मंगलवार, 29 मार्च 2011

सत्य की बस पहचान यही है....



कर्म तुम्हारा
फूल खिला दे,
आशाओं के
दीप जला दे,
जले हृदय में
प्रीत की जोत,
हो मन
करुणा से
ओत प्रोत,
तभी समझना
दिशा सही है
सत्य की
बस
पहचान यही है.....

तेरे-मेरे के
भाव
मिटें जब,
हृदय से
सारे बोझ
हटें जब ,
जीने का
हर क्षण
हो उत्सव
ईश को पाना
तभी है संभव,

मलिन ना हो
कभी
मन ये तेरा,
खुशियों का
चहुँ ओर हो डेरा,
तभी समझना
दिशा सही है
सत्य की
बस
पहचान यही है.....









शुक्रवार, 25 मार्च 2011

सुगंध मेरी माटी की ..

कई सालों बाद अपने जन्म -स्थल जाना हुआ ..मम्मी -पापा के गुजरने के बाद वहाँ जाना कम ही होता है ॥ वहाँ जा कर जो एहसास हुए उन्हें शब्दों में बाँधा है ॥आशा है मेरी संवेदनाएं पाठकों तक पहुँच पाएंगी

सुगंध मेरी माटी की ..

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आते ही करीब
जन्मभूमि के
सिमट आई
उर में
सोंधी सी महक
उठ रही है जो
मेरी अपनी
माटी से ....
सहला रही है
भीगी सी
ठंडक लिए
हवा
गालों को मेरे
ज्यूँ मिली हो
सालों बाद
माँ अपनी
बेटी से...

आकाश का
नीलापन भी
है कुछ
अलग सा
यहाँ का ,
हरीतिमा
जंगल की
कितनी
पहचानी सी है..
साल
और
सागौन के पेड़
जैसे
पूछ रहे हैं
मुझसे
हो गयी तू
क्यूँ इतनी
बेगानी सी है ..??

नए हैं पत्ते
सागौन के
जिन्होंने
देखा भी नहीं
कभी मुझे
लेकिन
उनके भी
स्नेह की
वही है
ठंडी छाँव ..
महक,
गीली मिटटी
और
हरे पत्तों की
करने को
आत्मसात,
बरबस ही
ठिठक जाते हैं
मेरे पांव.....

भले ही
बन गयी हैं
ढेरों इमारतें
किन्तु ,
धान के
खेतों के बीच
बना
दूर कहीं
दिखता
वो एक घर,
कराता है
एहसास मुझे ,
किसी
अनदेखे ,
अनजाने
फिर भी
अपने
के होने का
वहाँ पर ...

पहचाने से
पर्वतों के बीच
दिखता
वो नन्हा कोना
शुभ्र हिमालय का,
ज्यूँ
दिला रहा है
यकीन
मुझको ,
मेरे
शाश्वत
पितृ-आलय का

आम
और
लीची के
बागों में
खिला बौर
झूम उठा है
मुझको देख कर
लगता है
मुझे ऐसा भी ...
नहीं लगता
मुझे
कुछ भी
अजनबी
इस शहर में
बदल जाए
बाह्य रूप
चाहे इसका
कैसा भी ..

आ कर
गोद में
अपनी
जननी की
सोच रही हूँ
भीगी पलकों से...
कैसे कह बैठी थी मैं
परायी हो
अपनी माटी से,
कि अब वहां
मेरा कोई नहीं ...!!



रविवार, 20 मार्च 2011

कान्हा ...खेरो होरी !!!

सभी को होली की अनन्य शुभकामनाएं ...

##############

रंग उड़े हैं नीले पीले
कोई मन ना भाये
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी
तन भी रंग रंग जाए

मन मेरा अब हुआ बसन्ती
तन पर उसकी छाया
रंग हुआ गालों का ऐसा
ज्यूँ गुलाल छितराया
देख छवि कान्हा में अपनी
नैनन रंग बरसाए
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी...

होली का हर रंग है फीका
क्या नीला क्या पीला
सूखा मोरा मन है तुझ बिन
रंग डार करो गीला...
लगूं अंग अब स्याम तिहारे
मन तन सब रंग जाए
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी...

खिला है फागुन चहुँ दिसा में
सुनो वेदना मोरी
सखियाँ रंगने आयीं लेकिन
चुनरी मेरी कोरी
रंग दो मेरे रोम रोम को
मैं तू,तू मैं हो जाए
कान्हा तेरी प्रीत निगोड़ी
तन भी रंग रंग जाए ..

शनिवार, 19 मार्च 2011

व्यवधान ....

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देखा है न नदी को !!
कितना
शोर करती है
उसकी लहरें ,
उछलती ,
उफनती ,
उत्पाती सी
लगती है
जब मिलता है
उसके जल को
व्यवधान
चट्टानों का ,
कहते तो नहीं
इसे
'उद्दंडता"
नदी की ,
दुनिया वाले !!

हो ही जाता है
कभी - कभी
विध्वंसक
अनपेक्षित
व्यवधानो
के होने की
स्थिति में ...

