो
उनमें से
फिर क्यों
होकर
महकूम
मोहब्बत की
खोजती हो
निशाँ ऐसे
जो नहीं
मुझ तक
सिर्फ ,
जा सकते हैं
और भी कहीं .....

हमसफ़र तो
चलते हैं
संग संग
कदम दर कदम ,
नहीं भूलते
बेदारी
अपनी
रख कर
कदम पर
कदम....

लहरों के
हाथों
लिखा हो
मिटना
जिनका
अहमियत
क्या
ऐसे
निशानों की
जिंदगी में
अपनी

हर छोड़ा हुआ
निशाँ
पहुँचता है
इसी
अंजाम तक,
उड़ो !
उड़ान अपनी ,
पहुंचाएगी
तुम को
वही तो
मुझ तक
उड़ने को साथ
बेपायाँ
फलक में ..

मजाल
क्या है
वक़्त की
जो धकेले
कश्ती को
हमारी,
वक़्त
हम से हैं
हम
वक़्त से नहीं..

क्यों खोजती हो
रूक कर
उनको
जिनका नहीं
वुजूद कोई,
माज़ी के
निशाँ है बस
महरूम
ज़िन्दगी से...

देखते
रहने से
सतह
पानी की
नहीं
मिला करते
गौहर ,
छोड़
साहिल को
होगा डूबना
हमें
मंझधार में,
लगायेंगे गोते
और तैरेंगे भी,
और
जा पहुंचेंगे
उस पार...
उस पार...

मायने --

कुवत-सामर्थ्य
महकूम -गुलाम
बेदारी -जागरूकता
अहमियत-महत्व
बेपायाँ-असीम
फलक-आकाश
वजूद-अस्तित्व
माज़ी-विगत
गौहर -मोती
 
 
 

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

अखंडित अस्तित्व

######

बंटती हूँ
सुबह से
शाम तलक
ना जाने
कितनी बार
अलग अलग
रिश्तों में...
देता है
ऊर्जा ,
इन
टुकड़ों में
बंटने की  
मुझको ,
मेरा
अखंडित
अस्तित्व
जो होता है 
उन चंद
लम्हों में ,
होती हूँ
जब
मैं
सिर्फ
'मैं' ..
बिना नाम
और
रिश्ते के
तुम्हारे
पहलु में
तुम्हारी 
यादों में ....

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

निगाहों की आशनाई है

######


मेरी नज़र में ,तेरे इश्क की रानाई है
तेरे खयाल ने लब पे  हंसी सजाई है

हुआ करे है तेरे साथ ज़िक्र मेरा भी
बहुत हसीन सनम   इश्क में रुसवाई है

थे तन्हा बज़्म में ,अजनबी चेहरों से घिरे
करार दिल का  तेरी याद ले के आई है 

तलाश आज भी है  फुरसतों के लम्हों की
गवाह जिनकी रही, सूनी पड़ी अमराई है

मेरे वजूद पे अक्स तेरा छा  गया ऐसे
पूछते लोग हैं कि  क्या  तेरी परछाई है

डुबो के खुश हूँ  सफीना तेरी मोहब्बत में
लहर जुनूं की  किनारे पे ले के आई है

धडकनें भी मेरी अब गीत तेरे गाती हैं
हुई जब अपनी निगाहों की आशनाई है

तुम्हारी याद से सोज़ां है मेरे दिल का चिराग
शम्मा है  बुझने को ,परवाना तमाशाई है !!

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

बेखुदी क्या है

=============================

खबर नहीं कि खुदी क्या है बेखुदी क्या है
गुज़रती जाती है बस यूँही जिंदगी क्या है

चले हैं साथ तेरे छोड़ के ये रस्मों रिवाज
तेरे खयाल में जाना कि बंदगी क्या है

वो रिंद क्या जो बहक जाए चंद घूंटों में
खुदी संभाल न पाए वो मयकशी  क्या है

हर एक ज़र्रे में पाया है नगमगी का ख़लूस
जो दे सुनाई न हर सिम्त मौसिकी क्या है

खिल उठती है मेरे लब पर हंसी अकेले में
छुए बिना भी तुझे  होती गुदगुदी क्या है

नहीं है खौफ ,तेरे दिल का नूर हूँ जबसे
टिकी सहर-ए-मोहब्बत में तीरगी क्या है

मायने-

बंदगी- पूजा
रिंद- शराब पीने वाला
नगमगी -संगीत
ज़र्रे-कण कण
ख़लूस -निष्ठा
सिम्त-दिशा
मौसिकी-संगीत
खौफ-डर
सहर-ए -मोहब्बत- मोहब्बत की सुबह
तीरगी-अन्धकार