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वेगवान वो लहर थी जिसमें
पूर्ण समर्पण मेरा था ...
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था ...
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बह निकले तुम फिर संग मेरे ,
उन्मादित धारा में डूब उतर ..
यूं लगा मिटे थे द्वैत सभी
हस्ती निज की थी गयी बिसर..
किन्तु जटिल है अहम् बड़ा
पुनि पुनि कर जाता फेरा था ..
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था .
रोका था तुमने फिर दृढ़ता से ,
खुद के यूँ बहते जाने को ,
हो लिए पृथक उन लहरों से
जो आतुर थी तुम्हें समाने को
दृष्टि तेरी में साहिल ही
बस एक सुरक्षित घेरा था ...
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था ...
अब बैठ किनारे देख रहे
तुम इश्क की बहती लहरों को,
भीगेगा मन कैसे जब तक
ना तोड़ सकोगे पहरों को !
मैं डूब गयी,मैं ख़त्म हुई
कर अर्पण सब जो मेरा था ....
वेगवान वो लहर थी जिसमें
पूर्ण समर्पण मेरा था ...