बुधवार, 27 जनवरी 2010

कफ़स

कफस की क़ैद में
कर सकते हो
इस जिस्म को पाबंद
मगर सय्याद मेरे
निगाहों में बसा
आकाश मुझसे
कैसे छीनोगे...

करा ले जाएगा
आज़ाद इक दिन
ये ही जज़्बा
जिस्म भी मेरा
पतंग मन की उड़ेगी
डोर तुम फिर
कैसे खींचोगे ...

बनाया इक चमन
बाड़ों, दीवारों से
घिरा तुमने
जो गुल खिलता है
खुद दिल में
उसे तुम
कैसे सींचोगे...

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

फितरत -अश्कों की

पोंछना अहिस्ता से
बहते अश्कों को
और गहरी आवाज़
में पूछ बैठना
'रोती क्यूँ हो'
बढा गया था
अश्कों की बाढ़
को' इस कदर
की बह गया था
हर गिला शिकवा
उसमें घुल कर
भीग गयी थी
उस प्यार की
बरसती बारिश में
खिल उठा था मन
झूम उठा था तन
आवेग उस प्रेम का
दे गया था अश्क
आँखों को फिर से
और चकित से तुम
देख रहे थे..
आंसुओं की फितरत
को समझ रहे थे ......

रविवार, 24 जनवरी 2010

कान्हा मुरली वाले

"योगेश्वर कृष्ण " के लिए एक गोपी के क्या भाव हो सकते हैं उसे महसूस करके लिखने की कोशिश की है ...


कब से प्यासे दरस को तेरे नैन मेरे मतवाले
अब तो आज प्यास बुझाने ,कान्हा मुरली वाले

छवि विरजती हृदय में तेरी,देख देख इतराऊं
स्पर्श मगर तेरा पाने को,तडपत ही रह जाऊँ
कर साकार अब निराकार को,प्रेम मेरा अपना ले
अब तो आजा प्यास .....

भाव-भक्ति की नदिया में अब,गोते मैं यूँ खाऊं
प्रेम का दरिया उफन रहा है,कैसे पार लगाऊं
करे आत्मा तेरी कामना,देह को नाव बना ले
अब तो आजा प्यास बुझाने ...कान्हा मुरली वाले

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

जैसे....

छुअन से तेरी नजरो की,दहक उठे मेरे , रुखसार जैसे
हया से झुक गयी पलकें ,किया बेलफ्ज़ हो, इज़हार जैसे

थी किसकी हसरतें जाने,अज़ल से मुन्तजिर दिल में
मुक्कमल हो गया ,आने से तेरे, इंतज़ार जैसे

तब्बस्सुम आज हैं लब पर,अदाओं में भी शोखी है
था मुरझाया मुद्दतों दिल, रहा था, सोगवार जैसे

बुझाई है घटा बन के ही मैंने, तिश्नगी सबकी
भिगो दो अब तुम्ही मुझको,हो कोई , आबशार जैसे

समझ लो ना यूँही जानां ,कहानी झुकती नज़रों की
कि दिल करता है हर लम्हा ,उसी का , इश्तिहार जैसे

बुधवार, 20 जनवरी 2010

अनुभूति-शून्यता की


स्थिर उस क्षण का हो जाना
सिमट गया संसार वहीं तब
मुझमें तू और तुझमें हूँ मैं
घटित हुआ अद्वैत यहीं जब

हुआ पुष्प सा तन मन अपना
जड़ता कहीं ना थी भावों में
उत्कंठा भी प्रिय मिलन की
शांत हुई,कसती बाँहों में
हस्ती मिट गयी तेरी मेरी
'मैं' बाकी रह जाता है कब
मुझमें तू और तुझमें मैं हूँ
घटित हुआ अद्वैत यहीं जब......

परम शांति,चहुँ दिशा में
शंख ध्वनि सी थी गुंजारित
देव भी जैसे स्वर्गलोक से
करते स्नेह मन्त्र उच्चारित
विलय हुआ शक्ति में शिव का
पूर्ण किया वर्तुल हमने जब
मुझमें तू और तुझमें मैं हूँ
घटित हुआ अद्वैत यहीं जब......

पूर्ण ऊर्जा नर नारी की
हुई केन्द्रित उर-स्थल में
घटित हो गया ध्यान उसी क्षण
परम शून्य बस था उस पल में
पुरुष -प्रकृति, मिल कर दोनों
प्रेम हो गए ,बाकी क्या अब
मुझमें तू और तुझमें मैं हूँ
घटित हुआ अद्वैत यहीं जब......

जिस्मों का अस्तित्व मिट गया
मिली जो रूहें उनसे हो कर
समा गया विराट उन्ही में
हुए विलीन वो निज को खो कर
परम आत्मा से जुड़ने का
अनुभव हमने जाना है अब
मुझमें तू और तुझमें मैं हूँ
घटित हुआ अद्वैत यहीं जब......

उनींदी--(आशु रचना )


था वो एक ख्वाब
या हकीकत थी
उनींदी आँखों में
उतर आये थे तुम
सपना बन कर
संजो कर
छवि को तेरी
पलकों से
ढक लिया
था मैंने
कितना आसान
हो गया है
देखना तुमको
जब चाहूँ
पलकें मूँद लेती हूँ

सोमवार, 18 जनवरी 2010

१८/०१/२०१०-शादी की सालगिरह पर ..अतुल के लिए

दिल में बसे हो गहरे हमनवा हो तुम
सफ़र -ए -ज़िन्दगी के रहनुमा* हो तुम

गुज़रे हैं साथ तेरे ,कितने खिज़ा- बहारें
दिल के खिले गुलों के गुलिश्तां हो तुम.