किन्तु !!
देखा है न तुमने !
वही जल
बहता है
शांत ,
संयमित ,
गरिमामय'
सहज
गति से
व्यवधानों से मुक्त
समतल धरा पर ...

जल तो
है ही ऐसा,
बना लेता है
अपना रास्ता
अपनी
सहज प्रवृति
के कारण
व्यवधानों के
बावजूद भी ।



बुधवार, 16 मार्च 2011

अपूर्ण-सम्पूर्ण

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यूँ तो
नहीं था
एहसास
मिलने से
पहले
कि
'तुम'
और
'मैं'
हैं
कहीं कुछ
अपूर्ण ..

घुल जाने से
किन्तु !!
तुम्हारा
और
मेरा
"मैं ",
हो गया है
घटित
जीवन में
ज्यूँ
सभी कुछ
सम्पूर्ण ...

शनिवार, 12 मार्च 2011

गवेषण .....

पाने हेतु
सत्य को
करता है
जो
गवेषण ,
करता नहीं
वह कभी
पूर्वाग्रही
विश्लेषण..
हो जाता है
साक्षी वह
गुज़रते हुए
हर क्षण का,
पहुँचता है
यूँ
उस तक
दैविक ऊर्जा का
सम्प्रेषण॥



बुधवार, 9 मार्च 2011

देह ....स्पंदनो की

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होते हैं शब्द
देह सम ,
स्पंदनों की
रूह के लिए ..
न हो
भले ही
प्राथमिकता
किन्तु!
नकार सकते
नहीं
हम
महत्वपूर्ण
अस्तित्व
उनका ....


शनिवार, 5 मार्च 2011

सवेरे-सवेरे.. (आशु रचना )..

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है हक़ीक़त या ख़्वाब है, सवेरे-सवेरे
साथ तेरा नायाब है ,सवेरे-सवेरे

आब-ए-शब से भीगे गुलों पर भी देखो
कि उमड़ा शबाब है ,सवेरे-सवेरे

उनींदा अभी भी आगोश -ए-बादल
सिमटा आफताब है ,सवेरे-सवेरे

उतरती नहीं एक लम्हा भी दिल से
पुरअसर शराब है ,सवेरे-सवेरे

सबा छू के उनको ,चली मुझ तक आई
असर लाजवाब है ,सवेरे-सवेरे

गुरुवार, 3 मार्च 2011

उस द्वीप पर....

डूबते उतराते
भव सागर के
अथाह
जल में
हो जाता है
अनायास ही
सामना
अनजानी लहरों
और
अनचाही
परिस्थितियों से...
टकरा जाते हैं
विभिन्न
प्रजातियों के
जीव भी
इस देह से
कभी ...
पा कर
एक अजूबा
मध्य अपने
करने लगते हैं
आघात
हर संभव
तरीके से
मुझ पर .....
कभी हो कर
शिथिल
बहने लगती हूँ
मैं
लहरों के साथ
और
हो कर कभी
उद्विग्न
करती हूँ
प्रयत्न
लहरों के
विपरीत भी
तैरने का ..
हो जाता है
मन क्लांत
अनचाहे से
इन
उपक्रमों से
और
मिलती है
विश्रांति
उसे
तुम्हारे
स्नेहिल स्पर्श
और
नज़रों से
परिलाक्षित
मौन
वार्तालाप में ...
चलो जानां !!
थाम के हाथ,
चलते हुए
इन अनजानी
लहरों पर ,
छोड़ते हुए
क़दमों के निशाँ
इस सागर
के
असीम जल पर ,
बिता लें
कुछ शांत पल
उस द्वीप पर
जहाँ
हम हैं ,
सिर्फ
"हम"
ही .....



बुधवार, 2 मार्च 2011

हे शिव !! अब आ जाओ तुम

महाशिवरात्रि की असीम शुभकामनाएं

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सदा अधूरी तुम बिन शक्ति
हे शिव ! अब जाओ तुम
कर दो फलित तपस्या मेरी
जीवन रस बरसाओ तुम...

नारीत्व सहज ही खिल जायेगा
अंतस जागृत हो जायेगा
कर स्वीकार यथावत मुझको
स्वयं से मुझे मिलाओ तुम
हे शिव ! अब जाओ तुम ...

बनू संगिनी सदा तुम्हारी
जीवन के हर निमिष निमिष
बन योगित युग्म हर्षित हों हम
मंज़िल तक साथ निभाओ तुम
हे शिव ! अब जाओ तुम

भेद अभेद जीवन का भ्रम है
दिव्य नृत्य ही सत्य क्रम है
कर संसर्ग शक्ति से निज का
वृतुल पूर्ण कराओ तुम
हे शिव ! अब जाओ तुम.....

शिव-शक्ति का मिलन तथ्य है
घटित अद्वैत ही पूर्ण सत्य है
कर समाहित अर्धांग में अपने
पूर्ण ईश्वर बन जाओ तुम
हे शिव ! !अब जाओ तुम .....