खग पेड़ों पर रुके हुए
झील का ठहरा पानी कहता
हो पाते तुम काश यहाँ !
आसमान भी सूना सा है
बहते बहते थमी पवन
मूक धरा निश्चल हो कहती
हो पाते तुम काश यहाँ !
कण कण में गुंजार रही
हृदय कामना बिन बोली
मैं ही बस ये ना कह पाती
हो पाते तुम काश यहाँ !
नज़रें मेरी आतुर क्यूँ हैं
स्पर्श तेरा अनुभूत हृदय में
बसे हो मुझ में फिर क्यूँ चाहूँ
हो पाते तुम काश यहाँ !