ना है कसमें-वादे, प्यार है इबादत दिल की
सजदों के खातिर जिंदा मुज्जस्मा हो तुम

दिन सोने से दमकते है, रातें हैं चांदनी सी
सुकूं- ए-दिल जहां है ,वो आसमां हो तुम

नामों से नहीं होता मुक्कमल* कोई रिश्ता
रिश्तों कि हकीक़त के आब-ए-रवां* हो तुम

बिन कहे समझते हम, दिलों की कितनी बातें
लफ़्ज़ों की नहीं ज़रुरत, मेरे हमज़ुबां हो तुम

झुकती है परस्तिश* में, ज़बीं खुदा के आगे
मुझको मिला खुदा से,हसीं अर्मुगां* हो तुम

meanings-

रहनुमा-राह बताने वाला
मुज्जस्मा-मूरत
मुक्कमल-पूर्ण
आब-ए-रवां= बहता पानी
परस्तिश-पूजा
ज़बीं-माथा
अर्मुगां - तोहफा /उपहार

रविवार, 17 जनवरी 2010

'उद्यान'---(आशु रचना )

वो कली से
फूल बनता
गुलाब,
वो जूही की
लचीली डाली
साँसों को महकाता
बेला,
चंपा पर बैठी
तितली
घास पर
बिछी चादर
हरसिंगार की
ओस की छुअन
कोयल की कुहू
होता है सब
अलग सा क्यूँ
अब 'उद्यान' में !!!!!

शनिवार, 16 जनवरी 2010

दरिया-ए -मस्सर्रत

बह चला
दिल से
जिस लम्हा,
रुका हुआ
दरिया-ए-मसर्रत
खिल उठे
सूखे हुए लब ,
हो गयी
गुलज़ार
सांसें....
भर गए
सब ज़ख्म ,
रिसते थे
जो
जब तब,
बह गयी
संग धार के
अटकी थी
मन में
जो फांसे .......

कोंपल

फूटी है उस शाख पर
फिर से कोंपलें
कोमल ,नाज़ुक,
ताज़गी का
एहसास लिए
जीवन की
शुरुआत लिए
सूनी पड़ी थी शाख
पतझड़ के बाद
छुआ बसंत ने
सत्व रगों में बहता
जीवन क्रम
हर जीवन का
यही है कहता
कोंपल बनेगी पत्ते
धूप बारिश
हवा शीत को
सहते हुए
पहुंचेगी
परिपक्वता को
झड जायेंगे पत्ते
देने स्थान
नयी कोंपल को
जीवन रस है
शाख में जब तक
फूटती रहेगी
कोंपल उस पर
हर बसंत के
आगमन पर

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

वट-वृक्ष

वृक्षों के झुण्ड में
एक पृथक व्यक्तित्व
विराट,वृहद्
सम्पूर्ण..
सुदृढ़ और
गरिमापूर्ण..
अनगिनत जड़ें
जो हो रही थी
एक पृथक
तने में परिवर्तित
देने को
हर शाख को
उसका संबल...
घने पत्तों की
ठंडी छाँव
दे रही थी सुकून
तपते तन
औ मन को
अनुभव और स्नेह
की ऊर्जा का
बना था ऐसा
आभा -मंडल
चहुँ ओर
उस वट-वृक्ष के
हठात देख उसको
मुझे तुम याद आये.......

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

जी करता है मेरा भी..

जी करता है मेरा भी..
लिखे मुझ पर
भी कोई नज़्म
ख़यालों में बसा के
उतारे हर्फ़ कागज़ पर
बहूँ मैं भी कलम से
बन के प्यार उसका ..

जी करता है मेरा भी
बताये मुझको भी कोई
धड़कती हूँ क्या सीने में
बसी हूँ क्या निगाहों में
बन के खुमार उसका? ....

जी करता है मेरा भी..
टिका के सर को
कांधों पर किसी के
खो जाऊँ तस्सवुर में
महक जाए
ये तन
ये मन मेरा
साँसों में
ज्यूँ है शुमार उसका .........

जुगलबंदी मौन की

होती है
कानों पर
तेरी साँसों की
आहट
चुप हो जाती हैं
जुबां
बोलने लगती हैं
आँखें
धडकता है
दिल
दहकने लगती हैं
सांसें
शुरू होती है
गुफ़्तगू
दिल की दिल से
परे लफ़्ज़ों से
कहती हूँ मैं
सुनता है तू
गुनगुनाती है
ख़ामोशी
नज्में तेरे दिल की
मिल जाते हैं
तेरे लब
मेरे लबों से
हो जाती है
मुकम्मल
यूँ
जुगलबंदी
मौन की..........

बुधवार, 6 जनवरी 2010

क्यूँ है??

वही ज़िन्दगी,वही है जीवन
बदला आलम लगता क्यूँ है
फूल वही तो खिले चमन में
महक
उठा तन मन क्यूँ है

सब कुछ है पहले ही जैसा
बस बदला है अंतस मेरा
बादल बारिश हवा फिजायें
सबमें छाया है चेहरा तेरा
घुला घुला सा तुझमें ये मन
पिघला पिघला सा तन क्यूँ है
फूल वही तो खिले चमन में....


हर शै गाती गीत मिलन के
झूम उठे सब भाव हिय के
कल कल मन की नदिया बह कर
पाँव पखारे उद्दीप्त प्रिय के
रोशन उसके होने से जग
निखरा निखरा हर पल क्यूँ है
फूल वही तो खिले चमन में ..............